Site icon अग्नि आलोक

चुनाव में फिर भी चलेगा काले धन का खेल

Share

साल 1977 में इंदिरा गांधी को पीएम पद से हटना पड़ा था, क्योंकि वोटर्स नफरत करते थे इमरजेंसी से। इसके बाद जनता पार्टी की सरकार बनी, जिसमें तेजतर्रार समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस उद्योग मंत्री बने। फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री में दिए एक यादगार भाषण में उन्होंने कांग्रेस के आगे झुकने और फंडिंग करने के लिए व्यापारियों की निंदा की थी।इसके तुरंत बाद एक बिजनेसमैन ने जॉर्ज फर्नांडिस को एक गुमनाम और खुला खत लिखा। उसमें फर्नांडिस से पूछा गया कि आप इतने गुस्से में क्यों हैं? आपको ऐसा क्यों लगता है कि हमें उस कांग्रेस से प्यार है, जिसने हमारे बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और इनकम टैक्स 97.7 फीसदी तक बढ़ा दिया? बेशक हमने शब्दों और नकदी के रूप में उपहार अर्पित किए, लेकिन हम प्रधानमंत्री और उद्योग मंत्री के पद को सम्मान दे रहे थे, उन पदों पर बैठे व्यक्तियों को नहीं। यह बात आज भी सच है।

 स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर

मुझे समझ नहीं आ रहा कि इतने सारे लोगों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनावी बॉन्ड को रद्द करने की सराहना क्यों की। हां, यह बात जरूर है कि इलेक्टोरल बॉन्ड अपारदर्शी थे। पता नहीं चलता था कि किसने किसे पैसा दिया। लेकिन, बात यह भी है कि ऐसी किसी स्कीम के बिना चुनावों में वाइट मनी घट जाएगी और पहले की तरह ही ब्लैक मनी का बोलबाला हो जाएगा।

महंगी है सियासत

कई आलोचक चुनावों में पैसों की भूमिका पर रोना रोते हैं। लेकिन, लोकतांत्रिक राजनीति महंगी है। लोकतंत्र में चुनाव और पैसों के बीच का संबंध बहुत गहरा है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आलोचकों का कहना है कि भले ही पैसा राजनीति से जुड़ा हो, लेकिन कौन किसे फंडिंग कर रहा है, इस पर पारदर्शिता की जरूरत है। अफसोस कि इस तरह की पारदर्शिता लाने की कोशिश में फंडिंग पर्दे के पीछे से हो सकती है। ऐसे में पारदर्शिता पहले से और कम हो जाएगी।

बॉन्ड की हकीकत

फंडिंग में इलेक्टोरल बॉन्ड का हिस्सा कभी भी बहुत ज्यादा नहीं रहा। असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के अनुसार, 2017-18 और 2022-23 के बीच इलेक्टोरल बॉन्ड से पार्टियों ने कुल 11,989 करोड़ रुपये जुटाए। मतलब कि हर साल करीब दो हजार करोड़ रुपये। जिन लोगों को राजनीति की हकीकत पता है, वे आपको बताएंगे कि चुनावों पर असल में इससे कहीं अधिक खर्च किया गया। इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये कुछ वाइट मनी मिल रही है, लेकिन ब्लैक मनी की फंडिंग भी बनी हुई है।

फंडिंग पर हैरत क्यों

ADR का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड में BJP की हिस्सेदारी 54.8 फीसदी थी। कुछ आलोचकों के मुताबिक, BJP को मिली फंडिंग अनुचित रूप से अधिक है। सच पूछिए तो यह बहुत कम है। कारोबारी इसलिए चंदा देते हैं ताकि नेताओं की ओर से उनके कामकाज में कोई बाधा खड़ी न की जाए। इस पहलू से देखें तो रूलिंग पार्टी को तो और भी चंदा मिलना चाहिए, लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड से जो पैसा आया उसमें BJP की हिस्सेदारी 54 फीसदी ही रही।

खरीद-फरोख्त का जरिया 

भारत में राजनीतिक पार्टियां चुनावों में हार सकती हैं, लेकिन दलबदलुओं को खरीद कर या सत्तारूढ़ विधायकों को अपनी सीटों से इस्तीफा देने के लिए राजी करके सत्ता में आ सकती हैं। 2018 में कर्नाटक, 2020 में मध्य प्रदेश और 2023 में महाराष्ट्र में जो हुआ वह इस बात का उदाहरण है। राजनीतिक हलकों में कहा जाता है कि इस काम के लिए बहुत पैसा बहाया गया। जाहिर है कि यह पैसा इलेक्टोरल बॉन्ड नहीं, बल्कि दूसरे रास्तों से आता है।

खर्च का गणित

उद्योगपति और राजनेता नवीन जिंदल ने एक बार कहा था कि व्यापारियों से नेता जो धन लेते थे, उसका बमुश्किल एक प्रतिशत ही चुनाव पर खर्च किया जाता था। इससे पता चलता है कि पॉलिटिकल फंडिंग उद्योगपतियों द्वारा राजनेताओं की खरीद-फरोख्त नहीं है बल्कि राजनेताओं द्वारा पैसों के बदले सुरक्षा देने का एक अभियान है। भले ही नवीन जिंदल ने बहुत बढ़ा-चढ़ाकर आंकड़ा पेश किया हो, लेकिन इससे संकेत मिलता है कि चुनावी खर्च कुल राजनीतिक खर्च का एक अंश मात्र है। पैसों और राजनीति के बीच जो संबंध है, उसमें इलेक्टोरल बॉन्ड का हिस्सा बहुत मामूली है।

मौलिक अधिकार और चंदा

अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि लोगों को किसी भी मुद्दे पर प्रचार करने का मौलिक अधिकार है। इसी वजह से किसी व्यक्ति द्वारा किसी राजनेता या पार्टी को दिए जाने वाले डोनेशन पर कानूनी सीमाएं लगाई जा सकती हैं, लेकिन लोग अपने पसंदीदा नेता या पार्टी से जुड़े मुद्दों के प्रचार अभियान पर खुलकर खर्च कर सकते हैं। मौलिक अधिकारों का हनन किए बिना आप राजनीति से पैसों को अलग नहीं कर सकते। यह लोकतंत्र को दोषपूर्ण बनाता है, फिर भी दूसरे सिस्टम से बेहतर है। इसी वजह से राजनीतिक फंडिंग को पारदर्शी बनाने के लिए सुझाए गए सुधार ब्लैक मनी के आगे फेल हो जाएंगे। यह दुख की बात है, लेकिन सच है।

किस बात का डर । पैसों से चुनाव नहीं जीता जाता। रूलिंग पार्टी विपक्षी दलों की तुलना में कॉरपोरेशन और धनपतियों से ज्यादा पैसा निकाल सकती है। बावजूद इसके, भारी खर्च करने के बाद भी सत्ताधारी दल अक्सर चुनाव हार जाते हैं। फिर भी पार्टियां लाखों रुपये खर्च करती हैं, क्योंकि कई चुनाव एक फीसदी या उससे भी कम वोट से जीते जाते हैं। कुल मिलाकर, खर्च किए गए धन और हासिल की गई सीटों के बीच कोई संबंध नहीं है। आलोचकों का यह डर आधारहीन है कि उद्योगपति अपने धन के दम पर राजनेताओं को खरीद सकते हैं। नवीन जिंदल की टिप्पणी से यह बात जाहिर हो जाती है।

जॉर्ज ने क्या कहा था

साल 1977 में इंदिरा गांधी को पीएम पद से हटना पड़ा था, क्योंकि वोटर्स नफरत करते थे इमरजेंसी से। इसके बाद जनता पार्टी की सरकार बनी, जिसमें तेजतर्रार समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस उद्योग मंत्री बने। फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री में दिए एक यादगार भाषण में उन्होंने कांग्रेस के आगे झुकने और फंडिंग करने के लिए व्यापारियों की निंदा की थी।

कारोबारी का खत

इसके तुरंत बाद एक बिजनेसमैन ने जॉर्ज फर्नांडिस को एक गुमनाम और खुला खत लिखा। उसमें फर्नांडिस से पूछा गया कि आप इतने गुस्से में क्यों हैं? आपको ऐसा क्यों लगता है कि हमें उस कांग्रेस से प्यार है, जिसने हमारे बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और इनकम टैक्स 97.7 फीसदी तक बढ़ा दिया? बेशक हमने शब्दों और नकदी के रूप में उपहार अर्पित किए, लेकिन हम प्रधानमंत्री और उद्योग मंत्री के पद को सम्मान दे रहे थे, उन पदों पर बैठे व्यक्तियों को नहीं। यह बात आज भी सच है।

Exit mobile version