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बुलडोजर संस्कृति अमानवीय दमन का उत्सव

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*फांसी की मांग प्रतिहिंसा की अभिव्यक्ति*

 *पुतला दहन विरोधी की मृत्यु की क्रूर कामना

*आदिम हिंसा की पुनरावृत्ति*

 हरनाम सिंह

                मानव सभ्यता के ज्ञात इतिहास में किसी ताकतवर विजेता शासक द्वारा हिंसा से विचलित होकर अहिंसा की और अग्रसर होना एक विरल घटना रही है। प्राचीन काल में सम्राट अशोक का कलिंग युद्ध के बाद अहिंसा और करुणा की ओर लौटना, इस मानवीय गुण को विश्व स्तर तक फैलाने के प्रयास करना भी भारत ही नहीं वैश्विक जगत को प्रभावित करने वाली एक अनोखी घटना रही है। यूं तो मानव विकास क्रम में हिंसा किसी न किसी स्वरूप में सदैव मौजूद रही है, लेकिन पहली बार एक राजा द्वारा युद्ध की विभीषिका से विचलित होकर जीवन के हर क्षेत्र में हिंसा से दूर रहने की पहल की गई। धर्म को आधार बनाकर उसे दूर दराज क्षेत्रों तक विस्तारित किया गया। महान अशोक के शांति संदेश का भारत में कब और कैसे ? प्रभाव समाप्त होता चला गया, साथ ही किन कारणों से ? किन साधनों से ? किन समूहों ? द्वारा भारत से शांति और भाईचारे का बौद्ध धर्म और संस्कृति को खदेड़ कर समाप्त कर दिया गया। इस पर बहुत अधिक तो नहीं कहा गया है। परंतु अब कई बातें साफ होती जा रही है।

                सामंती समाज और राज्य व्यवस्था की हिंसा के कई प्रश्नों को पीछे छोड़कर  हम वर्तमान तक पहुंचते हैं। औपनिवेशिक गुलामी से आजादी प्राप्त कर देश के नीति निर्माताओं ने भारत देश को उसी महान सम्राट अशोक की करुणा से जोड़ते हुए अशोक चक्र राज चिह्न के रूप में राष्ट्रीय ध्वज पर सुशोभित किया। चार मुखी सिंह संसद भवन के शिखर पर विराजित किया। आदर्श वाक्य के रूप में सत्यमेव जयते को स्वीकारा गया। लेकिन अशोक की करुणा और अहिंसा हमारे दैनंदिन व्यवहार का अंग नहीं बन पाए। आजादी के 75 वर्षों के बाद वह निरंतर छीजती जा रही है। अब हिंसा न केवल राजनैतिक, प्रशासनिक दमन के रूप में स्वीकार्य बन चुकी है अपितु प्रतिहिंसा के स्वर हमें उस बर्बर आदिम युग में ले जाते हैं जहां “जान के बदले जान” को ही न्याय माना जाता था। इन 75 वर्षों में आर्थिक और सामाजिक समानता जाति, वर्ण, भेद की समाप्ति सबके लिए समानता आधारित न्याय व्यवस्था सब कुछ दांव पर लग चुका है।

 *पुतला दहन प्रतिहिंसा की अभिव्यक्ति*

                  स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्र नायक महात्मा गांधी ने जिन शास्त्रों का उपयोग किया उनमें अहिंसा प्रमुख थी। जिसके चलते कई बार उन्हें अपने ही अनुयायियों, समर्थकों की आलोचना झेलना पड़ी थी। चोरा चोरी की हिंसा  जिसमें थाने में बंद सिपाहियों को भीड़ द्वारा जिंदा ही जला दिया गया था, दुखी महात्मा गांधी ने अपना आंदोलन वापस ले लिया। यह बेहद मुश्किल फैसला था, लेकिन अहिंसा के प्रति प्रतिबद्ध गांधी जी डिगे नहीं। वे अपने शत्रु के खिलाफ भी हिंसा की कल्पना तक नहीं करना चाहते थे।

                आज गांधीजी के वे शस्त्र तो हिंसक  हूंकारों में खो चुके हैं। सिविल नाफरमानी, असहयोग आंदोलन, भूख हड़ताल जैसे आत्म उत्सर्ग के तरीके पुलिस की लाठियों और बंदूक की गोलियों के सामने अप्रासंगिक से हो गए हैं। 

                 राज्य द्वारा की गई हिंसा की प्रतिक्रिया ने जो स्वरूप अख्तियार किया है वह जिम्मेदारों के पुतला दहन के रूप में भी प्रदर्शित होता है। आये दिनो राजनीतिक दलों एवं अन्य संगठनों द्वारा अपने वैचारिक विरोधियों के पुतले का दहन कर उसकी मृत्यु की कामना पैशाचिक क्रृत्य ही माना जाना चाहिए। यह उनके द्वारा भी किया जाता है जो स्वयं को महात्मा गांधी का वारिस मानते हैं। प्रतीकात्मक पुतला दहन कब इंसान को जिंदा जलाने की प्रक्रिया में तब्दील होता है वह 1984 के सिख विरोधी एवं 2002 में गुजरात में मुस्लिमों के संहार के रूप में देखा जा चुका है।

 *फांसी की मांग*

                 देश के संविधान और न्याय व्यवस्था में मृत्युदंड का प्रावधान है। कई जघन्य अपराधियों को फांसी की सजा दी गई है। लेकिन सभ्यता के जिस सोपान पर मानवता पहुंची है उसमें अब राज्य द्वारा की जा रही इस संवेधानिक हिंसा को भी अमानवीय माना जाने लगा है। कई देशों ने अपने यहां मृत्युदंड के प्रावधान को ही समाप्त कर दिया है। जांच प्रक्रिया, गवाह, सबूतों के बावजूद भी किसी भी सजा प्राप्त आरोपी के साथ अन्याय की गुंजाइश रहती है।इस विचार को ध्यान में रखकर ही कहा जाता है कि सजा प्राप्ति के बाद अगर नए सबूतों के जेरेसाये कोई आरोपी बेगुनाह साबित हो जाए तो मृत्युदंड प्राप्त व्यक्ति को वापस नहीं लाया जा सकता।

                देश में आए दिनों हिंसक वारदातों से आक्रोशित पीड़ित पक्ष और उसके समर्थकों द्वारा संदिग्ध अपराधी को फांसी देने की मांग जोर-शोर से की जाती है। कई बार इस मांग को वे लोग भी समर्थन देते हैं जो संवैधानिक पदों पर बैठे हैं कानून और न्याय की प्रक्रिया से पूरी तरह वाकिफ होते हैं। कई बार सार्वजनिक चौराहों पर फांसी देने, आरोपी को भीड़ के हवाले करने की मांग भी होती है। ऐसी ही सोच के चलते अदालतों में कानून के जानकार वकीलों द्वारा कई बार आरोपी को पीटा जाता है। ( क्या ऐसे लोग वकील बनने योग्य भी होते हैं जिन्हें न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं है। हालांकि यह अलग विषय है। ) देश में न्याय प्राप्त करने का सुव्यवस्थित ढांचा बना हुआ है उसके आधार पर ही न्यायिक प्रक्रिया पूरी करके आरोपी दंड का पात्र होता है अथवा उसे रिहा कर दिया जाता है। यह न्यायाधीश तय करते हैं ऐसे में भीड़ और कतिपय समूहों की फांसी की मांग मात्र आक्रोश की अभिव्यक्ति ही होती है। लेकिन विस्तारित स्वरूप में देखें तो ऐसी मांग को भीड़ के न्याय में बदलने में देर नहीं लगती। इसलिए संयम रखकर ही न्यायालय द्वारा न्याय प्राप्त करने के प्रयासों को ही समर्थन मिलना चाहिए। हां न्याय शीघ्र मिले यह मांग जरूर होनी चाहिए।

 *बुलडोजर – एनकाउंटर न्यायप्रणाली का अपमान*

                 देश के संविधान में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका में संतुलन बनाए रखा गया है। लोकतंत्र का कोई भी स्तंभ निरंकुश होकर अपने ही देशवासियों की प्रताड़ना का कारण न बने इस पर नजर रखी गई है। कार्यपालिका अंतर्गत पुलिस विभाग जब अपराध पर नियंत्रण पाने में विफल रहता है, अपराधियों के हौसले विभाग को चुनौती देने लगते हैं तब यह विभाग ऐसे आरोपियों को बिना न्यायिक प्रक्रिया अपनाएं अपने स्तर पर मुठभेड़ के नाम पर एनकाउंटर के माध्यम से मार डालता है। हो सकता है कुछ  मुठभेड़ वास्तविक हो। लेकिन कई एनकाउंटर झूठे प्रमाणित हो चुके हैं। यह स्पष्ट रूप से हत्या ही होती है। इस कार्यप्रणाली से कोई बेगुनाह नहीं मारा जाता होगा यह कहना मुश्किल है। पुलिस द्वारा कथित अपराधी को सजा देना बेहद खतरनाक सोच है। इस कार्यप्रणाली का कभी समर्थन नहीं किया जा सकता है।

                ऐसा ही बुलडोजर के माध्यम से कथित अपराधियों के घरों को तोड़कर न्याय दिखाने का प्रयास भी है। आश्चर्य है कि न्यायपालिका का स्थान लेती कार्यपालिका के इस दुस्साहस पर स्वयं न्यायिक तंत्र मौन है। कथित अपराधियों को सजा देने का अधिकार प्राप्त करके कार्यपालिका स्वेच्छाचारी बन गई है। अतिक्रमण, बिना अनुमति के निर्माण का कमजोर बहाना बनाकर बुलडोजर से मकान ध्वस्त कर दिया जाता है। यह केवल कथित अपराधी को ही सजा नहीं होती है, अपितु पूरे परिवार को दंड भुगतना पड़ता है जबकि परिजनो का अपराध से कोई वास्ता नहीं होता। प्रशासन की दमनकारी कार्यवाही से कितने निरपराध सजा पा रहे हैं, पा चुके हैं। इस पर विस्तृत अध्ययन की गुंजाइश बनी हुई है। एक बुलडोजर न्यायालय से बड़ा हो गया है। उसने उन्मादी स्वरूप अख्तियार कर लिया है। देश का संविधान कहता है कि भले दोषी को सजा न मिल सके लेकिन किसी निरपराध को सजा नहीं मिलना चाहिए। लेकिन बुलडोजर की न्याय प्रणाली स्वयं अपने आप में न्यायालय है जो दोषी तय करती है और दंड भी देती है। इसके नीचे आकर कई निरपराध परिवारों को बेघर होना पड़ा है। सवाल उठाए जाने चाहिए कि जिस कथित सरकारी भूमि पर अतिक्रमण हुआ है अथवा बिना अनुमति के निर्माण हुआ है वह अपराध किस प्रशासनिक अधिकारी के कार्यकाल में हुआ ? उस समय प्रशासन मौन क्यों बना रहा था ? गुनाह क्यों होने दिया गया ? अगर वास्तव में भवन निर्माण बिना अनुमति के भी हुआ हो तो समय रहते उसे क्यों नहीं रोका गया ? लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था में हिंसा के ये शासकीय स्वरूप तानाशाही की ओर बढ़ते कदम हैं। शांति- न्याय- अहिंसा और करुणा के पक्षधर नागरिकों को आगे आकर बेगुनाह निरपराध लोगों के समर्थन में अन्याय का विरोध करना होगा।

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