शशिकांत गुप्ते
सीतारामजी शायराना अंदाज में व्यंग्य लिख रहें हैं।सीतारामजी कहतें हैं।
इनदिनों सियासत में सिर्फ इश्तिहारों पर उपलब्धियां दर्शाई जा रही है। वर्तमान में जो सियासतदान हैं, वे सभी नए अमीर बन रहें हैं। इन लोगों पर तंज कसते हुए शायर मलिक जादा जावेदजी का ये शेर मौजू है।
नए अमीरों के घर भूल कर भी मत जाना
हर एक चीज़ की क़ीमत बताने लगतें हैं
बनावटी बातों का जो हश्र होता है। इस पर जावेदजी फरमातें हैं।
जो दूसरों से ग़ज़ल कहलवाकर लातें हैं
जबाँ खुले तो तलफ़्फ़ुज़ से मात खातें हैं
(तलफ़्फ़ुज़ = उच्चारण)
कोई कितनी भी चतुराई करें। असलियत कभी भी छिपती नहीं है।
इस मुद्दे पर शायर खुशबीर सिंह शाद का यह शेर प्रासंगिक है।
समुंदर ये तेरी खामोशियाँ कुछ और कहती है
मगर साहिल पर टूटी कश्तियाँ कुछ और कहती है
इनदिनों समाचार माध्यमों पर जो सवाल उठ रहे हैं। यह लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं है।
इसपर खुशबीर सिंह शाद
का यह शेर मौजू है।
हमारे शहर की आँखों ने मंजर कुछ ओर देखा है
मगर अख़बार की सुर्खियां कुछ ओर कहतीं हैं
यह लोकतंत्र के लिए गम्भीर सवाल है।
सीतारामजी ने कहा आज का यह मुद्दा भी जेहन में अखबार पढ़ने से ही आया।
इनदिनों अखबारों में खबरें ढूंढना पड़ती है। आम जनता की समस्याएं तो ज्यों की त्यों है। लेकिन समाचार माध्यमों में विज्ञापनों में तो सारी उपलब्धियां दर्शाई जाती है।
देश किसी एक प्रान्त की उपलब्धियां देश के अन्य प्रदेशों के अखबारों में प्रकाशित की जाती है। इन विज्ञापनों का खर्च निश्चित ही प्रादेशिक सरकार ही करती होगी। सरकार का पैसा मतलब जनता का पैसा।
जनता समस्याओं ग्रस्त रहने के लिए मानो अभिषप्त है।
सत्ता के नशे में लोग भूल जातें हैं। जब आमजन की सहनशक्ति की पराकाष्ठा हो जाती है। तब जो क्रांति होती है वह निश्चित ही परिवर्तन लाती ही है।
भारत में जब भी क्रांति होती है वह अहिंसक होती है।
यह अपने की विशेषता है।
अंत में खुशबीर सिंह शादजी यह शेर प्रस्तुत है। इस शेर का मतलब मौजूदा सियासत को समझने वाले समझ जाएंगे।
जो ना समझे वो अनाड़ी है।
शादजी फरमातें हैं।
चंद लम्हों के लिए बिस्मिल तड़पता है
फिर उसके बाद क़ातिल सारी जिंदगी तड़पता है
(बिस्मिल=घायल)
शशिकांत गुप्ते इंदौर