अरुण आनंद
वह हर मुद्दा जो हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को तेज करता हो, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कोर राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा रहा है। इन विभाजनकारी मुद्दों को अक्सर वह उन्हीं समयों में उभारती है जब चुनाव का वक्त आता है। हिंदू-मुस्लिम के इस ध्रुवीकरण में हिंदुओं के वोट का एक बड़ा हिस्सा उनकी सत्ता को सुरक्षित बनाए रखने में एक औजार के बतौर अबतक इस्तेमाल होता रहा है।
भावना के सहारे हिंदू बहुसंख्यक समूह को मुसलमानों के आक्रांता होने और उनसे हिंदू धर्म के खतरे के तारणहार के रूप में भाजपा खुद को हिंदुओं के एक बडे़ समूह में अपनी पैठ बनाने में कामयाब रही है। उसकी कामयाबी में हिंदी मीडिया, बौद्धिक जगत और उनके वे सैकड़ों संगठन रहे हैं, जो सरस्वती विद्या मंदिर से लेकर स्वदेशी के नाम पर लोगों को लगातार जहरीला बनाते रहे हैं। उनके लिये रोजगार, समुचित पढ़ाई-लिखाई, दवाई, सिंचाई और विकास के समुचित अवसर की बात वह कभी नहीं करते। उनके हिंदू धर्म खतरे में है, का भाव ही उनका वह अस्त्र है, जो उन्हें मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करता रहा है।
भाजपा इसी तरह के नॅरेटिव और कारगर अस्त्र के बतौर इस बहुसंख्यक समुदाय का इस्तेमाल अपने वोट बैंक के रूप में करती रही है। भावनात्मकता के लिहाफ में धर्म के नाम पर यह डर ही वह रथ है, जिस पर सवार होकर उनका हिंदू शासन अखिल भारतीय स्वरूप में छतनार हुआ है। भाजपा की इन भावनात्मक छलनाओं से बाहर निकलने की सारी परिस्थितियां देश में उनके ही शासनकाल में पैदा हो गई हैं। जरूरत है कि सही संदर्भों और ठोस वैज्ञानिक नजरिये से चीजों के वस्तुनिष्ठ आकलन की।
भाजपा ने अभी एक ऐसी ही चाल ‘समान नागरिक संहिता’ (यूनिफार्म सिविल कोड) को लेकर चली है। संसद में सरकार ने यह प्रस्ताव सीधे पेश नहीं किया है। उसके राज्यसभा सांसद किरोड़ी लाल मीणा ने जारी शीतकालीन सत्र में राज्यसभा में निजी विधेयक के रूप में पेश किया है। इसके पीछे भी उसके अपने निहितार्थ होंगे, क्योंकि मीणा के इस प्रस्ताव में उन्हें पार्टी का समर्थन हासिल है। राज्यसभा के 63 सदस्यों ने इस विधेयक के पक्ष में मतदान किया। 23 मत इसके विरोध में पड़े। कांग्रेस, सपा, राजद और द्रमुक ने विरोध-प्रदर्शन किया। बीजू जनता दल ने सदन से वॉक आउट किया। इस विधेयक के खिलाफ सबसे मजबूत आवाज एमडीएमके नेता वाइको ने उठाई। यह भाजपा की रणनीति ही थी कि जब सदन में विपक्ष की संख्या कम थी तभी यह विधेयक पेश किया गया। यह अकारण नहीं कि एक फेसबुक यूजर ने लिखा, “यूनिफार्म सिविल कोड मरे हुए लोकतंत्र में गिद्ध के शिकार जैसा है।”
भाजपा समान नागरिक संहिता के सवाल को पहले अपने शासित राज्यों में चुनावी चर्चाओं में लाती रही है ताकि 2024 के लोकसभा चुनाव आते-आते वह इस सवाल को केंद्रीय सवाल के रूप में मुखर कर सके और इसे भी अपने वोट बैंक के हिस्से के बतौर इस्तेमाल कर सके। उतराखंड में भाजपा की सरकार ने समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन की जांच के लिए एक समिति का गठन किया और गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल भी इसके पक्ष में अपना इरादा जाहिर कर चुके हैं। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान भी भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में इसके कार्यान्वयन को सूचीबद्ध किया था।
उतराखंड सरकार ने तो वहां के निवासियों के निजी दिवानी मामले को विनियमित करनेवाले संबंधित कानूनों की जांच करने और कानून का मसौदा तैयार करने के लिए विशेषज्ञों की एक कमिटी ही गठित कर दी।
अबतक हमने देखा है कि किस तरह भाजपा शासित राज्यों – उतर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश (हाल ही तक), गुजरात और मध्य प्रदेश में चुनावी चर्चाओं में ‘समान नागरिक संहिता’ उनकी रणनीति का हिस्सा बनती रही है। हम पहले भी देख चुके हैं कि अयोध्या में विवादित राम मंदिर का निर्माण हो या कश्मीर को विशेष राज्य के दर्जे से महरूम किया जाना– हर जगह भाजपा के निशाने पर मुसलमान रहे हैं। भाजपा की समान नागरिक संहिता की यह मांग भी कथित मुस्लिम कानूनों का हवाला देकर उठाया जा रहा है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में तीन तलाक वैध माना गया है। भाजपा ने पहले इसे कानूनन अपराध बनाया। फिर इसे अपने हितों के बतौर इस्तेमाल करने की रणनीति में वह सफल होती दिखी। और अब तो वह मुस्लिम समाज के अंदर पसमांदा की सियासत करने लगी है।
‘एक देश, एक कानून’ की तर्ज पर ‘समान नागरिक संहिता’ का पासा भाजपा ने फेंक तो दिया है, लेकिन सवाल यह उठता है कि यह प्रस्ताव सरकार सीधे सदन में क्यों नहीं लाना चाह रही? इसे अपने एक सांसद के माध्यम से लाने के पीछे उसका इरादा क्या है?
सवाल यह भी है कि क्या इससे जाति, धर्म, वेशभूषा के कारण देश में होनेवाले भेदभाव मिट जाएंगे? क्या इससे मानव अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित हो जाएगी? यह प्रक्रिया क्या सचमुच इतनी सरल है कि सभी पंथ के लोगों के लिए समान रूप से लागू हो जाएगी? अलग-अलग पंथों के लिए न होना ही समान नागरिक संहिता की मूल भावना है। ऐसे में यह संभव ही नहीं कि सभी नागरिकों पर उनके धर्म, लिंग या यौन अभिविन्यास की परवाह किये बिना इसे लागू किया जाए और यह उनके बीच मान्य हो।
सर्वविदित है कि भारत अपनी भाषाई, सांस्कृतिक और धार्मिक विविधताओं के लिए जाना जाता है। यहां के विभिन्न समुदायों में उनके धर्म और लोकाचार के आधार पर अलग-अलग कानून हैं। ऐसे में भारत जैसे विविधतापूर्ण और व्यापक आबादी वाले देश में समान नागरिक कानूनों को एकीकृत करना बेहद मुश्किल है। मुस्लिम पर्सनल लॉ भी सभी मुसलमानों के लिए समान नहीं है। बोहरा मुसलमानों में उतराधिकार के मामले बहुत सारे मामलों में हिंदुओं से मेल खाते हैं। वहीं संपति और उतराधिकार के मामले में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कानून हैं। वहीं पूर्वोतर भारत के ईसाई बहुल राज्यों में अलग-अलग कानून हैं। नागालैंड व मिजोरम के अपने पर्सनल लॉ हैं। वहां पर अपनी प्रथाओं का पालन होता है न कि धर्म का। इसी तरह बच्चा गोद लेने के मामले सभी जगह अलग-अलग हैं। हिंदू परंपरा में किसी को भी गोद लिया जा सकता है, इसके पश्चात् वह संपति का वारिस हो सकता है। लेकिन क्या इस्लाम में यह गोद लेने की मान्यता है? भारत में ‘जुवेनाइल जस्टिस लॉ’ है, जो नागरिकों को धर्म की परवाह किये बिना गोद लेने की अनुमति देता है। अगर समान कानून हुआ तो गोद लेते समय नियम बनाते समय क्या तटस्थ सिद्धांत होंगे– हिंदू, मुस्लिम या फिर ईसाई?
जाहिर तौर पर समान नागरिक संहिता को इस तरह के कई बुनियादी सवालों से दो-चार होना होगा। शादी या तलाक का मानदंड क्या होगा; गोद लेने की प्रक्रिया और परिणाम क्या होंगे; तलाक के मामले में गुजारा भत्ता या संपति के बंटवारे के अधिकार का क्या होगा? संपति के उतराधिकार के नियम क्या होंगे? ये सब ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब सहज नहीं होंगे।
भाजपा के लिए सबसे बड़ा प्रश्न यह भी है कि धर्मांतरण कानून और समान नागरिक कानून का सामंजस्य वह कैसे करेगी? समान नागरिक कानून स्वतंत्र रूप से भिन्न धर्मों और समुदायों के बीच विवाह की अनुमति देता है, जबकि धर्मांतरण कानून अंतरधार्मिक विवाहों पर अंकुश लगाने का समर्थन करता है।
एक अच्छा कानून वही होता है जो साफ और वैधानिक हो। समान नागरिक संहिता के सवाल पर जो पेंचीदगियां उभर रही हैं, उनसे लगता नहीं कि उसको कोई सकारात्मक स्वरूप तक पहुंचाया जा सकेगा।