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उत्तर प्रदेश में जाति की सच्चाई के सामने भाजपा की पैंतरेबाजी

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अंजनी कुमार

अब जैसे-जैसे 2024 करीब आ रहा है, उत्तर प्रदेश को लेकर भाजपा नेतृत्व में एक बेचैनी दिख रही है। बिहार में जाति जनगणना की रिपोर्ट आने के बाद वहां न सिर्फ दबंग पिछड़ी जातियों को लेकर भाजपा ने जो रुख अपना रखा, उसकी जमीन खिसक गई है, साथ ही ओबीसी की सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी उनके अनुमान से अलग ही चित्रावली को पेश कर दिया है।

जाति व्यवस्था भारतीय समाज की एक ऐसी संरचना है, जिसकी नब्ज पर हाथ रखते ही इस समाज की बीमारियों का पता लगने लगता है। जब तक आप जाति के उद्भव और उसकी संस्कृति पर बात करते हैं, आलोचनाएं रखते हैं, तब तक समाज के भीतर कुछ खास बेचैनी होते हुए नहीं दिखता है। लेकिन जैसे ही इसकी राजनीति और आर्थिक संरचना को भारतीय समाज की संरचना में रख देते हैं तब यह बहस भारतीय समाज, खासकर हिंदू समाज के अस्तित्व से जाकर जुड़ जाता है और बेहद आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों का हवाला देते हुए कहा जाने लगता है कि सभी को बराबरी का हक होना चाहिए, जातिवाद नहीं होना चाहिए और स्वतंत्र प्रतियोगिता ही भारत के विकास के लिए जरूरी है। 

जब भी जाति की संरचना को राजनीति और आर्थिक संरचना से जोड़कर देखा गया, धर्म के ध्वजावाहक देश की सनातन परंपरा और इसके नायकों का झंडा बुलंद करने में कभी पीछे नहीं रहे।

पिछले कुछ दशकों से स्थितियां बदली हैं। खासकर, भाजपा के उभार ने जाति व्यवस्था को बनाये रखने के प्रति दृष्टिकोण में एक फर्क डाल दिया है। इस पार्टी के चाणक्य कहे जाने वाले रणनीतिकार ने मंडल-कमंडल के द्वैध में कमंडल को धुरी बनाते हुए मंडल आयोग के रिपोर्ट को वोट में बदलने की नीति का पालन किया। इसे ‘सोशल इंजीनियरिंग’ नाम दे दिया गया। इसका मूल काम था– मंडल आयोग की संस्तुतियों में पिछड़ी जातियों के बीच ही भेद करना और आरक्षण की व्यवस्था राजनीतिक प्रतिनिधित्व की तरफ मोड़ देना। इसने पिछड़ा, अति-पिछड़ा जैसे वर्गीकरण को एक-दूसरे के साथ अंतर्विरोधी स्थिति में ला खड़ा करने की नीति का पालन किया। इस प्रक्रिया में शिक्षा, नौकरी और अन्य सामाजिक, राजनीतिक आरक्षण की प्रक्रिया को बेहतर बनाने के सवाल को पीछे छोड़ देने का रूझान दिखने लगा। इस तरह राज्यों में और केंद्र में भी जाति जनगणना का प्रश्न दरकिनार कर देने का रास्ता बनने लगा था। इसी दौरान नीतीश कुमार की बिहार सरकार ने जाति जनगणना को अंजाम देकर राज्य के जातियों की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को उनके जनसंख्या के अनुपात में पेश किया। 

बिहार सरकार की रिपोर्ट ने जाति और आरक्षण की मनगढंत कहानियों को धराशायी कर दिया। इसने अन्य राज्यों में, जहां इस तरह की गणना के लिए आयोगों का गठन किया गया था या अभी इसकी तैयारी में थे; इस दिशा में काम करने के लिए मजबूर कर दिया।

इस मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति अलग दिखती है। यहां योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में चलने वाली सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के दौर में है। इसने रोहिणी आयोग की रिपोर्ट के बाद यहां थोड़ी देर से ही सही, मई, 2018 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश राघवेंद्र कुमार के नेतृत्व में पिछड़ा वर्ग को मिलने वाले आरक्षण को जातियों के संदर्भ में अधिक संगत बनाने के लिए आयोग गठित कर दिया। इस आयोग ने अक्टूबर, 2018 में ही अपनी रिपोर्ट प्रदेश की सरकार को दे दिया। लेकिन, इसे लागू करने के लिए सदन में पेश नहीं किया गया है। हालांकि योगी सरकार नगर और ग्राम पंचायतों के चुनाव के दौरान जरूर आरक्षण को लागू करने का प्रयास किया, जिस पर कोर्ट ने यह कहते हुए प्रतिबंध लगा दिया कि इसके लिए कोई उपयुक्त आधार पेश नहीं किया गया है। 

इसी तरह, कुछ जातियों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में डालने का प्रयास भी हुआ। इसे भी केंद्र सरकार का अधिकार क्षेत्र बताते हुए इस पर रोक लगा दिया गया। इस मसले पर, सपा की सरकार का भी रवैया और रिकार्ड बेहतर नहीं रहा है और इसने भी अपने शासनकाल में आरक्षण और ओबीसी के मसले को लेकर शासनादेशों का प्रयोग किया। जबकि जरूरत थी उत्तर प्रदेश की उपयुक्त जाति जनगणना करवाने की, जिससे सामाजिक स्थिति की वास्तविकता को जाना जा सके।

उत्तर प्रदेश में पिछड़ा वर्ग और आरक्षण की स्थिति असल में बेहद उलझा हुआ है। मंडल आयोग की रिपोर्ट भारतीय राजनीति में जब प्रयोग में लाई गई, तब आरक्षण को लेकर एक भूचाल-सा खड़ा हो गया था। इसे लेकर जो विचार-विमर्श हुआ, वह भले ही समाज को अपनी अवस्थिति के प्रति संवेदनशील बनाने में असफल रहा हो, लेकिन इसने प्रतिगामी सोच को काफी बढ़ावा जरूर दिया। इसने राजनीति में इस बात को भी स्थापित करने की ओर ले गया, जिसमें दावा किया गया था कि आरक्षण का लाभ ओबीसी की दबंग जातियां उठा रही हैं। खासकर, यादव और कुर्मी समुदाय को लेकर कई सारे बड़े दावे किए गए। इस तर्क को अनुसूचित जाति के आरक्षण में भी घुसाया गया और जाटव समुदाय का इसका मुख्य लाभार्थी बताने में गुरेज नहीं किया गया।

इसके पीछे उत्तर प्रदेश की अपनी राजनीतिक संरचना थी। चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में जाट समुदाय का उभार माना गया तो सपा को मुख्यतः यादव समूह की पार्टी माना गया और बसपा को जाटव समुदाय से जोड़कर देखा गया। यही स्थिति बिहार, महाराष्ट्र और कर्नाटक में भी रही। इन विमर्शों ने भाजपा की केंद्र सरकार को अक्टूबर, 2017 में रोहिणी आयोग के गठन के लिए प्रेरित किया। इसका सबसे पहला काम ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का इसकी जातियों में उपयुक्त बंटवारा करना था। उसे करीब 3000 ओबीसी जातियों को वर्गीकृत करना था। इस आयोग ने कई विस्तार पाते हुए अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप दिया।

वहीं नेशनल सैंपल सर्वे ने 2007 में जो आंकड़ा पेश किया था, उसमें ओबीसी की संख्या अखिल भारतीय स्तर पर 40.94 प्रतिशत थी। अनुसूचित जाति 19.59 और अनुसूचित जनजाति 8.63 प्रतिशत बताया गया। उत्तर प्रदेश में हुकुम सिंह के नेतृत्व वाली कमेटी ने 2001 में अपने पेश किये रिपोर्ट में ओबीसी की संख्या जनसंख्या का 50 प्रतिशत बताया था। इस रिपोर्ट के अनुसार यादव की हिस्सेदारी 19.40 प्रतिशत थी, इसके बाद कुर्मी-पटेल 7.4 प्रतिशत थे। जबकि निषाद, केवट और मल्लाह 4.3 प्रतिशत, भर और राजभर 2.4 प्रतिशत, लोधी 4.8 प्रतिशत और जाट 3.6 प्रतिशत थे। उन्होंने 79 जातियों को चिह्नित किया था। वर्ष 2001 में उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 16.61 करोड़ थी। जबकि हुकुम सिंह कमेटी ने 7.56 करोड़ जनसंख्या पर ही काम किया था।

उत्तर प्रदेश में भाजपा ने जातिगत समीकरणों को वोट के नजरिए से काम करते हुए अति पिछड़ा की राजनीति पर काम करना शुरू किया और हिंदुत्ववादी सांस्कृतिकरण को राजनीतिक प्रतिनिधित्व के सवाल से जोड़ते हुए उसने एक तरफ सपा और बसपा की राजनीति को जातिवादी संकीर्णतावाद, सत्तावाद और परिवारवाद से ग्रस्त बताया और दूसरी ओर खुद को पिछड़ों का हिमायती बताते हुए अतिपिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में झुकाना शुरू किया। इसी संदर्भ में न्यायमूर्ति राघवेंद्र कुमार आयोग का गठन किया गया, जिसने अक्टूबर, 2018 में ही 400 पन्नों की एक रिपोर्ट सरकार को समर्पित कर दी। बताया जाता है कि इस आयोग ने ओबीसी को पिछड़ा, अतिपिछड़ा और बेहद पिछड़ा में वर्गीकृत किया। इस रिपोर्ट को योगी सरकार ने अभी तक विधान सभा के पटल पर नहीं रखा है। लिहाजा यह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुआ है, लेकिन ओबीसी चिह्नित जातियों के आरक्षण को लेकर अखबारों में कई फार्मूले प्रकाशित होने लगे और रिपोर्ट के बहाने से यह बात भी सामने आने लगी कि केवल कुछ जातियां ही ओबीसी आरक्षण का फायदा उठा रही हैं।

ओबीसी को लेकर उत्तर प्रदेश में कई और भी प्रयोग किए गए। खासकर, अति पिछड़ी जातियों में से 17 को अनुसूचित जाति में डालने की कवायद भी हुई। इस काम में अखिलेश सरकार ने भी हाथ बंटाया और फिर योगी आदित्यनाथ की सरकार ने भी प्रयास किया। इन जातियों में कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार/प्रजापति, धीवर, बिंद, भर व राजभर, धीमान, बाथम, तुरहा, गोड़िया, मांझी और मछुआरा जैसी जातियां शामिल हैं। 

आरक्षण का दायरा बढ़ाने के बजाय पूर्व निर्धारित दायरे में जाति को उलझा देने वाली यह राजनीति उस समय भी सामने आई जब नगर निकाय चुनावों में बिना किसी उपयुक्त रिपोर्ट या विश्लेषण के कुछ निकायों को ओबीसी के लिए आरक्षित घोषित कर चुनाव प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाने लगा। इन दोनों ही मसलों पर उच्च न्यायालय ने रोक लगा दिया। इसमें पहले मसले पर निर्णय लेने का अधिकार केंद्र सरकार के पास था तो दूसरे के संदर्भ में उच्च न्यायालय ने इसकी उपयुक्तता पर सवाल उठाया था। नगर निकायों के चुनाव में ओबीसी आरक्षण को लेकर इस साल के जनवरी में न्यायमूर्ति राम अवतार सिंह की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया, जिसे छह महीने में रिपोर्ट देनी थी। इस आयोग ने 72 जिलों का दौरा कर निकाय चुनावों में आरक्षण की अधिसूचना में कई खामियों को पाया। इस रिपोर्ट के अनुसार शहरी आबादी में 37 प्रतिशत ओबीसी, 49 प्रतिशत सामान्य, जिसमें मुसलमानों को भी गिन लिया गया था, 14 प्रतिशत अनुसूचित जाति हैं। इसने पाया कि बड़े शहरों में ओबीसी छोटे शहरों के मुकाबले कम हैं। 

इस आयोग ने पाया कि महाराजगंज जैसे शहर में ओबीसी की संख्या 51 प्रतिशत है, लेकिन यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। ऐसी ही स्थिति बिजनौर और हरदोई जैसे शहरों की भी है। इसी तरह से पूर्वांचल के शहरों में यह संख्या 42.19 प्रतिशत है और पश्चिम में 37.53 प्रतिशत है। जबकि मध्यवर्ती शहरों में 27.55 प्रतिशत। अप्रैल-मई, 2023 के चुनाव में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। लेकिन, योगी सरकार के दौरान ओबीसी को लेकर बनाई गए दो आयोगों के रिपोर्ट में चिह्नित विसंगतियां और अति पिछड़ा समुदाय की स्थिति, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और आरक्षण से हासिल अन्य लाभों का मसला एक किनारे ही रह गया। साथ ही, आबादी के अनुसार प्रतिनिधित्व का प्रश्न भी अछूता रहा।

उत्तर प्रदेश में भाजपा की रणनीति  

केंद्र में मंडल आयोग की सिफारिशों में से आरक्षण की व्यवस्था लागू हो जाने के साथ ही भाजपा की रणनीति में तेजी से बदलाव आया। इसने भारत का अभिजात वर्ग, जो सवर्ण जातियों से बना हुआ है, को उस बौद्धिक माहौल को बनाने की ओर ले गया, जिसमें नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के संदर्भ में विकास कहा जाता है। यह वर्ग इतना अधिक असुरक्षित महसूस कर रहा था कि वह सार्वजनिक क्षेत्र को खत्म कर निजी पूंजीपतियों के हवाले कर अपनी आर्थिक अवस्थिति को सुव्यवस्थित और सुसंगठित कर लेना चाहता था। दूसरी ओर, इसने आरक्षण से समाज में पैदा हुई बेचैनी से संरचनागत विक्षोभों को हिंदुत्व की एकीकृत परिवार वाली भावना पर काम करना शुरू किया, जिसके शीर्ष पर परिवार के मालिक को ही रहना था, लेकिन इसके कमजोर बना दिए गए सदस्यों को कुछ राहत देने वाले कार्यक्रम भी पेश करने थे। यहीं से भाजपा ने ओबीसी और दलित जातियों के बीच उस समय की इन समुदायों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियों के साथ गंठजोड़ करते हुए काम करना शुरू किया।

उत्तर प्रदेश में बसपा ने कांग्रेस की नींव को हिला दिया था। लेकिन, भाजपा के लिए ओबीसी की राजनीति में घुसना अभी भी मुश्किल बना हुआ था। भाजपा की रणनीति दो स्तर पर रही। प्रथम यह कि अनुसूचित जातियों में ही अति पिछड़ा समुदाय को शामिल करा दिया जाय। हालांकि इस प्रयास में गंभीरता नहीं दिखती है। मसलन, योगी सरकार ने 17 जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में डालने की घोषणा कर दी। इसे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। यदि भाजपा का यह प्रयास ईमानदारी से होता तो वह केंद्र की मोदी सरकार को अपनी अनुशंसा भेज सकती थी। यह वोट हासिल करने वाला शिगूफा ही अधिक था। दूसरा, उसने कई आयोगों का गठन कर ओबीसी के अति पिछड़ा समुदाय के प्रति अपनी तरफदारी को दिखाने का प्रयास किया। उत्तर प्रदेश में पिछले 25 सालों में ओबीसी को लेकर तीन आयोगों का गठन भाजपा ने किया, लेकिन उस रिपोर्ट पर या तो बहस नहीं हुई या उसे दरकिनार कर दिया गया। अंतिम रिपोर्ट का आरक्षण का पक्ष लागू हुआ, बाकी को छोड़ दिया गया। 

उत्तर प्रदेश में भाजपा की रणनीति में मुसलमान समुदाय को ध्रुवीकरण के एक केंद्रक की तरह देखा गया, इसकी वजह से पसमांदा मुसलमानों का मसला हाशिए पर ही रहा।

अब जैसे-जैसे 2024 करीब आ रहा है, उत्तर प्रदेश को लेकर भाजपा नेतृत्व में एक बेचैनी दिख रही है। बिहार में जाति जनगणना की रिपोर्ट आने के बाद वहां न सिर्फ दबंग पिछड़ी जातियों को लेकर भाजपा ने जो रुख अपना रखा, उसकी जमीन खिसक गई है, साथ ही ओबीसी की सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी उनके अनुमान से अलग ही चित्रावली को पेश कर दिया है। इस रिपोर्ट ने बिहार की जातिगत संरचना को जिस तरह से पेश किया वह वस्तुगत तौर पर इतना अधिक विभाजनकारी है, जिसमें हिंदू परिवार की अवधारणा अपना दम तोड़ता हुआ दिखता है।

उत्तर प्रदेश में भाजपा ने बिहार की जातिगत जनगणना को ध्यान में रखते हुए कई स्तरों पर काम करना शुरू किया। वह बड़े पैमाने पर डॉ. आंबेडकर सम्मान और दलित जोड़ो महाभियान पर काम करना शुरू किया। इसके लिए दलित बुद्धिजीवी से लेकर कामगार और छात्रों के बीच प्रचार कार्य करते हुए उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में सम्मेलन आयोजित किया गया। इसी तरह से पसमांदा मुस्लिम समुदाय को जोड़ने के लिए उत्तर प्रदेश के 10 हजार मजारों पर जाने, मोदी सरकार की उपलब्धियों को बताने और भाजपा के साथ जुड़ने का अभियान चलाया गया और इस संदर्भ में बड़े कार्यक्रम आयोजित किए गए। यह अभियान अभी जारी है। सबसे अधिक बेचैनी पिछड़ा वर्ग को जोड़ने को लेकर है। इस दौरान अन्य राज्यों में हो रहे चुनाव में कम से कम दो बार प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को पिछड़ा वर्ग का बताया। लेकिन, योगी आदित्यनाथ के लिए यह काम संभव नहीं है। यह तब और भी संभव नहीं है जबकि उत्तर प्रदेश में वह खुद को न सिर्फ सनातन धर्म का रक्षक घोषित कर रहे हैं, साथ ही राम मंदिर निर्माण में एक अग्रणी की भूमिका में भी रख रहे हैं। 

बिहार की जाति जनगणना ने इस बार न सिर्फ अति पिछड़ा समुदाय को चिह्नित किया, इसने पसमांदा मुस्लिम समुदाय की संख्या और उसकी स्थिति को भी सामने ला दिया है। बिहार विधान सभा में दलित-बहुजनों के लिए आरक्षण को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत करने का प्रस्ताव दोनों सदनों में पारित कर दिया गया। यह सर्वसम्मति से हुआ। इसने 50 प्रतिशत के दायरे को भी तोड़ दिया। भाजपा पिछड़ा वर्ग के भीतर जातिगत अंतर्विरोध का जिस तरह से फायदा उठाने की राजनीति कर रही थी, अब उसे ऐसा करने में काफी मशक्कत का सामना करना पड़ेगा। भाजपा जिन पिछड़ी जातियों की आधारभूमि पर काम करने वाली पार्टियों के साथ काम कर रही थी, अब वे न सिर्फ जाति जनगणना की मांग कर रही है, साथ ही वे आरक्षण पर नए सिरे से विचार मंथन भी कर रही हैं। 

उत्तर प्रदेश में ओबीसी की राजनीति पिछले 30 सालों से लगातार हाशिए पर डालने की प्रक्रिया में ही रही है। इस मामले में यह देश के अन्य सभी राज्यों से भिन्न स्थिति में रही है। भाजपा ने ओबीसी राजनीति को मुख्यतः वोट के नजरिए से देखा और इसके लिए काम किया। इसने मुसलमानों को धर्म के ध्रुवीकरण के केंद्रक की तरह इस्तेमाल किया और साथ ही ओबीसी में यादव कथानक को गढ़ा। यदि उत्तर प्रदेश में जाति जनगणना होती है, या पिछले रिपोर्ट को ही सामने लाया जाता है तब उसमें न सिर्फ जातियों की संख्या, कुल जनसंख्या में ओबीसी की संख्या में बदलाव दिखेगा बल्कि जिन कथानकों का भ्रम गढ़ा गया है, वह भी टूटेगा। भाजपा इन स्थितियों से लगातार बचने का प्रयास कर रही है और आगामी संकट से उबरने के लिए वह तरह-तरह के महाभियान चला रही है। इस समय उत्तर प्रदेश में पिछड़ा वर्ग को लेकर जनवरी के पहले हफ्ते में एक महासम्मेलन की तैयारी भी चल रही है, जिससे आरक्षण और जाति जनगणना के मसले को सुलझाया जा सके। फिलहाल, भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अभी जाति जनगणना के मसले पर अधिक बोलने से कतरा रहा है।

जाति जनगणना और उत्तर प्रदेश की राजनीति में पक्ष-विपक्ष 

जिस समय बिहार की जाति जनगणना की रिपोर्ट आई, उस समय बसपा नेतृत्व राजस्थान में व्यस्त था तो सपा नेतृत्व मध्य प्रदेश में सक्रिय था। अखिलेश यादव और मायावती दोनों ही नेताओं को भाजपा नेतृत्व से उतनी शिकायत नहीं है जितनी कांग्रेस से कि वह जाति जनगणना का समर्थन ही क्यों कर रही है। अभी हाल ही में अखिलेश यादव का बयान आया कि कांग्रेस समाज का एक्स-रे चाहती है, वह एमआरआई क्यों नहीं कराना चाहती। यह भी एक अजीब संयोग है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 30 सालों से सत्ता से बाहर है। यहां भाजपा, बसपा और सपा नेतृत्व की ही सरकार काम कर रही है। ऐसे में, जाति जनगणना के सवाल को कांग्रेस के सिर पर फोड़ देने की रणनीति का कोई अर्थ नहीं है। भाजपा इन दो पार्टियों को छोड़कर ओबीसी से जुड़ी अन्य पार्टियों के साथ समझदारी बनाने में लगी हुई है। वह मुस्लिम और दलित समुदाय के बीच सघन तरीके से काम कर रही है। जाहिर है, उसका यह सारा प्रयास उत्तर प्रदेश में जाति जनगणना को लेकर उन्हें अपनी रणनीति के अनुकूल ढालने में होगा। ऐसे में, यह जरूरी है कि बसपा और सपा नेतृत्व इस मसले पर सक्रियता दिखाए और कांग्रेस को, जो जाति जनगणना की मांग कर रही है, की आलोचना के बजाय एक व्यापक एकजुटता का रास्ता साफ करे।

यहां यह सवाल जरूर सामने आता है कि जाति जनगणना से क्या लाभ? यह आरक्षण की व्यवस्था को ही और बेहतर कर सकेगा या इससे अधिक कुछ नहीं हो सकता? यहां यह जानना जरूरी है कि यह संयोग नहीं है कि भारत में लंबे समय से जनगणना रुकी हुई और पिछली जनगणना के ही कई रिपोर्ट ढंग से जारी नहीं किए गए। इसी तरह से नेशनल सैंपल सर्वे के रिपोर्ट भी एक तरह से बंद हो गए हैं। इस तरह के रिपोर्ट से न तो भूमिहीनों को जमीन मिलती है और न कामगारों, बेरोजगारों को काम। इन रिपोर्टों से हमें अपने समाज के हालात के बारे में पता चलता है। यह न सिर्फ वर्गीय अवस्थितियों को सामने लाते हैं, साथ ही ये जाति की उस सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संरचना को भी लेकर सामने आते हैं, जिसे उसी हाल में बनाये रखने की राजनीति भी होती है। जाति जनगणना भारतीय समाज की उस सच्चाई को खोलकर सामने ला सकती है, जिसे ढंककर लंबे समय से उन्हीं स्थितियों और संस्थाओं का प्रयोग की जाती रही है। यह समझना होगा कि जाति सिर्फ एक सांस्कृतिक संरचना नहीं है, बल्कि एक सामाजिक संस्थान है, जिसकी आर्थिक संरचना है और इसकी एक राजनीति है। इसे न सिर्फ जानना जरूरी है, इसे इसके अर्थ को संदर्भ के साथ समझना भी जरूरी है।

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