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BRICS : आर्थिक संघर्ष और वैश्विक संतुलन

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मनोज अभिज्ञान

वैश्विक अर्थव्यवस्था में अब तक का सबसे शक्तिशाली प्रतीक अमेरिकी डॉलर रहा है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित ब्रेटन वुड्स प्रणाली ने अमेरिकी डॉलर को वैश्विक वित्तीय लेन-देन और व्यापार की मुख्य मुद्रा बना दिया, जिससे अमेरिका की आर्थिक और राजनीतिक प्रभुता सुदृढ़ हो गई।

लेकिन जैसे-जैसे विश्व की अन्य शक्तियां उभरने लगीं, पूंजीवाद के अंतरविरोध और असमानताएं भी उजागर होने लगीं। वैश्विक स्तर पर अमेरिकी आर्थिक प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए, ब्रिक्स देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) ने अपनी आर्थिक और राजनीतिक ताकत का संयोजन किया, जो अब यूनियन करेंसी-जिसे यूनिट कहा जा सकता है-जैसे क्रांतिकारी विचारों की ओर बढ़ रहा है।

आइए समझने का प्रयास करते हैं कि यह कैसे पूंजीवाद के ढांचे को चुनौती दे सकती है और क्या यह नये विश्व व्यवस्था की नींव रख सकती है।

पूंजीवाद को ऐसी प्रणाली के रूप में देखा जाता है, जो उत्पादन के साधनों पर छोटे से विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग (Privileged Class) के नियंत्रण और बाकी समाज, जिसे उत्पादक वर्ग (Productive Class) कहा जाता है, के श्रम के शोषण पर आधारित होती है।

यह शोषण न केवल राष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी होता है, जहां पश्चिमी पूंजीवादी देश, विशेष रूप से अमेरिका, अपने आर्थिक प्रभुत्व का इस्तेमाल कर वैश्विक दक्षिण के देशों का शोषण करते हैं।

अमेरिकी डॉलर का वैश्विक मुद्रा के रूप में प्रभुत्व इस शोषण का महत्वपूर्ण हिस्सा है। डॉलर में व्यापार करने के लिए विकासशील देशों को अपनी मुद्रा को डॉलर के सापेक्ष स्थिर रखना पड़ता है, जिससे उनके आर्थिक निर्णय अमेरिका की नीतियों और संकटों पर निर्भर हो जाते हैं।

यह असंतुलन उन आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को बढ़ाता है, जो पूंजीवाद की अनिवार्य परिणति हैं। अमेरिकी वित्तीय नीतियां और उसकी ब्याज दरें न केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था को चलाती हैं, बल्कि दुनिया भर की मुद्राओं और अर्थव्यवस्थाओं को भी प्रभावित करती हैं, जिससे आर्थिक असमानताएं और गहरी होती हैं।

ब्रेटन वुड्स प्रणाली की स्थापना 1944 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुई थी, जब दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं ने एक वैश्विक वित्तीय ढांचे पर सहमति बनाई। इस प्रणाली में अमेरिकी डॉलर को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा का दर्जा दिया गया, और डॉलर को सोने के साथ जोड़ दिया गया।

इसका अर्थ यह था कि डॉलर की एक निश्चित मात्रा (35 डॉलर प्रति औंस) को सोने में परिवर्तित किया जा सकता था। बाकी दुनिया की मुद्राएं डॉलर पर आधारित थीं, जिससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था वैश्विक वित्तीय प्रणाली का केंद्र बन गई।

1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया और डॉलर को सोने से अलग कर दिया। इसे “निक्सन शॉक” के नाम से जाना जाता है। यह घटना पूंजीवाद के अंतर्विरोधों और संकटों का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।

ब्रेटन वुड्स व्यवस्था में अमेरिकी डॉलर सोने से जुड़ा हुआ था, जिसका मतलब था कि अमेरिकी सरकार को अपनी मुद्रा के लिए पर्याप्त मात्रा में सोना भंडार में रखना पड़ता था। लेकिन 1960 के दशक तक, अमेरिका का व्यापार घाटा लगातार बढ़ता गया।

अमेरिका ने शीत युद्ध के दौरान अपनी सैन्य गतिविधियों पर भारी खर्च किया। खासकर वियतनाम युद्ध (1955-1975) के कारण अमेरिकी खर्च में भारी वृद्धि हुई। इससे अमेरिकी सरकार को अपनी मुद्रा अधिक मात्रा में छापनी पड़ी, जो उसके पास उपलब्ध सोने के भंडार के अनुपात से कहीं अधिक थी।

नतीजतन, दुनिया के कई देशों ने अपने डॉलर को सोने में बदलने की मांग शुरू कर दी। विशेष रूप से, फ्रांस ने बड़े पैमाने पर डॉलर के बदले सोना मांगा। इससे अमेरिकी सोने का भंडार तेजी से घटने लगा और यह संकट स्पष्ट हो गया कि अमेरिका के पास उतना सोना नहीं था जितनी मात्रा में उसने डॉलर छापे थे।

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को निरंतर विस्तार और लाभार्जन की आवश्यकता होती है। लेकिन सोने से बंधी मुद्रा प्रणाली इस विस्तार को सीमित कर रही थी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का तेजी से विस्तार हो रहा था, लेकिन सोने के भंडार इस विस्तार की गति को बनाए नहीं रख पा रहे थे।

पूंजीवाद को अपनी मुनाफाखोरी की प्रकृति को बनाए रखने के लिए अधिक लचीले वित्तीय ढांचे की आवश्यकता थी, जिसमें मुद्रा का मूल्य भंडारित संपत्ति से बंधा न हो।

डॉलर को सोने से अलग करना पूंजीवाद के इस अंतर्विरोध का समाधान था। यह पूंजीवादी व्यवस्था के लिए जरूरी था कि वह मुद्रास्फीति और ऋण के रूप में अर्थव्यवस्था में अधिक तरलता पैदा करे, जिससे मुनाफे की प्रक्रिया जारी रहे।

अमेरिकी डॉलर का सोने से अलग होने का एक और प्रमुख कारण अमेरिका का वैश्विक प्रभुत्व बनाए रखना था। जब डॉलर सोने से जुड़ा हुआ था, तो अमेरिका की मुद्रा न केवल उसकी आंतरिक नीतियों पर निर्भर करती थी, बल्कि उसके सोने के भंडार पर भी।

लेकिन सोने से मुक्त होकर, अमेरिका अपनी मुद्रा नीति पर अधिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता था। डॉलर की मांग दुनिया भर में बनी रही, क्योंकि यह वैश्विक व्यापार की मुख्य मुद्रा थी।

निक्सन प्रशासन के इस कदम से अमेरिका ने यह सुनिश्चित किया कि वैश्विक वित्तीय व्यवस्था में उसकी मुद्रा का प्रभुत्व बना रहे, भले ही वह सोने से जुड़ा न हो।

डॉलर की स्थिरता और अमेरिका की आर्थिक ताकत से जुड़ी धारणा ने डॉलर को प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में बनाए रखा।

1971 में डॉलर के सोने से अलग होने के बाद, वैश्विक वित्तीय प्रणाली में अस्थिरता बढ़ गई। मुद्राओं का मूल्य अब सोने पर आधारित नहीं था, बल्कि बाजार की स्थितियों और देशों की आर्थिक नीतियों पर निर्भर हो गया। इससे मुद्राओं की अस्थिरता बढ़ी और मुद्रा युद्धों की संभावनाएं पैदा हुईं।

मुद्राओं की अस्थिरता ने वैश्विक पूंजीवाद में असमानताओं को और बढ़ाया। विकसित और विकासशील देशों के बीच का अंतर गहरा होता गया, क्योंकि विकसित देशों के पास मुद्रा संकटों से निपटने के लिए अधिक संसाधन थे, जबकि विकासशील देश अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के दबाव में आ गए।

यह पूंजीवाद का एक और अंतर्विरोध था, जो मुनाफे की भूख और असमानता के बीच पैदा हुआ था। पूंजीवाद के निरंतर विस्तार की आवश्यकता ने वैश्विक वित्तीय व्यवस्था को और अस्थिर बना दिया, जिससे असमानता और शोषण बढ़ा।

डॉलर के सोने से अलग होने के बाद, अमेरिकी मुद्रा ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी जगह बनाए रखी। हालांकि, यह एक तरह का “कृत्रिम प्रभुत्व” था, जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ताकत के बजाय वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था की संरचनात्मक कमजोरियों पर आधारित था।

पूंजीवाद की असमान संरचना ने डॉलर को ऐसा उपकरण बना दिया, जिसके जरिए अमेरिकी प्रभुत्व को विश्व भर में फैलाया जा सकता था।

इस घटना ने यह स्पष्ट किया कि पूंजीवाद में मुद्रा केवल विनिमय का माध्यम नहीं है, बल्कि यह एक वर्गीय शक्ति का साधन है अमेरिकी पूंजीपति वर्ग ने वैश्विक मुद्रा प्रणाली पर अपना प्रभुत्व बनाए रखा और इससे उसे वैश्विक स्तर पर श्रमिक वर्ग और विकासशील देशों का शोषण करने का अवसर मिला।

अमेरिकी डॉलर का प्रभुत्व वास्तव में वैश्विक पूंजीवाद के अंतर्विरोधों का प्रतीक है, जो असमानता और शोषण पर आधारित है।

जब पूंजीवादी वर्चस्व और शोषण चरम पर पहुंच जाता है, तो विरोधी शक्तियां उभरती हैं। ब्रिक्स देशों का गठबंधन इसी प्रक्रिया का हिस्सा है। ये देश उस आर्थिक असमानता और अन्याय का सामना कर रहे हैं, जिसे पश्चिमी पूंजीवादी संस्थाओं-जैसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (#IMF) और विश्व बैंक द्वारा बनाए रखा गया है।

BRICS ऐसी शक्ति है जो वैश्विक दक्षिण के देशों के आर्थिक हितों को संरक्षित कर सकती है और वैश्विक पूंजीवाद की संरचना में बदलाव ला सकती है। यह समूह अमेरिका और यूरोप के पूंजीवादी वर्चस्व को कमजोर करने के प्रयास में है और यूनिट जैसी साझा मुद्रा की संभावना उसी दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।

यूनिट का प्रस्ताव वास्तव में पूंजीवादी वैश्वीकरण के खिलाफ क्रांतिकारी कदम के रूप में देखा जा सकता है। यह उस एकाधिपत्य को चुनौती देता है जो अमेरिकी डॉलर ने वैश्विक वित्तीय प्रणाली पर स्थापित कर रखा है। BRICS के देशों की साझा मुद्रा अमेरिका और पश्चिमी पूंजीवाद द्वारा बनाए गए वित्तीय ढांचे में बड़ी दरार पैदा कर सकती है।

कोई भी क्रांति तभी सफल हो सकती है जब उत्पादन के साधनों का नियंत्रण पूंजीपतियों से श्रमिकों के हाथ में आ जाए। यहां हम इसे वैश्विक संदर्भ में देख सकते हैं, जहां यूनिट जैसी साझा मुद्रा का उदय वैश्विक उत्पादन के साधनों के प्रभुत्व को अमेरिकी पूंजीवाद से हटाकर उभरते राष्ट्रों की ओर स्थानांतरित कर सकता है।

BRICS देशों का आर्थिक शक्ति बनना इस पूंजीवादी वर्चस्व को कमजोर कर सकता है और इसे उत्पादक देशों की साझी विरासत के रूप में पुनर्वितरित कर सकता है।

अमेरिकी डॉलर की वैश्विक मुद्रा के रूप में स्थिति केवल आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक भी है। डॉलर का प्रभुत्व अमेरिकी साम्राज्यवाद का शक्तिशाली हथियार है, जिसके माध्यम से अमेरिका न केवल आर्थिक, बल्कि सैन्य और राजनीतिक दबाव भी दुनिया के अन्य देशों पर डालता है।

यूनिट जैसी साझा मुद्रा का उदय अमेरिकी साम्राज्यवाद को कमजोर कर सकता है और वैश्विक राजनीति में बहुध्रुवीय व्यवस्था को प्रोत्साहित कर सकता है।

पूंजीवाद की सबसे बड़ी समस्या असमानता है। पूंजीपति वर्ग का शोषण और लाभार्जन श्रमिक वर्ग के मेहनत के बल पर ही संभव होता है। वैश्विक संदर्भ में, पश्चिमी देशों ने अपनी पूंजीवादी व्यवस्था के माध्यम से बाकी दुनिया का शोषण किया है।

यूनिट जैसी मुद्रा का निर्माण उन देशों को उनकी आर्थिक संप्रभुता वापस दिला सकता है, जिनका शोषण अमेरिकी और पश्चिमी पूंजीवाद ने लंबे समय से किया है। यह कदम आर्थिक समानता की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास हो सकता है, जिसमें वैश्विक अर्थव्यवस्था के साधनों का न्यायपूर्ण वितरण होगा।

हालांकि यूनिट जैसी मुद्रा का प्रस्ताव क्रांतिकारी कदम है, लेकिन इसे लागू करने में कई चुनौतियां भी हैं। किसी भी क्रांति का सामना करने के लिए सत्ताधारी वर्ग हमेशा एकजुट होता है। यहां भी पूंजीवादी पश्चिमी देश, विशेष रूप से अमेरिका, इस प्रयास को रोकने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे।

BRICS देशों की आंतरिक आर्थिक संरचनाएं बहुत भिन्न हैं। चीन, जहां निर्यात पर अत्यधिक निर्भर है, वहीं भारत और ब्राजील की आर्थिक नीतियां इससे विपरीत हैं। ये आर्थिक विषमताएं साझा मुद्रा को लागू करने में जटिलताएं उत्पन्न कर सकती हैं। ये अंतर्विरोध उस संघर्ष का हिस्सा हैं, जो पूंजीवाद के किसी भी बदलाव में होता है।

क्रांति केवल आर्थिक नहीं होती, बल्कि राजनीतिक और वैचारिक भी होती है। BRICS देशों के बीच राजनीतिक और वैचारिक असहमति भी बड़ी चुनौती हो सकती है।

उदाहरण के लिए, रूस और चीन जैसे देशों की राजनीतिक व्यवस्थाएं अन्य BRICS सदस्यों से भिन्न हैं। यह राजनीतिक भिन्नता साझा मुद्रा के क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न कर सकती है।

इतिहास की गति वर्ग संघर्ष के माध्यम से ही आगे बढ़ती है। BRICS देशों द्वारा साझा मुद्रा यूनिट का प्रस्ताव नये प्रकार का वर्ग संघर्ष है, जो अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है। यह संघर्ष पूंजीवादी देशों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बीच है।

यदि यह मुद्रा आकार लेती है और सफल होती है, तो यह उस पुराने विश्व व्यवस्था को चुनौती देगी, जो अमेरिकी और पश्चिमी प्रभुत्व पर आधारित है।

यह नया वर्ल्ड आर्डर बहुध्रुवीय होगा, जिसमें अमेरिका और यूरोप की जगह BRICS जैसे समूह का नेतृत्व होगा। इससे वैश्विक स्तर पर आर्थिक और राजनीतिक असमानता कम हो सकती है और अधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था की नींव पड़ सकती है।

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