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सीएए बिल : पहली बार धार्मिक ध्रुवीकरण का नागरिकता कानून

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सनत जैन

भारत सरकार ने सीएए बिल कई वर्ष पूर्व पारित किया था। तभी राष्ट्रपति की स्वीकृति भी मिल गई थी। अब इस कानून को लोकसभा चुनाव के पहले लागू किए जाने की अधिसूचना जारी की गई है। सीएए लागू किए जाने को लेकर देश में एक बार फिर हंगामा शुरू हो गया है। लोकसभा चुनाव को लेकर धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए इसे ऐसे समय पर लागू किया जा रहा है, जब लोगों में धार्मिक आधार पर इसकी प्रतिक्रिया हो। चुनाव के पहले इस तरह की रणनीति राजनीतिक दलों द्वारा तैयार की जाती है। ताकि चुनाव में इसका लाभ उनकी पार्टी को मिले। केंद्र सरकार ने असम में एनआरसी को लेकर धार्मिक ध्रुवीकरण का एक प्रयास शुरू किया था। इसमें कोर्ट के आदेश से नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजन बिल के जरिए लोगों से उनकी नागरिकता का प्रमाण मांगा जा रहा था।

भारत में अवैध रूप से रह रहे लोगों का डाटा तैयार करने के लिए एनआरसी बिल लाया गया था। पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों में इसका भारी विरोध हुआ। एनआरसी का जब भारी विरोध हुआ तो देश में धार्मिक आधार पर अफरा-तफरी का माहौल बन गया। उसके बाद सरकार ने एनआरसी की कार्रवाई को बंद कर दिया। उसके बाद सीएए कानून संसद के दोनों सदनों में पास कराया गया। इस बिल में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए हुए सिंधी, जैन, सिख, बौद्ध और ईसाइयों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान किया गया। इसमें मुस्लिम धर्म मानने वालों को नागरिकता दिए जाने का प्रावधान नहीं है।

धार्मिक आधार पर पहली बार इस तरह का नागरिकता कानून बना है। जिसका पश्चिम बंगाल एवं पूर्वोत्तर राज्यों में भारी विरोध हो रहा है। 1971 में जब पाकिस्तान के साथ भारत का युद्ध हुआ था। उस समय बांग्लादेश से बड़ी संख्या में शरणार्थी भारत आकर बसे थे। अधिकांश शरणार्थियों को पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों में बसाया गया था। सीमा पार करके भी अवैध रूप से पिछले कुछ वर्षों में बांग्लादेश के मुस्लिम परिवार समय-समय पर भारत मैं आकर अवैध रूप से बसे हैं। 1947 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच अंग्रेजों ने बंटवारा करके दो राष्ट्र बनाये थे, उस समय बड़ी संख्या में पाकिस्तान से सिंधी, सिख, जैन एवं बौद्ध धर्म मानने वाले परिवार भारत आकर बस गए थे। सिंधी समुदाय के लोग सबसे ज्यादा संख्या में भारत आए थे। इन्हें देश के विभिन्न राज्यों में स्थापित शरणार्थी शिवरों में रखा गया था। उनकी नागरिकता को लेकर भारत सरकार द्वारा कोई नियम कानून नहीं बनाये गए थे। इस कारण अनिश्चय की स्थिति बनी हुई थी।


केंद्र सरकार ने अब नागरिकता संशोधन कानून सीएए लागू कर दिया है। इस कानून के बन जाने के बाद पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हुए बिना दस्तावेज वाले गैर मुसलमानों को नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है। मुस्लिम धर्म को मानने वाले जो लोग पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आकर भारत में रह रहे हैं, उन्हें भारतीय नागरिक होने की पात्रता नहीं दी जाएगी। 1947 में भी ऐसी कोई शर्त नहीं रखी गई थी। जो भी नागरिक जहां पर भी रहना चाहता था, उसके लिए वह स्वतंत्र था। विभाजन के समय बहुत से परिवार अपने-अपने रिश्तेदारों और अपनी स्थितियों के कारण भारत से पाकिस्तान गए, और पाकिस्तान से भारत आए। भारत में नागरिकता का आधार जन्म और मतदाता सूची इत्यादि दस्तावेजों में नाम दर्ज होने से उसे भारतीय नागरिक मान लिया जाता था। 1971 में जब भारत और पाकिस्तान का युद्ध हुआ। पाक अधिकृत बांग्लादेश को स्वतंत्र देश का दर्जा भारत सरकार ने दिया। भारत सरकार ने उस समय बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मुजीबुर्रहमान के साथ मिलकर 1971 का युद्ध लड़ा था। इसमें भारत की जीत हुई।

भारत के सहयोग से पाकिस्तान का एक बहुत बड़ा क्षेत्र बांग्लादेश के रूप में एक स्वतंत्र देश बन गया। इस लड़ाई में भारत को फायदा था। पाकिस्तान को दो टुकड़े में विभाजित करके भारत सरकार ने अपनी एक सीमा को सुरक्षित बना लिया था। यह उस समय की सबसे बड़ी भारत की जीत थी। भारत सरकार यदि बांग्लादेश के स्वतंत्रता सेनानियों को सहायता नहीं देती, तो बांग्लादेश कभी स्वतंत्र राष्ट्र नहीं बनता। 1947 के भारत और पाकिस्तान के बीच हुए विभाजन और 1971 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान से बांग्लादेश को तोड़कर नया राष्ट्र बना दिया था। उसके बाद ही पाकिस्तान शांत हुआ। भारत में नागरिकता के लिए धार्मिक आधार को बनाए जाने का विरोध मुसलमानों द्वारा किया जा रहा है।

सिंधी समाज के लोगों को भी कई दशकों तक भारतीय नागरिकता से महरूम रखा गया। नागरिकता को लेकर भारत सरकार ने कभी इस तरह का विवाद नहीं होने दिया था। चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए धार्मिक आधार पर जो ध्रुवीकरण किया जा रहा है। उसके कारण सीमावर्ती राज्यों में अस्थिरता की स्थिति पैदा हो रही है। 1947 और 1971 के विभाजन के पश्चात पाकिस्तान और बांग्लादेश के जो परिवार भारत में आकर बस चुके थे। उन्हें एनआरसी और सीएए कानून को लेकर जो तलवार बार-बार लटकाई जा रही है, इसका एक मात्र उद्देश्य धार्मिक धुर्वीकरण के आधार पर वोटों की खेती करना है। वास्तविक समस्या का समाधान से उसका कोई लेना देना नहीं है। पिछले तीन दशक में धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर भारत में जो राजनीति की बिशात बिछाई जा रही है, उसके बड़े दुष्परिणाम अब देखने को मिलने लगे हैं।


निश्चित रूप से सीएए कानून विशिष्ट रूप से पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हुए लोगों को भारत की नागरिकता देने का कानून है। जो लोग अविभाजित भारत के स्थाई निवासी थे। 1947 और 1971 या उसके बाद आए हुए लोगों को नागरिकता देने के संबंध में स्पष्ट कानून बनाए जाने की जरूरत थी। नागरिकता कानून में सारे देश में एक धर्म विशेष के समुदाय को अलग रखे जाने से मुस्लिम समुदाय के लोगों में डर बना हुआ है। इस कारण मुस्लिम वर्ग के लोग विरोध कर रहे हैं। मुस्लिम धर्म के नागरिकों के लिये नागरिकता कानून की जो तलवार लटकाई जा रही है। उसे अशांति फैलती ही जा रही है। असम में एनआरसी के समय जो अफरा-तफरी मची थी। 2024 के लोकसभा चुनाव के पूर्व धार्मिक ध्रुवीकरण के माध्यम से चुनाव को प्रभावित करने का यह एक प्रयास माना जा रहा है। सरकार ने नागरिक संशोधन कानून और एनआरसी कानून के अंतर को स्पष्ट रूप से समझाने का कोई प्रयास भी नहीं किया। एनआरसी कानून खत्म हो गया है, या भविष्य में इसे लागू किया जाएगा। इस बारे में सरकार ने चुप्पी साध रखी है। पिछले कई दशकों से अथवा जिनकी कई पीढ़ियों का जन्म भारत में हुआ है। मुस्लिम समुदाय के लोग जो भारत में नागरिक की हैसियत से अभी रह रहे हैं। उनका क्या होगा, इस बारे में सरकार की चुप्पी से यह विवाद बार-बार गहरा रहा है। कुल मिलाकर यह चुनावी रणनीति का एक हिस्सा ही है। जब-जब चुनाव आते हैं, तभी सीएए और एनआरसी का मुद्दा गरमा जाता है। चुनाव खत्म होते हैं, और यह मामला ठंडा पड़ जाता है।

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