सुसंस्कृति परिहार
हमारे देश में बुलबुल की सवारी इन दिनों मज़ाक बनी हुई है वीर सावरकर यदि उसकी सवारी करते हुए अपने वतन को नमन् करने जाते थे तो यह तो अच्छी बात है इसमें बुरा क्या है जो इस तरह गदर मचा हुआ है इससे तो बेचारी बुलबुल पर बड़ी मुश्किल में आ जाएगी। हो सकता है पाठ पढ़ने वाले बच्चे इसे पकड़ इसकी सवारी करने लगे तो उसकी क्या हालत हो जायेगी ? इसलिए बच्चों के हित में इस पर बहस मुबाहिसे से दूर रहें।
पहले जान लीजिए बुलबुल कलछौंह भूरे मटमैले या गंदे पीले और हरे रंग के होते हैं और अपने पतले शरीर, लंबी दुम और उठी हुई चोटी के कारण बड़ी सरलता से पहचान लिए जाते हैं।उनकी पूंछ के नीचे लाल रंग होता है विश्व भर में बुलबुल की कुल ९७०० प्रजातियां पायी जाती हैं। इनकी कई जातियाँ भारत में पायी जाती हैं, जिनमें “गुलदुम बुलबुल” सबसे प्रसिद्ध है। बुलबुल नर सुरीला होता है।मादा को आकृष्ट करने गाता है।यह ईरान का राष्ट्रीय पक्षी है। ईरान जैसे देश के राष्ट्रीय पक्षी को अपनी सवारी बनाकर ही तो उन्हें वीर की ख्याति मिली।इसे कपोल कल्पित कहना निरी मूर्खता है।जिस देश में शिव जी नंदी की ,काली मां शेर की , लक्ष्मीजी उल्लू की, गणेशजी जी चूहे की सवारी कर सकते हैं तो संघ के वीर सावरकर बुल बुल की क्यों नहीं कर सकते ? बच्चों और तर्कवीरों को ये उदाहरण देकर समझाना ज़रुरी।यह भी समझा दें आस्था पर तर्क-वितर्क गंभीरतम अपराध है।जब सवारी नन्हीं सवारी होती है तो दिव्य ज्ञान से उसमें शक्ति सम्पन्न बनाया जा सकता है।
जहां तक बात कर्नाटक के पाठ्यक्रम की है तो ज़रा ध्यान दीजिए जब हमारे कदम मनुस्मृति की ओर बढ़ चले हैं सरस्वती और लक्ष्मी का रुतबा निरंतर बढ़ रहा है। सरस्वती जी तो विश्वविद्यालय परिसर तक पहुंच चुकी हैंऔर लक्ष्मी की बढ़त ने अडानी को नंबर तीन पहुंचा दिया है।तो भला इनकी कहानी तो पढ़नी ही होगी यथा लक्ष्मी जी उल्लू पर सवार होकर आती हैं।अब विघ्नविनायक गणेशजी विराजमान होने वाले हैं वे चूहे पर सवार नज़र आयेंगे।तब यह प्रश्न आज तक किसी ने क्यों नहीं पूछा कि ऐसा कैसे संभव है। ऐसा पूछा जाना जुर्म भी हो सकता है क्योंकि आस्था का सवाल महत्वपूर्ण है यहां कोई तर्क नहीं चलता।
इसी पावन भावना के साथ वीर सावरकर को लेना होगा।शक करना बेवकूफी है। चिल्लपों से क्या फायदा करोड़ों लोगों की आस्था का सवाल वे मान रहे हैं तो आपत्ति क्यों करनी।कोर्ट भी आस्था पर हमला नहीं कर सकता। कर्नाटक के शिक्षा मंत्री ने ठीक कहा कि यह साहित्य की काल्पनिक उड़ान की तरह है और उसे हटाने की मांग गलत है।वे ये मानकर चल रहे हैं कि आज भी दंतकथाओं पर साहित्य अवलंबित है।वे प्रगतिशील साहित्य से सरोकार नहीं रखते।बेशक उन्हें इसकी क्या ज़रुरत ? इसीलिए भारत-सरकार निरंतर धर्म कर्म को प्रोत्साहित कर रही है।हर 30-40मील पर प्रवचनों के माध्यम से जो शिक्षा का प्रशिक्षण चल रहा है उसी का विस्तार कर्नाटक के पाठ्यक्रम का ये हिस्सा है।
भारत में अब नये अवतारों की तलाश ज़ोर पकड़ रही है यदि वे चमत्कारी नहीं होंगे तो कैसे आस्था जन्मेगी।इससे पहले नाथूराम गोडसे को गाॅड बनाकर मंदिर बन चुके हैं। हमारे मोदीजी का चमत्कारी व्यक्तित्व भी कम नहीं उन्हें भी आस्थावान लोग भगवान स्वरुप देखने लगे।एक और चमत्कारी है शाह जी। मोदीजी के लंगोटिया यार चुनाव से पहले ही रिजल्ट बता देते हैं । इनके आगे तो आज का सबसे चमत्कारी बाबा बागेश्वर धाम वाला भी मात खा जाए।बिना किसी पहुंचे गुरु की सिद्धि के ये चमत्कार कम तो नहीं।
आश्चर्यजनक तो सिर्फ यह है कि सावरकर जीने बुलबुल को क्यों चुना ?अल्लामा इक़बाल भी जब ये कहते हैं हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलिस्तां हमारा तो भी बड़ी कोप्त होती है।ईरानी राष्ट्रीय पक्षी को इतनी तवज्जो देने की क्या ज़रूरत थी। हमारे उपवन के मोर,कोयल ,तोता मैंना क्यों नहीं लिए गए।यह शोध का विषय है। बुलबुल को लेकर सावरकर और इकबाल के बीच क्या कोई रिश्ता था जो सारे जहां से अच्छा लिखकर वे पाकिस्तान चले गए।अंग्रेजों ने भी स्काऊट गाईड की बच्चियों को कब बुलबुल कहा।वो आज भी चलन में है। बुलबुल जैसे भद्दे पक्षी को लेकर यह सब हुआ यह समझ से परे है।हो सकता है यह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का कोई बड़ा पहलू हो। इसलिए बिना सोचे समझे इस उलझन को सुलझा लें।वीर सावरकर का ये इतिहास उनके दिव्यतम चमत्कारिक ज्ञान का बोध कराता है और कर्नाटक सरकार की भांति भारत सरकार को इसे तमाम राज्यों के पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए ताकि अधर्मियों के स्वर खत्म हो सकें।
बहरहाल इन सवालों के उत्तर खोजना और बुलबुल की सवारी पर प्रश्नचिंह लगाना बेमानी है। प्राच्य किंवदंतियों की तरह ही इसे स्वीकारिए और इंतजार करिए उन 75लेखकों की खोज का जिन्होंने 50,000₹भारत सरकार से लेकर उनके मनमाफिक नया साहित्य रचा है।जो आज मनुवाद की प्रतिस्थापना के लिए ज़रुरी है।यह अमृत काल है जो मिल रहा है उसे ग्रहण कीजिए इसमें ही सबका भला है।