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बुलडोज़र संस्कृति का बोलबाला

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नाम बदलने में माहिर भारतीय जनता पार्टी के कर्णधारों को अब इस बात पर भी गौर कर लेना चाहिए कि वे पुराने नाम के साथ ही पार्टी चलाएं या इसका नाम बुलडोज़र जनता पार्टी रखा जाए। इसके साथ ही पार्टी को अपने निशान यानी कमल की जगह बुलडोज़र ही रख लेना चाहिए। आखिर इसी बुलडोजर के दम पर उत्तरप्रदेश भाजपा ने जीत लिया है और अब मध्यप्रदेश में इतिहास दोहराने की तैयारी हो चुकी है। कुछ दिनों पहले ये ख़बर आई थी कि मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को अब बुलडोज़र मामा कहा जाएगा, क्योंकि उन्होंने माफिया और अवैध काम करने वालों के खिलाफ बुलडोज़र चलाने की धमकी दी है।
तब लगा था कि ये सब चुनावी पैंतरेबाजी होगी। क्योंकि उत्तरप्रदेश चुनावों में इस बार आदित्यनाथ योगी ने खुद के लिए बुलडोज़र बाबा शब्द को स्वीकृत और प्रचारित किया था। चुनाव जीतने के बाद कुछ भाजपा समर्थक व्यापारियों ने उन्हें चांदी का बुलडोज़र भेंट किया था और योगीजी ने मुस्कुराते हुए इस भेंट को स्वीकार किया था। राजशाही के वक्त अपने आकाओं को तलवार या कटार आदरस्वरूप भेंट की जाती थी। यह चलन लोकतंत्र में भी कई बार अमल में लाया गया, लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि तलवार से अधिक शक्तिशाली और विध्वंस करने में सक्षम बुलडोज़र राजनीति में दबदबे का पर्याय बन गया है।
भारतीय राजनीति में यह शोध का विषय हो सकता है कि हम कब और कैसे इतना बदल गए कि निर्माण की जगह विध्वंस के प्रतीक राजनीति में हावी हो गए हैं। गांधीजी चरखे के हिमायती थे, जिससे सूत काता जाता है। हंसिया और हथौड़ा भी राजनीति की पहचान बने, क्योंकि ये कामगारों के, मेहनत के प्रतीक हैं, बैलगाड़ी या खेती-किसानी के अन्य औजार जनता को अपने साथ जोड़ने के लिए निशान के तौर पर इस्तेमाल किए गए। इन सबमें कहीं न कहीं जीवन की गतिशीलता, रचनात्मकता, संघर्ष और मेहनत का जज्बा झलकता था। लेकिन अब बुलडोज़र का ही बोलबाला है। खासकर भाजपा शासित राज्यों में, जहां कानून व्यवस्था के नाम पर पुलिस और अदालत की कार्रवाई को दरकिनार करते हुए सीधे फैसला सुना देने की नयी परंपरा तैयार की जा रही है। ये स्थिति लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है।
भाजपा का दावा रहा है कि उसके शासन में कानून का राज रहा है, लेकिन यह दावा हक़ीक़त में नज़र नहीं आ रहा। मध्यप्रदेश में खरगोन की घटना पर ऊपरी तौर पर अभी शांति है, लेकिन जो बयान सामने आ रहे हैं, उनसे ऐसा लगता है कि इस मामले को अभी राजनैतिक फ़ायदे के लिए और खींचा जा सकता है। गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा का ताज़ा बयान आया है कि रामनवमी साल में एक बार आती है लेकिन इस दिन देश भर में 12 जगहों पर दंगा हो जाता है। रामनवमी पर मांसाहारी खाने को लेकर जेएनयू में बवाल होता है। ये सब हमारे त्योहारों के दिनों में ही क्यों होता है। ज़ाहिर है कि श्री मिश्रा इस मामले पर भावनात्मक कार्ड खेल रहे हैं। 
दूसरी ओर खरगोन की घटना से पहले भाजपा नेता कपिल मिश्रा का एक भाषण भी सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ, जो उन्होंने दंगों की जगह से 40-50 किमी की दूरी पर दिया था। इसमें जिस तरह की बातें कपिल मिश्रा ने कथित तौर पर कही हैं, वो साफ़-साफ़ भड़काने वाली हैं। उधर उत्तरप्रदेश में भी महिलाओं के खिलाफ सरेआम अपराध की धमकी देने वाला तथाकथित महंत 11 दिन बाद गिरफ़्तार किया जा सका। इस गेरुएवस्त्रधारी ने अपनी बातों से महिलाओं का ही नहीं, धर्म का भी अपमान किया और कानून-व्यवस्था को खुली चुनौती दी। लेकिन उस पर कार्रवाई उस तत्परता से नहीं की गई, जिस तत्परता से अल्पसंख्यकों पर की जा रही है।
योगी आदित्यनाथ ने कहा कि रामनवमी के दिन उप्र में 8सौ स्थानों पर शोभा यात्रा निकली लेकिन कहीं कोई दंगा फ़साद नहीं हुआ। इस समय रमज़ान का महीना भी चल रहा है लेकिन कहीं कोई तू-तू मैं-मैं तक नहीं हुई। दंगा फसाद तो दूर की बात है। अच्छी बात है कि उप्र में कोई सांप्रदायिक तनाव शोभायात्रा के नाम पर नहीं हुआ, लेकिन इस बयान के निहितार्थ क्या हैं, ये भी समझने की जरूरत है। क्या योगीजी अल्पसंख्यकों को समझाइश दे रहे हैं या फिर उन राज्यों की कानून व्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं, जहां रामनवमी के मौके पर तनाव कायम हुआ। पिछले दिनों राजस्थान, मध्यप्रदेश, झारखंड, बिहार, कर्नाटक और प.बंगाल इन तमाम राज्यों से सांप्रदायिक तनाव की खबरें आईं और इनमें अधिकतर भाजपा शासित राज्य हैं। 
और जहां तक सवाल कानून व्यवस्था का है, तो इसे भाजपा, कांग्रेस या किसी अन्य दल की सत्ता के दायरे से ऊपर उठते हुए एक अनिवार्यता की तरह लागू करना चाहिए। देश के अधिकतर राज्य इस वक़्त लचर कानून व्यवस्था का शिकार हैं। धर्म के नाम पर राजनैतिक तमाशे तो हो ही रहे हैं, महिलाओं के साथ अनाचार की खबरें रुक नहीं रही हैं, आदिवासियों और दलितों का शोषण पहले से अधिक निर्लज्जता के साथ हो रहा है। संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर की जयंती जब देश मना रहा है, तब यह सब लिखने में अफ़सोस भी हो रहा है कि उनके बताए रास्तों पर देश चल ही नहीं पा रहा है। वे सभी नागरिकों के लिए सुरक्षित और खुशहाल देश बनाने का सपना रखते थे, संविधान की रचना में इस बात का बारीकी से उन्होंने ध्यान रखा। मगर संविधान की जगह देश में बुलडोज़र संस्कृति का बोलबाला दिख रहा है।


देशबन्धु में संपादकीय 

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