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पुस्तक समीक्षा: ‘अधूरे’: इंसानी ज़िंदगी के अधूरेपन का एक रूपक

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ज़ाहिद ख़ान

‘अधूरे’ तेलुगु कहानी संग्रह है, जिसका हिंदी अनुवाद डॉ. एस.के. साबिरा ने किया है। संग्रह की सारी कहानियां मुस्लिम विमर्श पर केन्द्रित हैं। इन कहानियों को अगर देखें, तो यह दो तरह की हैं। पहले हिस्से में तेलुगु मुस्लिम समाज के अंदर की कहानियां हैं। जिसमें निम्न मध्यम वर्ग मुस्लिम परिवारों की ग़रीबी, बदहाली, बेरोज़गारी, वंचना, अशिक्षा, धार्मिक रूढ़ियां, पर्दा प्रथा, दहेज़ प्रथा, जहालत को निशाने पर लिया गया है। ख़ास तौर से मुस्लिम समाज में औरतों के जो हालात हैं, उन पर तफ़्सीली नज़र है।

‘छोटी बहन’, ‘मुहब्बत 1424 हिजरी’, ‘मजबूर’, ‘भड़कता चिराग़’, ‘कबूतर’, ‘उर्स’, ‘क़िबला’ और ‘जीव’ इसी क़िस्म की कहानियां हैं। किताब का दूसरा हिस्सा ‘हिंदू-मुस्लिम’ समुदायों के आपसी संबंधों, अलगाव, तनाव और अविश्वास की कहानियां हैं। जिसमें ‘वेजिटेरियन्स ओनली’, ‘दस्तर’, ‘दावा’ और ‘वतन’ को रखा जा सकता है।

किताब की भूमिका ‘अधूरे जीवन की दास्ताँ’ में अनुवादक एस.के. साबिरा लिखती हैं, ‘‘विश्व स्तर पर हाशिए पर केन्द्रित मुस्लिम जीवन साहित्य के विभिन्न विधाओं के केन्द्र में रहा है।’’ लेखिका का यह तथ्य सिरे से ग़लत है। इस बात में कतई सच्चाई नहीं। जहां तक हिंदी साहित्य की बात है, साहित्य की तमाम विधाओं में मुस्लिम जीवन कहीं दिखाई नहीं देता। एस.के. साबिरा हिंदी के मुस्लिम रचनाकारों की बात करती हैं, लेकिन डॉ. राही मासूम रज़ा, शानी, इसराइल, इब्राहीम शरीफ़ और बदीउज़्ज़माँ आदि को भूल जाती हैं। जबकि हिंदी साहित्य में जब भी मुस्लिम विमर्श की बात होती है, इन पर ज़रूर बात होती है।

संग्रह की ‘छोटी बहन’, ‘मुहब्बत 1424 हिजरी’, ‘मजबूर’, ‘कबूतर’, ‘उर्स’ और ‘क़िबला’ आदि कहानियों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर दहेज़ समस्या केन्द्र में है। मुस्लिम समाज में लड़कियां पढ़ना और अपनी ज़िंदगी में कुछ आगे बढ़ना चाहती हैं। लेकिन घरवालों की चिंता, सिर्फ़ उनकी अच्छे घरानों में शादी तक महदूद है। उनकी चाहत है बेटियों की शादी नौकरी-पेशा लड़कों से हो, ताकि वे अपनी ज़िंदगी अच्छी तरह से गुज़ार सकें। अक्सर ग़रीबी इनमें आड़े आती है। नौकरी-पेशा लड़के बिना पैसे या दहेज़ के शादी नहीं करते।

दीगर समाजों की तरह मुस्लिम समाज में भी आज दहेज़ एक विकराल समस्या बन गया है। निम्न मध्यम वर्ग एक तरफ़ बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहा है, तो दूसरी ओर जैसे ही लड़कियां जवान होती हैं, शादी की समस्या उनके सामने आ जाती हैं। नतीजा ज़्यादातर लड़कियां अपनी ज़िंदगी से समझौता कर लेती हैं। अच्छे जीवन और मनपसंद साथी के साथ शादी, उनकी तमाम हसरतें दिल में ही टूट जाती हैं। ‘छोटी बहन’ की नायिका जानी बेगम, ‘मुहब्बत 1424 हिजरी’-सुल्ताना, ‘मजबूर’ की नायिका सलमा हालात से मजबूर होकर, आख़िरकार परिवार के मुताबिक़ शादी कर लेती हैं। कोई इंक़लाबी पहलू इन कहानियों में नज़र नहीं आता। नायक और नायिका दोनों के किरदार, पाठकों पर अपना कोई असर नहीं छोड़ते।

आज समाज में जिस तरह का साम्प्रदायिक माहौल बना दिया गया है, उससे महानगर से लेकर छोटे-छोटे कस्बों-शहरों में भी मुस्लिमों को किराये का मकान मिलने में परेशानी आने लगी है। कहानी ‘वेजिटेरियन्स ओनली’ इस समस्या को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से उठाती है। जहां कभी खान-पान को लेकर तो कभी किसी ओर वजह से मुस्लिम को मकान देने से इंकार कर दिया जाता है। मुस्लिम पति-पत्नी को आख़िर में एक मकान मिलता है, लेकिन बाद में मालूम चलता है कि मकान मालिक ख़ुद अछूत है। दलित है। कहानी का अंत इस अर्थपूर्ण संवाद के साथ होता है, ‘‘दलितों के लिए कोई अछूत नहीं है। इसका मतलब दलित ही असल में मनुष्य हैं। बाक़ी के लोग ही अछूत हें न !’’

एक समय था, जब भारतीय समाज में दो बड़े समुदायों के बीच गहरा साम्प्रदायिक सौहार्द्र था। धार्मिक सहिष्णुता थी। लोग एक-दूसरे से मिल-जुलकर रहते थे। एक-दूसरे के दुःख, परेशानियों में काम आते थे। लेकिन साम्प्रदायिक राजनीति ने दो समुदायों के बीच एक बड़ी खाई बना दी है। कहानी ‘दस्तर’ मुस्लिमों के साथ साम्प्रदायिक भेदभाव और उनके साथ अछूतों जैसे बर्ताव को सामने लाती है। कहानी तीन दोस्तों की है, जो मिल-जुलकर रहते हैं। उनकी दोस्ती में धर्म कभी आड़े नहीं आता। लेकिन मुस्लिम किरदार उस वक़्त हैरान रह जाता है, जब धर्म के नाम पर उसका अपमान किया जाता है। उसके साथ अस्पृश्यों जैसा व्यवहार किया जाता है।

‘वतन’ उन मुस्लिम नौजवानों की कहानी है, जो बेरोज़गारी से तंग आकर खाड़ी के मुल्कों में काम के लिए जाते हैं। ताकि उनके परिवार ग़रीबी से बाहर निकल सकें। वह अपनी बाक़ी ज़िंदगी अच्छी तरह से गुज़ार सकें। कुछ साल काम कर यह नौजवान अपने घर वापस आ जाते हैं। और अपने कमाये हुए पैसे से नया बिजनेस खोल लेते हैं। इस समस्या का एक और पहलू, जिस पर कि कभी बात नहीं होती। इन नौजवानों के मार्फ़त एक बड़ी विदेशी मुद्रा देश में आती है, जो हमारी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करती है। बावजूद इसके मुसलमानों को इसके लिए सबसे ज़्यादा तोहमतें झेलना पड़ती हैं कि उन्हें अपने मुल्क से मुहब्बत नहीं। इसलिए वे दूसरे देश चले जाते हैं।

सुरेश, यादय्या और सुल्तान जिगरी दोस्त हैं। अपने परिवार को ग़रीबी और क़र्ज़ से उबारने के लिए सुल्तान जब दुबई जाने का फ़ैसला करता है, तो उसके दोस्त उस पर कई तरह की तोहमतें और इल्ज़ाम लगाते हैं। लेकिन जब सुरेश एक बेहतर ज़िंदगी की आस में हमेशा-हमेशा के लिए अमेरिका बसने का फ़ैसला करता है, तो सुल्तान अपने अवचेतन में उसके दोगले बर्ताव पर तीख़ा कमेंट करता है। उसे आईना दिखलाता है। और कहानी का अंत हो जाता है।

‘क़िबला’ उन सपनों के टूटने की कहानी है, जो परदेस जाने से लगाए जाते हैं। कहानी का अहम किरदार उस्मान दुबई जाने के लिए अपना सब कुछ बेच देता है, लेकिन घर से निकलने के बाद उसकी कोई खै़र-ख़बर नहीं आती। ख़ुशी की तलाश में उसका परिवार और भी ग़ुर्बत मे चला जाता है। देश में ना जाने कितने उस्मान हैं, जो बेहतर भविष्य के लिए अपनी ज़िंदगी दांव पर लगा रहे हैं। जिन पर किसी की निगाह नहीं जाती।

कहानीकार स्कैबाबा ने इस समस्या की गहराई में जाकर, इन कहानियों को बुना है, जो आए दिन अख़बार की सुर्ख़ियां बनती रहती हैं। लेकिन तमाम सरकारें जिससे बेपरवाह है। एक लिहाज़ से कहें, तो कहानी का शीर्षक ‘अधूरे’ एक रूपक है, इंसानी ज़िंदगी के अधूरेपन का। तमाम कोशिशों के बाद भी उसे मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता। कहीं ज़मीं, तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता।

किताब में प्रूफ़ की कमी साफ़ दिखाई देती है। यहां तक कि अंग्रेज़ी शब्दों की वर्तनी भी ठीक नहीं। संग्रह की सारी कहानियां मुस्लिम बैकग्राउंड पर हैं। अनुवादक को कहानियों का अनुवाद करते वक़्त यह ख़याल करना चाहिए था कि भाषा की तारतम्यता बनी रहे। हिंदी समाज आम हिंदुस्तानी लफ़्ज़ों से अच्छी तरह वाक़िफ़ है। बावजूद इसके अनुवादक ने ‘ख़ैरियत’ की जगह कुशल मंगल, बीवी-पत्नी, गुस्ल-स्नान, फूफी-बुआ हिंदी शब्दों का इस्तेमाल किया है। किताब की ख़ासियत की यदि बात करें, तो किताब के संवादों में हैदराबादी ज़ुबान की टोन का इस्तेमाल है।

‘अधूरे’ (तेलुगु कहानी संग्रह), लेखक : स्कैबाबा, अनुवाद : एस.के. साबिरा, मूल्य : 220, पेज : 113, प्रकाशन : प्रलेक प्रकाशन, मुम्बई-401303 (महाराष्ट्र)

अनुवादक ने न सिर्फ़ संवादों में हैदराबादी ज़ुबान का लहजा रखा है, बल्कि तेलुगु मुस्लिम समाज में रोज़मर्रा में बोले जाने बाले लफ़्ज़ों ‘ख़वाली’, ‘खर्ज़’, ‘मक़मली’, ‘कंजीरे’, ‘क़र्ज़ उसूल’, ‘तक़बा’, ‘मित्ती’, ‘पाव बंटे’, ‘पाड़ दुनिया’, ‘चलेंगी’, ‘आरींव’, ‘अब्बीच’ को ज्यों का त्यों रखा है। हैदराबादी ज़ुबान का लहजा और जगह-जगह इन लफ़्ज़ों के प्रयोग से पूरा परिवेश हमारी आंखों के सामने आ जाता है। इसके साथ ही इन कहानियों में तेलुगु मुस्लिम समाज के रीति-रिवाज, शादी-ब्याह, तमाम धार्मिक परंपराओं की जानकारियां भी हिंदी पाठकों को मिलती हैं, जिनसे कि वह अभी तक अंजान था।

किताब की भूमिका में भले ही यह दावा किया गया हो कि प्रस्तुत संग्रह में ‘मुस्लिम विमर्श’ की कहानियां हैं, लेकिन यह अधूरा विमर्श है। किताब की ज़्यादातर कहानियां दहेज़ समस्या को ही रेखांकित करती है। कहानियों को पढ़कर, ऐसा लगता है कि मुस्लिम समाज में सबसे बड़ी समस्या लड़कियों की शादी है। बाक़ी समस्याएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं। जबकि दीगर समाजों की तरह मुस्लिम समाज भी रोज़-ब-रोज़ अनेकानेक समस्याओं से जूझ रहा है।

कथाकार स्कैबाबा इन समस्याओं को रेखांकित तो करते हैं, लेकिन इन कहानियों में कहीं कोई समाधान नहीं है। समाज को बेहतर बनाने के लिए उनके पास कोई आइडिया, कोई सोच नहीं है। जिन परिवारों की कहानियां कही गई हैं, वे अपनी बदहाली के लिए ख़ुद ही ज़िम्मेदार हैं। आर्थिक परेशानियों के बावजूद बड़े परिवार का होना, शिक्षा का अभाव, धार्मिक रुढ़ियों की जकड़न और कोई सामाजिक सुधार इस समाज में कहीं दिखाई नहीं देता। फिर शिकायत किससे ?

कहानियों में मुस्लिम समाज का यथार्थ भर है, हालात से लड़ने की कहीं कोई जद्दोजहद नहीं दिखाई देती। यही वजह है कि अधिकतर कहानियों का अंत अधूरा दिखाई देता है। कहानियां पाठकों के दिल पर एक गहरी उदासी छोड़ जाती हैं। जबकि कहानी का मक़सद पाठकों को एक सशक्त संदेश तो देना होता ही है, वह उन्हें सोचने पर भी मजबूर करे। वरना यह कहानी नहीं, एक रिपोर्ताज भर रह जाती है। 

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