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मस्तिष्क, यौनऊर्जा और मौन 

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       डॉ. विकास मानव 

हमारा मष्तिष्क एक रेडियो की तरह कार्य करता है. रेडियो का अविष्कार मस्तिष्क और ब्रह्मांड को देख कर ही किया गया होगा. मष्तिष्क सिर्फ कुछ सूचना को संगृहीत कर सकता है जब कि ब्रह्मांड मे अनंत सूचना व्याप्त है. इसे उस तरह की तरंग पर स्पंदित हो कर एक्सेस किया जा सकता है।

        जैसे ही हम किसी एक विषय की सूचना या सवाल ब्रह्मांड मे प्रक्षेपित करते है उस से संबंधित सूचना हमने मिलने लगती है इसी सिधांत पर LOA (Law of attraction) यानी आकर्षण जा नियम भी कार्य करता है.

      यानी जो सवाल पूछा जाएगा वैसा जवाब मिल जाएगा, हर चीज का हल मौजूद है ब्रह्मांड मे बस उस स्तर की फ्रेक्वेंसी सेट करनी होती है।

अगर हम मष्तिष्क को शून्य आस्था मे स्पंदित करते हैं तो जो चाहे एक्सेस कर सकते है चाहे वह कितनी भी दूर क्यों न उपस्थित हो. मष्तिष्क सब कुछ एक्सेस कर सकता है बशर्ते वह बिल्कुल शांत और शून्यता के करीब हो.

     शून्य होते ही सारी सूचना हम से गुजरने लगती है. इस सभी संभावना का इस्तेमाल करके मनुष्य बड़े से बड़े उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है. जितने भी उच्च चेतना वान लोग पृथ्वी पर उपस्थित है वह सभी इसी पद्धति का उपयोग करते है. कुछ बहुत बड़े उद्योगपति बन जाते है और कुछ आविष्कारक, स्वयम को जो चाहिए उस तरंग पर स्पंदित करें।

*यौन-ऊर्जा :  बूंद जिंदगी की*

       जब तक शरीर मे एक भी वीर्य की बूंद है तब तक हम जिंदगी है. वीर्य ऊर्जा नहीं बल्कि जीवन-ऊर्जा का अमृत मे रुपांतरण है.

      कुछ लोग इसे ही ऊर्जा कहते है. इसी ऊर्जा के कारण आम लोग ज्यादातर समय बेहोशी मे रहते है. होश तब आता है जब यह स्खलित हो जाती है. 

     हम पूरा जीवन लगभग बेहोशी मे ही जी रहे है. इसी वीर्य की वज़ह से पुरुष एक स्त्री के साथ वह कर गुज़रता है जो वीर्य स्खलन के बाद सोच भी नहीं सकता. क्या यह बेहोशी नही ? 

     कोई ऊर्जा सही गलत नहीं होती बस उसकी दिशा ही उसे सही गलत का दर्जा दे देती है.  परमाणु बम का उपयोग विनाश और विकास दोनों के लिए किया जा सकता.  यह हम पर निर्भर करता है कि हम इस ऊर्जा का किसी दिशा मे उपयोग करें.

     इसीलिए जीवन को माया भी कहा गया है. स्खलन के एक मिनट पहले तुम ‘तुम’ नहीं थे और स्खलन के बाद तुम होश मे आते हो. यही तो माया है।

      वीर्य की उत्पत्ति परम उद्देश्य के लिए होती है. बिना उद्देश्य जीवन अनियंत्रित हो जाता है. दिशा देना बहुत महत्वपूर्ण है. अगर तुम्हारे जीवन का कोई उद्देश्य नही तो आप देखे तुम कुछ दिनों मे अनियंत्रित हो जाओगे.

   इसीलिए उद्देश्यपूर्ण जीवन ही सार्थक जीवन है. अगर अब तक जीवन का कोई उद्देश्य नहीं बनाया तो आज ही इस पर कार्य करें. 

    एक विशेष बात यह है कि बिना उद्देश्य के एक उच्च कोटि का साधक ही जी सकता है.  उसका उद्देश्य परम सत्य कि अनुभूति करना है।

वीर्य को बर्बाद नहीं करो. मात्र एक योनि तक उसको केंद्रित रखो. वर्ना तुम जड़ ही रह जाओगे. महज़ जड़ की नियति सड़ जाना है.

     तुम कभी पत्थर थे, कभी तुम पौधे थे, कभी तुम पक्षी थे, कभी तुम पशु थे, कभी तुम स्त्री थे, कभी तुम पुरुष थे, कभी तुम साधु थे और कभी तुम चोर थे। ऐसा कोई भी अनुभव नहीं है, जो तुम्हें नहीं हो चुका है। 

      ऐसी कोई अवस्था नहीं है, जिससे तुम पार नहीं हुए हो। तुमने नर्क भी जाने हैं, तुमने स्वर्ग भी। तुमने दुख भी, तुमने सुख भी। तुमने पीड़ाओं का संताप झेला है और आत्महत्याएं की हैं। 

      तुमने विनाश भी किया है, हिंसाएं की हैं। तुमने सृजन का सुख भी जाना है। तुमने जन्म भी दिया है, तुमने निर्माण भी किया है, तुमने बनाया भी है। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तुमसे न गुजर गया हो, जिससे तुम न गुजर गए हो।

      तुम्हारे अंतरतम में वह धरोहर सुरक्षित है। तुमने जो भी जीया है, और जो भी जाना है, और जो भी किया है, उस सबका सार संचित है। उस सारे अनुभव का निचोड़ तुम्हारे गहन में छिपा है। इससे भी तुम पूछो, इसको भी तुम खोलो। इसके खुलते ही तुम्हें जीवन का सारा रहस्य खुल जाएगा। क्योंकि तुम जीवन को जीए हो, तुम स्वयं जीवन हो।

ऐसा कुछ भी नहीं है इस जगत में जो अपरिचित हो तुम्हें। लेकिन तुम भूल-भूल गए हो। और हर नए शरीर के साथ तुमने नया अहंकार निर्मित कर लिया है। और हर नए अहंकार के साथ तुम्हें विस्मृति हो गई है अतीत की। तुम्‍हें ख्‍याल नहीं रहा है कि पीछे क्‍या हुआ।

      इसलिए तुम अपनी ही धरोहर को भूलते चले गए हो। तुमने ही जो संचित किया है, उसका भी तुम उपयोग नहीं कर पाते हो। और इसलिए तुम बार-बार वही भूलें दोहराते हो, जिनको तुम बहुत बार कर चुके हो।

*मौन की बात :*

      मौन साधना की अध्यात्म-दर्शन में बड़ी महत्ता बतायी गयी है। कहा गया है “मौनं सर्वार्थ साधनम्।” मौन रहने से सभी कार्य पूर्ण होते हैं। महात्मा गाँधी कहते थे- मौन में अन्तर्शक्ति को जगाने की प्रभावशाली सामर्थ्य होती है। 

     उनके अनुसार वह व्यक्ति, जो अपने जीवन में निरन्तर अनवरत सत्य की शोध कर रहा हो, मौन साधना का ही पथ पकड़ता है।

      लांगफेलो के अनुसार मौन और एकान्त, आत्मा के सर्वोत्तम मित्र हैं। दार्शनिक बेकन का मत है कि मौन निद्रा के समान है, जो विवेक को ताजगी प्रदान करती है। वस्तुतः मौन एक तितीक्षा है, तप साधना है, जो समय-समय पर महामानवों द्वारा अपने साधना पुरुषार्थ के क्रम में अपनायी जाती है।

       मौनावस्था एक योगी के लिये सर्वाधिक मूल्यवान निधि एवं धरोहर है। इस अवस्था में प्रवेश कर वह परमसत्ता के और समीप जा पहुँचता है। बहिरंग से नाता तोड़ कर अन्तःक्षेत्र की गुफा प्रवेश साधना उसके लिये फलदायी सिद्ध होती है। मौनावस्था में की गयी प्रार्थना-तप साधना कभी निष्फल नहीं होती ऐसा विद्वत्जनों का मत है।

      किसी विद्वान ने कहा है- भय से उत्पन्न मौन जड़ता का प्रतीक है, किन्तु संयमजन्य मौन साधुता है, तपस्वी का भूषण है। इन्द्रिय संयम हेतु सबसे अच्छा प्रतीक मौन को माना गया है। जो मौन साध लेता है, वह सारी इन्द्रियों को वश में कर जितेन्द्रिय कहलाता है।

       महर्षि व्यास के मुख से निकले वचनों को लिपिबद्ध कर पुराण रचने का पुरुषार्थ गणेश जी द्वारा मौन साधना के बलबूते ही सम्भव हो पाया। यदि इतनी लम्बी अवधि तक यह साधना पुरुषार्थ न निभाया गया होता तो साहित्य सृजन भी सम्भव न हो पाता।  चिन्तक-मनीषी फ्रेंकलिन ने कहा है- चींटी से अच्छा कोई उपदेश नहीं देता, क्योंकि वह मौन रहती है।

      मौन का अर्थ है- ऊर्जा के बिखराव को समेटना एवं इसे संग्रहित कर उच्चस्तरीय पुरुषार्थ में नियोजित करना। मौन साधना के साधक अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों के समक्ष संसार के सभी प्रकार के वैभवों को तुच्छ मानते हैं। मौन साधक अतीत के अनुभवों से अर्जित ज्ञान सम्पदा को मौन स्थिति के क्षणों में पुनः नियोजित कर एक नवीन विचारधारा को एक कलाकार की तरह मूर्त रूप देता है, ऐसी विचारधारा जो युगानुकूल होती है, सर्वकल्याण कारी होती है। युग प्रवर्तक दृष्टा ऋषिगण इसी कारण मौन का महात्म्य बताते रहे हैं।

      वाक् शक्ति की ऊर्जा का सर्वाधिक सुनियोजन मौन साधना में होता है। संग्रहित शक्ति द्वारा ऐसे साधक स्वयं को पूर्णता की दिशा में ले जाते हैं, जीवनमुक्त कहलाते हैं एवं अपनी इस शक्ति द्वारा बहिरंग जगत को भी प्रभावित करते हैं। ‘मैं’ कोk मिटाने की सर्वश्रेष्ठ स्थिति मौनावस्था है। जब ‘मैं’ (अहं) का ही लोप हो गया तो कौन सोचेगा व कौन बोलेगा ? इस साधना को समर्पण योग की साधना कहा जा सकता है। 

     जो जितना गहरा होता है, वह उतना ही मौन होता है। स्थिर जल गहरा होता है, यह उक्ति मौन के सम्बन्ध में सही सिद्ध होती है। जो वाचाल होते हैं, वे उतने ही उथले-बहिर्मुखी होते व तिरस्कार के भाजन बनते हैं। मौन बुद्धिमानी का ही दूसरा नाम है जो मनुष्य का सर्वोत्तम आभूषण है।

       घोंसला सोती हुई चिड़िया को आश्रय देता है, गुफा में हिम समाधि प्राणियों में नयी ऊर्जा का संचार करती है, मौन मनुष्य की वाणी को शक्ति से ओत-प्रोत कर देता है।

      मौन अवस्था एक ऐसी स्थिति है जिसमें भगवद् सत्ता व्यष्टि सत्ता के ओर समीप आ जाती है। मनुष्य देव-स्वरूप होता व भगवत् सत्ता से एकाकार होता है। 

     मौन एक विराम की स्थिति है जो मनुष्य को भावी तप पुरुषार्थ हेतु पर्याप्त बल देती, ऊर्जा से ओत-प्रोत कर देती है। हर ऋषि स्तर के साधक को मौन का अवलम्बन लेना चाहिए ताकि समष्टि हित साधन सम्भव हो सके।

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