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न्यायपालिका की स्वतंत्रता में सरकार का खुल्लम-खुल्ला हस्तक्षेप

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मुनेश त्यागी 

       पिछले काफी समय से सरकार न्यायपालिका की स्वतंत्र कार्य प्रणाली में जान पूछकर, मानवाने तरीके से और एक साजिश के तहत हस्तक्षेप कर रही है। पिछले काफी समय से जारी सरकार की लगातार हस्तक्षेपकारी हरकतों से यह पूर्ण रूप से स्पष्ट हो गया है कि सरकार एक स्वतंत्र न्यायपालिका की पक्षधर नहीं है। वह जानबूझकर सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता कार्यपाली में प्रणाली में हस्तक्षेप कर रही है। वह सरकार की एक पिछलग्गू न्यायपालिका कायम करने की नीतियों पर चल रही है।

       पहले यह काम सरकार के कानून मंत्री खुलकर कर रहे थे और अब स्वयं सरकार ही इस काम को जारी रखे हुए हैं। काफी समय पहले सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने सरकार को लगभग 90 जजों की नियुक्ति, ट्रांसफर और प्रोन्नति के मामले सरकार को भेजे थे, मगर सरकार छः महीने से ज्यादा समय से सर्वोच्च न्यायालय के कोलिजियम की उन सिफारिशों पर आंखें मूंदकर बैठी रही, उसने कोई एक्शन नहीं लिया, उन सिफारिशों को आगे नहीं बढ़ाया।

       हालात यहां तक खराब हो गए हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को मजबूर होकर सरकार को प्रताड़ित करना पड़ा और चेतावनी देनी पड़ी कि अगर उसने समय सीमा के तहत कॉलेजियम द्वारा सुझाए गए नामों को आगे नहीं बढ़ाया तो वह सरकार के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने को मजबूर हो जाएगी। इससे ज्यादा कोई न्यायालय केंद्र सरकार के प्रति क्या कर सकता है? यह तो मामले की हद है। 

     यह विडंबना ही है कि मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम की सिफारिशों को भी नहीं मान रही है। वह सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सिफारिशों को भी धता बता रही है। इसके आगे हाईकोर्ट या जिला जज या दूसरे निचले स्तर के अदालती अमले की क्या औकात है? जब यह सरकार सर्वोच्च न्यायालय की सिफारिशों को ही नहीं सुन रही है तो फिर वह न्यायपालिका के दूसरे अंगों की बात सुनने को तो कतई भी तैयार नहीं होगी। यह तो कुछ ही नियुक्तियों का मामला है।

      भारत की न्याय व्यवस्था की हालत यह है कि भारत के उच्च न्यायालयों में 40% से ज्यादा हाई कोर्ट के जजों के पद पिछले कई कई सालों से खाली पड़े हुए हैं, निचली अदालत में 25 से 30% जजों के पद बरसों बरस से खाली पड़े हुए हैं। 90% से ज्यादा बाबुओं के पद खाली पड़े हुए हैं। पिछले कई कई सालों से स्टेनों और पेशकारों के पद खाली पड़े हुए हैं, मगर राज्य सरकार या केंद्र सरकार इस मामले में कोई ध्यान नहीं दे रही है। वह सब कुछ अनदेखा और अनसुना कर रही है। इस प्रकार वह संविधान में सस्ते और सुलभ न्याय देने के प्रावधानों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन कर रही है और जनता को धता बता रही है और जनता के साथ सबसे ज्यादा अन्याय कर रही है।

       सर्वोच्च न्यायालय को तो यहां तक कहना पड़ा है कि सरकार की “पिक एंड चूज” की नीति बहुत ही परेशान करने वाली है। इस वजह से जजों की वरिष्ठता कायम करने में परेशानी आ रही है। सरकार की इन मनमानी देरी से वरिष्ठतम जजों की अनदेखी हो रही है और न्यायपालिका की कार्य प्रणाली पूरी तरह से बाधित और प्रभावित हो रही है।

      हालात यहां तक खराब है कि लाखों लाख  मुकदमें पिछले सात दशकों से लंबित हैं। अनेकों अनेक मुकदमें तो 50 साल से भी ज्यादा समय से लंबित हैं। उनमें वाजिब सुनवाई नहीं हो रही है और एक के बाद एक, कोई ना कोई बहाना बनाकर मुकदमा को लंबा खींचा जा रहा है, उनमें सुनवाई नहीं हो रही है, जिस वजह से पीड़ित, शोषित, दलित और अत्याचारों की शिकार जनता को सस्ता और सुलभ न्याय नहीं मिल रहा है और करोड़ों करोड़ अन्याय के मारे लोगों का न्यायालयों से विश्वास उठता जा रहा है और अब समय से सस्ता और सुलभ न्याय पाने से उनका विश्वास ही डगमगा गया है।

       भारत के संविधान में सुयोग्य न्यायपालिका का सबसे सर्वश्रेष्ठ आधार रखा गया था जिसमें कहा गया था कि जनता की आजादी के अधिकारों की रक्षा की जाएगी, पीड़ित और अत्याचारों की शिकार जनता की समय पर आवाज सुनी जाएगी, हासिये पर पड़े लोगों को न्याय दिया जाएगा। संविधान बनाते वक्त यह भी प्रतिपादित किया गया था कि अगर जनता को समय से सस्ता और सुलभ न्याय नहीं दिया गया तो इससे संविधान की आत्मा और चेतना ही मर जाएगी और विलंब से दिया गया न्याय न्याय नहीं रह जाएगा। मगर सरकार ने जल्दी से न्याय दिए जाने की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया और अब वह सारी सिफारिशों को ही अनदेखा, अनजाना और अनसुना करती जा रही है।

       अब तो जैसे सरकार मनुवादी मानसिकता का शिकार हो गई है। वह समय से न्यायाधीशों की, बाबुओं की, पेशकारों की, स्टेनों की, नियुक्तियां ही नहीं कर रही है। जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने का उसका कोई सपना या नीति ही नहीं है। अब तो वह सिर्फ जनता को “न्याय देने का नाटक” कर रही है, वह जनता को न्याय नहीं दे रही है और इस प्रकार सरकार की इन मनमानी और अन्यायपूर्ण हरकतों से पीड़ित, दलित और शोषित जनता का न्यायपालिका से विश्वास ही उठता जा रहा है। न्यायपालिका की आजादी पर सरकार का मनमाना हस्तक्षेप और हमला, भारत के संविधान पर ही हमला है।

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