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भाजपा ने राष्ट्रपति के साथ भी किया :असंसदीय व्यवहार

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सुसंस्कृति परिहार 

यूं तो वर्तमान भारत सरकार ने दलित और आदिवासी समाज से माननीय रामनाथ कोविंद जी और आदिवासी समाज से माननीय द्रोपदी मुर्मू जी को राष्ट्रपति बनाकर वाह वाही लूटी किंतु दोनों राष्ट्रपति के अधिकारों की बात छोड़िए उनके प्रोटोकॉल की भी हमेशा अवहेलना की गई जबकि संविधान के मुताबिक देश के प्रथम नागरिक सम्मान का हक राष्ट्रपति का है।उसके बाद उपराष्ट्रपति,लोकसभा स्पीकर तथा बाद में प्रधानमंत्री का नंबर आता है। किंतु  दोनों राष्ट्रपति की प्रधानमंत्री ने सदैव अवमानना की।शायद इसलिए कि वे दोनों अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से आते हैं।यह बहुत ही चिंतित करने वाला मामला था किंतु इसका प्रतिरोध राष्ट्रपति नहीं कर पाए।यह संवैधानिक और लोकतांत्रिक बड़ी भारी खामी है।

 कई ऐसे दृश्य हैं जिनमें  राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और लोकसभाध्यक्ष स्वत: प्रधानमंत्री के आगे हाथ जोड़े खड़े नज़र आते हैं।ये कैसी इतने पदों की गरिमा मिट्टी में मिलाई जा रही है।एक हाल का दृश्य दिल को झकझोर कर रख देता है जब महामहिम राष्ट्रपति महोदया खड़ी नज़र आती हैं ँऔर मोदीजी अडवानी जी के साथ बैठे नज़र आते हैं दृश्य तब का है जब राष्ट्रपति महामहिम मुर्मू जी लालकृष्ण आडवानी जी को भारत रत्न प्रदान करती हैं।पहले यह दृश्य चैनल और अखबारों ने दिखाया बाद में मोदीजी को कट करके दिखाया गया। कम से कम इतनी संवैधानिक तमीज तो प्रधानमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर बैठे शख़्स को होनी ही चाहिए।दिखावा ही कर लेते।मन इन पदों को रेवड़ी की तरह बांटने वाला ऐसी ही सोच का इस्तेमाल करेगा।उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और ना ही इन पदों पर आसीन लोगों को।यह सब प्रजातंत्र की कमज़ोरी दर्शाता है और इंगित करता है कि देश की सत्ता अब फासिस्ट ताकतों के हाथ में पहुंच चुकी है।

इसे पूर्व भी कई अवसर ऐसे आए जहां महामहिम की उपस्थिति बेहद ज़रुरी थी लेकिन उन्हें आमंत्रित ही नहीं किया गया।वह आज का ही दिन था जब सेंट्रल विस्टा,यानि नए  संसद भवन की इमारत का उद्घाटन होना था। प्रधानमंत्री ने संसदीय संहिता का उल्लंघन करते हुए अपने कर कमलों इसे उद्घाटित किया।तब 19 विपक्षी दलों ने इसका विरोध दर्ज करते हुए महामहिम राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपा था तथा इसे संसदीय परिपाटी का घोर अपमान बताया था। सांसदों ने लिखा था कि संसद राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति के बिना अधूरी है ये संसद की आत्मा है। सांसद राहुलगांधी ने कहा था कि ये इमारत अहंकार की ईंटों से नहीं संवैधानिक मूल्यों से बनती है। सांसद महुआ मोइत्रा ने कहा कि यह प्रधानमंत्री के खुद के पैसों से निर्मित मकान का गृह  प्रवेश नहीं है। वास्तव में यह लोकतांत्रिक समारोह का एक पुनीत अवसर था जिससे राष्ट्रपति को दूर रखने का यह अशोभनीय कृत्य है।साथ ही संवैधानिक सर्वोच्च पद का अपमान और लोकतंत्र पर सीधा हमला है।

विदित हो इससे पहले पूर्व महामहिम रामनाथ कोविद जी को राम मंदिर के भव्य शिलान्यास कार्यक्रम में भी नहीं आमंत्रित किया गया था और पिछली जनवरी में जब राममंदिर प्राण-प्रतिष्ठा समारोह हुआ तब वर्तमान राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू जी के साथ भी ऐसा ही सुलूक किया गया।  एक तो लोकतांत्रिक सरकार के सत्तासीन लोगों को किसी मंदिर मस्जिद वगैरह में नहीं जाना चाहिए यदि सरकार जाती है तो उसमें राष्ट्रपति को भी ले जाना चाहिए।यह तो जातिवाद के नफरती चिंटुओं को खुश करने का प्रयास है।वोट की विशुद्ध राजनीति हे फिर तो दलित और आदिवासी समाज को भी ऐसे मामलों पर सोचना होगा। राष्ट्रपति का कठपुतली की तरह इस्तेमाल, इन समाजों की चिंता में शामिल होना चाहिए।कम से कम वोट देते समय तो यह स्मरण रखना ही होगा कि आज भी इतने बड़े पद पर काबिज लोगों को कैसे अपमानित किया जा रहा है तो आम आदमी की क्या बिसात?

संविधान के अनुच्छेद 79के अनुसार देश मे एक संसद होगी जिसमें राष्ट्रपति और दो सदन होंगे एक राज्यसभा और दूसरी लोकसभा। राष्ट्रपति ना केवल राज्य प्रमुख बल्कि संसद का एक प्रमुख अंग भी होंगे। राष्ट्रपति के पास संसदीय सत्र बुलाने उसका अवसान करने और संबोधित करने का भी अधिकार है। तीनों सेनाओं का प्रमुख होने के कारण उसके पास आपातकालीन अधिकार भी हैं।मृत्यु की सजा काट रहे अपराधियों को छूट देने का अधिकार भी है वे विशेष परिस्थितियों में क्षमादान भी कर सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है संसद द्वारा पारित कानून को अधिनियम बनने से वे विमर्श और संशोधन हेतु रोक सकते हैं।

विदित हो ,पेप्सू बिल 1956 तथा भारतीय डाक बिल 1984 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने इस वीटो का प्रयोग किया था।   यदि कोई विधेयक राष्ट्रपति के पास आता है और वह इसे पुनर्विचार के लिए संसद को वापस भेजता है, तो यहाँ निलम्बनकारी वीटो की परिस्थिति बन सकती है। डाकघरों (डाक का अवरोधन) विधेयक को राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने पूर्ण वीटो की शक्ति का उपयोग करके रोक दिया था।तब प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे।भारत के राष्ट्रपति की वीटो शक्ति के संबंध में संवैधानिक प्रावधान अनुच्छेद 111: यह संसद द्वारा पारित विधेयक पर राष्ट्रपति की वीटो शक्ति से संबंधित है। अनुच्छेद 201: यह अनुच्छेद राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति की वीटो शक्ति से संबंधित है, जिन्हें राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किया गया है।

कुल मिलाकर राष्ट्रपति को अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते रहना चाहिए। जिससे सरकार को उसकी शक्तियों का अहसास रहे।  राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह का नाम सदैव स्मरण किया जाएगा।भाजपा सरकार ने जिस तरह का व्यवहार राष्ट्रपति द्वय के साथ किया है। वह सब शायद राष्ट्रपति की कमज़ोरी  का ही प्रतीक है लेकिन इसके पीछे सरकार की मंशा को समझने की ज़रूरत है। हम देश की संवैधानिक उपेक्षा से ही संविधान को ख़तरे की ओर लिए जा रहे हैं तथा नया संविधान लिखा जा चुका है। यह छोटी नहीं बड़ी भूल है।इसे सुधारने का उप क्रम जिम्मेदार संस्थाएं और नागरिक जागरुक समाज को करना होगा।

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