दक्षिण भारतीय फिल्में मनोरंजन करती हैं। साथ ही, वे स्थानीय और सामाजिक मुद्दों को भी उठाती हैं। लेकिन बॉलीवुड फिल्में एक निश्चित फार्मूले पर आधारित पुराने ढर्रे पर ही चल रही हैं। पा रंजीत / मारी सेल्वराज की ‘पारिएरूम पेरूमाल’ और करण जौहर / पुनीत मल्होत्रा की ‘स्टूडेंट ऑफ़ द इयर’ इस अंतर को रेखांकित करती हैं, बता रहे हैं नीरज बुनकर
पिछले कुछ समय से बॉलीवुड फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कोई ख़ास कमाल नहीं दिखा पा रहीं हैं। यह इन दिनों बुद्धिजीवियों और फिल्म समीक्षकों में चर्चा का विषय है। सामान्य लोग, जो फिल्मों के बारे में बहुत नहीं जानते, भी सोशल मीडिया पर इस विषय पर टिप्पणियां कर रहे हैं। मसलन, क्या बॉलीवुड फिल्में इतिहास के अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रहीं हैं? आखिर उनका कोई भी फार्मूला दर्शकों को आकर्षित करने में सफल क्यों नहीं हो पा रहा है?
बॉलीवुड फिल्मों के पिटने के कई कारण हैं। सिर्फ यह कहने से काम चलने वाला नहीं है कि फिल्में बॉक्स ऑफिस पर इसलिए सफल नहीं हो रहीं हैं क्योंकि वे कला फिल्में हैं, जो एक विशिष्ट दर्शक वर्ग के लिए हैं, सबके लिए नहीं। और यही कारण है कि उनकी केवल बुराई ही नहीं हो रही है, बल्कि कई लोग उनकी तारीफ भी कर रहे हैं। गत 22 जुलाई 2022 को रिलीज़ हुई बॉलीवुड फिल्म ‘शमशेरा’ की बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर जाने को लेकर जानमाने फिल्म अभिनेता संजय दत्त ने सोशल मीडिया पर लिखा, “फिल्में इसलिए बनाई जातीं हैं ताकि दर्शक उनका आनंद ले सकें। और हर फिल्म, आज नहीं तो कल, अपना दर्शक वर्ग पा ही लेती है। ‘शमशेरा’ को भी किसी न किसी दिन उसके दर्शक मिल ही जाएंगे। मैं इस फिल्म के साथ मजबूती से खड़ा हूं… कला और उसके प्रति हमारी प्रतिबद्धता उस नफरत से कहीं बड़ी है, जिसका सामना हम कर रहे हैं।”
सवाल है कि उन्हें अपना बचाव करने की ज़रुरत क्यों पड़ी? क्यों उन्हें ‘शमशेरा इज अवर्स’ हैशटैग का प्रयोग करना पड़ा? इससे पहले तो ऐसा नहीं होता था।
फिल्में दर्शकों के लिए बनाई जातीं हैं, निर्माताओं और कलाकारों के लिए नहीं। फिल्म निर्माताओं और कलाकारों का अपनी फिल्मों का इस तरह बचाव करना और परोक्ष रूप से दर्शकों को कला का सम्मान नहीं करने के लिए दोषी ठहराना, क्या आमजनों को नीचा दिखाना नहीं है? वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल का इस फिल्म के बारे में यह कहना है: “आदिवासी और अछूतों पर फिल्म बनाई। कहानी नीलेश मिश्रा से लिखवाई। डायलॉग पीयूष मिश्रा से लिखवाए। रोल कपूर से करवाया। फ़ीमेल रोल भी कपूर को दिया। डायरेक्टर मल्होत्रा को बनाया। संगीत शर्मा से बनवाया। सिनेमेटोग्राफी गोस्वामी से करवाई। जिसे देखिए, वही वॉयस ऑफ वॉयसलेस बनने पर तुला हुआ है। थोड़ी तो मर्यादा रखिए। ये भी तो सोचिए कि सिनेमाघर कौन लोग भरते हैं।”
मंडल बॉलीवुड फिल्म उद्योग में प्रतिनिधित्व और समावेशिता से जुड़े महत्वपूर्ण सरोकारों की बात रहे हैं। हो सकता है कि आपको अछूत प्रथा और जातिगत अत्याचारों के बारे में बहुत कुछ पता हो, लेकिन जिन लोगों ने यह सब भोगा है, उन्हें साथ लिए बगैर आप यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि जाति से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित फिल्म राह से भटकेगी नहीं? ऐसी फिल्म को बनाने में ‘निम्न जातियों’ के लोगों की भागीदारी ज़रूरी है – ऐसे लोगों की, जिन्होंने जातिगत वंचना और भेदभाव झेला हो। आपके पास कितने ही संसाधन हों, लेकिन ऐसे लोगों की मदद के बिना आप जाति में जकड़े समाज का सटीक चित्रण नहीं कर सकते। इसलिए यह ज़रूरी है कि आप अपने दरवाज़े विविध पृष्ठभूमियों के लोगों के लिए खोलें।
जब फिल्म निर्माता अनुराग कश्यप से पूछा गया कि बॉलीवुड फिल्में उतना अच्छा क्यों नहीं कर रही हैं जितनी कि दक्षिण भारतीय फिल्में, तो उनका जवाब था, “इस प्रश्न का बहुत सीधा सा उत्तर है। वजह यह है कि हिंदी फिल्मों की जड़ें नहीं हैं। आप तमिल, तेलुगू या मलयालम फिल्में देखिए। उनकी जड़ें उनकी संस्कृति में हैं – फिर चाहे वह मुख्यधारा की संस्कृति हो या किसी विशिष्ट क्षेत्र या समुदाय की। लेकिन हमारी फिल्मों की जड़ें नहीं हैं। ऐसे लोग, जो हिंदी नहीं बोल सकते, जो अंग्रेजी बोलते हैं, वे हिंदी फिल्में बना रहे हैं।”
मुझे नहीं लगता कि कोई भाषा बोल सकने या न बोल सकने का इससे कोई संबंध है। मुझे लगता है कि इसका संबंध संस्कृति से है। दक्षिण भारतीय फिल्में मनोरंजन करतीं हैं।साथ ही, वे स्थानीय और सामाजिक मुद्दों को भी उठाती हैं। लेकिन बॉलीवुड फिल्में एक निश्चित फार्मूले पर आधारित पुराने ढर्रे पर ही चल रहीं हैं। पा रंजीत / मारी सेल्वराज की ‘पारिएरूम पेरूमाल’ और करण जौहर / पुनीत मल्होत्रा की ‘स्टूडेंट ऑफ़ द इयर’ इस अंतर को रेखांकित करती हैं। जौहर का कॉलेज आमजनों को कॉलेज जैसा नहीं लगता। जबकि सेल्वराज की फिल्म का कॉलेज, तमिल समाज और वहां के लोगों से जुड़ा हुआ है।
(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, )