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भाजपा की गैरसंवैधानिक को​शिशें भी हैं कि उसका एकक्षत्र दबदबा कायम होता दिखे

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कनक तिवारी,

वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़

पांच राज्यों में हो रहे चुनावों में भाजपा की गैरसंवैधानिक को​शिशें भी हैं कि उसका एकक्षत्र दबदबा कायम होता दिखे। सबसे कठिन चुनाव बंगाल का है। वहां तिकोने संघर्ष में भाजपा के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस और वाम पार्टियों तथा कांग्रेस का संयुक्त गठबंधन ज़्यादा दमदारी के साथ है। चुनावों में ऊंट किस करवट बैठेगा बताना मुश्किल ही होता है। राजनीतिक प्राणी, तटस्थ मीडिया विश्लेषक और ज्योतिषी भी नहीं बता पाएंगे। भविष्यवाणी करने का एकाधिकार गोदी मीडिया और ईवीएम मशीन के पास होता है। पार्टियों के घोषणापत्र बस जारी होने को हैं।

बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के सांसदों, विधायकों और सांगठनिक कार्यकर्ताओं को हर कीमत पर खुलेआम खरीदने का अभियान प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अमित शाह के संरक्षण में भाजपा धड़ल्ले से कर ही रही है। यही उसका राष्ट्रवाद है कि हम्माम में सब लोग साथ नहाओ। भाजपा और संघ के साथ दिक्कत है कि उनके पास जनता को बताने के लिए नामचीन और कालजयी रोलमाॅडल नहीं हैं। इसलिए राजनीतिक कारणों से उनके वंशजों से सावधान रहते मुख्यतः जवाहलाल नेहरू को छोड़कर भाजपा ने कांग्रेस के कई नेताओं को अपनी सुविधा के चलते अपनाने की कोशिशें लगातार की हैं। गांधी तो शौचालय के दरवाजे पर चिपका दिए गए। मदनमोहन मालवीय को मरणोपरांत भारत रत्न दे दिया गया क्योंकि वे कांग्रेसी होने के साथ हिन्दू महासभा के अध्यक्ष हो गए थे। लालबहादुर शास्त्री की तारीफ करने के बावजूद उनके जन्मस्थान मुगलसराय का नाम बदलकर दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर कर दिया गया। नेहरू के खिलाफ सुभाष बोस से संबंधित कुछ फाइलें खोलने प्रधानमंत्री ने हाथ नचा नचाकर व्यंग्य बाण छोड़े थे। फाइलें खुलीं तो उनमें नेहरू-सुभाष की जुगलबंदी ने सभी साजिशों को धराशायी कर दिया।

विवेकानन्द के एक एक जनवादी कथन की उलटबांसी करते भी संघ ने विवेकानन्द फाउंडेशन बनाया। उसमें विवेकानन्द के केवल नाम का इस्तेमाल कर अपना फाउंडेशन मजबूत करने विवेकानन्द के विचारों को विकृत किया। बंगाल की धरती बौद्धिक तथा अकादेमिक दृष्टि से बहुत उपजाऊ रही है। रवीन्द्रनाथ टैगोर, महर्षि अरविन्द, ईश्वरचंद विद्यासागर, बंकिमचंद्र, चैतन्य महाप्रभु, काज़ी नज़रुल इस्लाम, वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बोस और प्रफुल्लचंद राॅय, विपिनचंद पाॅल, कई क्रांतिकारी और अंततः अमर्त्य सेन जैसे कई लोग भी बंगाल की उपज हैं।

भाजपा-संघ के खाते में बंगाल से अलबत्ता एक ही नाम है। वह उनकी मातृसंस्था भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष के रूप में डा0 श्यामाप्रसाद मुखर्जी का है। मुखर्जी उसकी पूर्ववर्ती संस्था हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से क्रियाशील रूप में जुड़े रहे थे। श्यामाप्रसाद मुखर्जी को कुदरत ने केवल 51 वर्षों का जीवन दिया लेकिन उनकी असाधारण प्रतिभा से इन्कार करना मुश्किल है। वैसे वह प्रतिभा स्वाधीनता आंदोलन के खिलाफ अंगरेजों की तरफदारी करने में सक्रिय रहे और चतुराई से लगातार एक के बाद एक पद हथियाने में भी। बंगाल के एकीकरण को लेकर गांधी जी सहित कई लोगों ने कोशिशें कीं। तब मुखर्जी उसके उलट बंगाल के विभाजन के पक्ष में माहौल गरमाते रहे। उन्होंने मुस्लिम लीग के मंत्रिमंडल में खुद शामिल होने में गुरेज नहीं किया। इसके बावजूद संविधान सभा में गांधी, नेहरू और पटेल ने अन्य पार्टी के डाॅ. मुखर्जी को कांग्रेस के समर्थन से नामजद करना चाहा। तो पदाकांक्षी मुखर्जी तुरंत तैयार हो गए।

लोकसभा सचिवालय में डा0 मुखर्जी के जन्मदिवस पर सेंट्रल हाॅल में अठारह पृष्ठों की पुस्तिका जारी हुई थी। सेंट्रल हाॅल वाचालता का दीवाने खास है। वह खुद एक मिनी लोकसभा है। इसके बावजूद इस पुस्तिका पर तत्काल कोई विवाद नहीं उठा, जबकि वह विवाद आमंत्रित करती है। पुस्तिका में आज़ादी के आन्दोलन के सन्दर्भ में कांग्रेस को जी भरकर कोसा गया और विमोचन समारोह में कांग्रेसी सांसद ताली बजाते रहे। इस पुस्तिका में डा0 मुखर्जी के लिए चुनिन्दा अतिरंजनाओं का इस्तेमाल किया गया। उनमें कई गुणों को गूंथा गया। उन्हें कई ऐतिहासिक भूमिकाओं से लैस किया गया जिन्हें वे खुद लेने से मुकर गए थे। यह पुस्तिका अब संसदीय लेखन का हिस्सा बन गई है। उस पर संसदीय संस्था और व्यवस्था की मोहर चस्पा हो गई है। नरसिंहराव सरकार के संसदीय कार्य मंत्री ने यदि इस पुस्तिका को पढ़ने की जहमत उठा ली होती तो इस पुस्तिका को संशोधित किया जा सकता था।

पुस्तिका दिलचस्प है। आगे कहती है, ‘‘1924 में डा0 मुखर्जी कांग्रेस टिकट पर कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल की विधान परिषद के लिए निर्वाचित हुए। 1937 में वे दुबारा निर्वाचित हुए। (इन्हीं दिनों) मुस्लिम लीग से (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की समझौता नीति) स्पष्ट और जीवन्त राष्ट्रीय हितों की कीमत पर तथा डाॅ0 मुखर्जी के स्वाभाविक राष्ट्रवाद के खिलाफ होने से उसने उनके कर्मयोगी को जागृत कर दिया।‘‘ यह कालजयी (?) वाक्य कांग्रेसी प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कार्य कर रही लोकसभा के सचिवालय ने तीन बार 1993, 1994 और 1995 में प्रकाशित किया। ऐसा भाजपा-समर्थक चमत्कार स्वातंत्र्योत्तर कांग्रेसी नेतृत्व में हुआ। आज़ादी के पहले गांधी, नेहरू और मौलाना आज़ाद जैसे कांग्रेसी नेताओं ने संघ-परिवार को हाशिये की राजनीति का विशेषज्ञ बना दिया था।

आज़ादी के बाद गांधी, नेहरू, पटेल की त्रयी ने उन्हें भारत की पहली मंत्रिपरिषद में शामिल करने का न्यौता दिया। मुखर्जी उसे मानने के लिए तैयार बैठे थे। संविधान सभा की महत्वपूर्ण सलाहकार समिति में मुखर्जी को नामजद किया गया। उस समिति ने फिर अल्पसंख्यकों के लिए बनाई गई उपसमिति में भी डाॅ. मुखर्जी को नामजद किया। इतिहास यह बात हैरत के साथ दर्ज करेगा कि डाॅ. मुखर्जी धीरे धीरे राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा स्वतंत्रता आंदोलन से छिटकते गए। अंततः भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष के रूप में दक्षिण कलकत्ता से पहली बार लोकसभा का चुनाव जीते।

डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अल्पसंख्यक अधिकारों की उपसमिति में 17 अप्रेल 1947 को सुझावों का एक नोट दिया था। मौजूदा भाजपा नेतृत्व को ये सुझाव चुनौती के साथ पेश किए जाएं तो दुनिया का अपने को सबसे बड़ा कहता कथित दल अपने पितृपुरुष को तर्पण तक नहीं कर पाएगा। डाॅ. मुखर्जी ने मुख्यतः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1931 के प्रस्तावों को समर्थन देते अपनी सिफारिशें लिखी थीं। उन्होंने उस देश के संविधान पर भी ज़्यादा भरोसा किया जो भारत में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में हमलावर बनकर घुस आया है। डाॅ. मुखर्जी ने चीन के संविधान सहित सोवियत संविधान और कैनेडा तथा आयरलैंड के संविधानों की कंडिकाओं का भी उद्धरण और समर्थन दिया।

डाॅ. मुखर्जी के लिखित नोट में है किसी व्यक्ति को किसी अदालत के आदेश या मुनासिब तौर पर बनाए गए कानून के अभाव में गिरफ्तार, प्रतिबंधित, निरोधित या दंडित नहीं किया जाए और न ही उसकी कोई संपत्ति ऐसे आरोप लगाकर सरकार द्वारा जप्त की जा सके। उत्तरप्रदेश की योगी सरकार इसके ठीक उलट आचरण मूंछों पर ताव देकर कर रही है और डाॅ. मुखर्जी की याद भी उसे नहीं होगी। नागरिक अधिकारों पर डकैती करते कानून उत्तरप्रदेश में बना है। जो पार्टी भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का शोशा छोड़ती रहती है, क्या उसने पढ़ा है डाॅ. मुखर्जी ने लिखा था कि भारत का कोई एक खास (राष्ट्रीय) धर्म नहीं होगा। यह राज्य की जवाबदेही है कि वह सभी धर्मों से बराबरी का बर्ताव करेगी। क्या भाजपा में हिम्मत है कि कहे वह डा0 मुखर्जी से असहमत है? यह भी कहा कि हर नागरिक को सरकार को सम्बोधित याचिका और शिकायत देने का अधिकार होगा और उसके खिलाफ मुकदमा करने का भी। (ब्रिटिश तथा चीनी संविधान से उद्धृत)।

यह भी मुखर्जी ने लिखा कि हर नागरिक को अपने पत्र व्यवहार की गोपनीयता बनाए रखने का अधिकार होगा। कोई नरेन्द्र मोदी सरकार से पूूछे कि पूरी दुनिया में अपनी फजीहत भी कराते मौजूदा सरकार नागरिकों की आज़ादी की गोपनीयता को किस तरह तार तार कर रही है। आधार कार्ड का प्रकरण हो। बैकों से संव्यवहार हो। सोशल मीडिया हो। इंटरनेट हो या अन्य जो भी तकनीकी ज्ञान के अवयव होते हैं। वहां घुसकर मोदी सरकार ने निजता के कानून का क्रूर उल्लंघन कई बार किया है और अब भी आमादा है। सुप्रीम कोर्ट तक को इस संबंध में संविधान पीठ बनाकर फैसला करना पड़ा है। सरकार का यह कृत्य तो डाॅ. मुखर्जी के अनुसार चीनी संविधान के अनुच्छेद 12 के खिलाफ है।

दिलचस्प है भाजपा सरकार और पार्टी संगठन को बताना ज़रूरी है कि डाॅ. मुखर्जी ने अपने नोट में लिखा था कि कोई लोकसेवक गैरकानूनी तरीके से किसी व्यक्ति की आज़ादी या अधिकार में दखल देता है तो उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही तो हो। इसके अलावा उसे फौजदारी और दीवानी कानून में भी आरोपी बनाया जाए। पीड़ित नागरिक चाहे तो ऐसे कृत्यों के लिए वह संबंधित सरकार से हर्जाने का दावा कर सकता है। (अनुच्छेद 26 चीनी संविधान)। देश में एक तो क्या लाखों प्रकरण हैं जिनमें मौजूदा केन्द्र सरकार की नकेल डाॅ. मुखर्जी के नोट की इमला में कसी जा सकती है। चाहे किसान आंदोलन हो। श्रमिक यूनियनों का खात्मा हो। आदिवासियों का विस्थापन हो। महिलाओं का रसूखदार नेताओं द्वारा बलात्कार हो या कोरोना पीड़ित लाखों गुमनाम देशवासियों की बेबसी और लाचारी के सरकारी कारण हों। मीडिया और नागरिक अधिकारों के कार्यकर्ताओं की जबरिया गिरफ्तारी हो। क्या हो रहा है डा0 मुखर्जी? हिन्दू-मुसलमान करने वाली भाजपा के पितृपुरुष ने कांग्रेस के प्रस्तावों पर निर्भर होकर कहा था कि अल्पसंख्यकों की संस्कृति, भाषा और लिपि की पूरी रक्षा की जाएगी। उन्हें अपनी शिक्षण और अन्य संस्थाएं चलाने और धर्म का पालन करने की पूरी आज़ादी होगी। क्या कहती है भाजपा उर्दू भाषा और मदरसों को लेकर? अब तो गुरुमुखी पढ़ने वालों को आतंकी और खालिस्तानी भी कहा जा रहा है!

मुखर्जी ने तो यह भी कहा था कि सरकारी नौकरी के 50 प्रतिशत पदों को योग्यता के आधार पर भरा जाए और बाकी पदों को प्रत्येक समुदाय से आबादी के अनुपात में उम्मीदवार लेकर भरा जाए। क्या देश नौकरियों में यह अनुपात भाजपा लाने का वचन दे सकती है? यह भी डाॅ. मुखर्जी ने अपने नोट में लिखा था कि विधायिका और अन्य स्वायत्तशासी संस्थाओं में अल्पसंख्यकों का मुनासिब आनुपातिक संख्या में निर्वाचन या मनोनयन किया जाए। भाजपा तो कभी कभी पूरे राज्य में लोकसभा या विधानसभा चुनाव में एक भी टिकट अल्पसंख्यकों को नहीं देती। 14 वर्ष तक बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने के अधिकार की सिफारिश करते उन्होंने लिखा था प्रदेश, जिला या नगरपालिक संस्थाओं के बजट में हर हालत में शिक्षा पर कुल बजट का 30 प्रतिशत खर्च किया जाए। है हिम्मत किसी भी सरकार की जो शिक्षा पर बजट का लगभग तिहाई तो क्या चौथाई खर्च करने की कहे भी? यह भी कि राज्य किसी को कोई उपाधि नहीं देगा। सावरकर जी का क्या होगा? राष्ट्रीय राजमार्ग पर धार्मिक भावना या भवन आदि बना रहा हो तो लोगों के यातायात में कोई दिक्कत पैदा नहीं करे। (कांग्रेस प्रस्ताव)।

महत्वपूर्ण है उन्होंने यह भी लिखा था कि भारत के हर नागरिक को हथियार रखने का अधिकार उस संबंध में बनाए गए विनियमों और आरक्षण आदि के आधार पर दिया जाएगा। सोचिए आज हर नागरिक के हाथ में हथियार होता! सरकारी अनुदान प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में किसी भी विद्यार्थी को अपना धर्म छोड़कर अन्य धर्म संबंधी शिक्षा या औपचारिकता को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं होगा। भारत में यदि रहना होगा, वन्देमातरम् कहना होगा का क्या होगा? महत्वपूर्ण है उन्होंने कहा था कि अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित स्कूल, काॅलेज, तकनीकी और अन्य संस्थाओं को राज्य से सहायता पाने का बराबर का अधिकार होगा जितना अन्य उसी तरह की सार्वजनिक संस्थाओं या बहुसंख्यक वर्ग की संस्थाओं के लिए दिया जा सकता है। किसी धार्मिक समुदाय को लेकर कोई विधेयक या प्रस्ताव विधायिका में प्रस्तुत किया जाना है, तो यदि उस प्रभावित धर्म के विधायकों में तीन चौथाई विरोध करें तो उस पर कोई कार्रवाई नहीं होगी।

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