शमसुल इस्लाम
भारत में राष्ट्रविरोधी, अमानवीय एवं धार्मिक रूप से कट्टर नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 लागू हो गया है।
नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (सीएए), जो अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से (31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले) धार्मिक उत्पीड़न का सामना करते हुए भारत में आने वाले हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, इसाईयों और पारसियों के लिए भारतीय राष्ट्रीयता के द्वार खोलने का वादा करता है, 9 दिसंबर, 2019 को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा लोकसभा में पेश किया गया था। देश की लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष राजनीति की मूल आत्मा का उल्लंघन करने वाला यह विधेयक संघ-भाजपा के कारण 8 घंटे से भी कम समय में पारित हो गया। शासकों को लोकसभा में प्रचंड बहुमत प्राप्त है। दुख की बात है कि यह अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस, 10 दिसंबर की पूर्व संध्या पर हुआ। इसने नागरिकता अधिनियम, 1955 का स्थान ले लिया, जिसमें ऐसा कोई भेदभाव नहीं किया गया था। इसे 12 दिसंबर को राज्यसभा द्वारा पारित किया गया और उसी तूफ़ानी गति के साथ भारत के राष्ट्रपति ने उसी दिन इसे क़ानून बनाने के लिए अपनी सहमति दे दी।
हालांकि, एक क़ानून जो जन्मा और 4 दिनों (9 से 12 दिसंबर) के भीतर वास्तविकता बन गया (जैसे कि यदि यह कानून अस्तित्व में नहीं होगा, तो स्वर्ग गिर जायेगा), 4 साल और 9 महीने तक बिना किसी सूचना के ठंडे बस्ते में रखा गया था। इसे 11 मार्च, 2024 को तब लागू किया गया, जब 2024 के संसदीय चुनाव कुछ सप्ताह दूर थे। भारत के पड़ोस में सताये गये गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों की दुर्दशा को यह सुनिश्चित करने के लिए छोड़ दिया गया था कि इसे केवल तभी पुनर्जीवित किया जायेगा, जब पीएम मोदी को अपने लाभ के लिए, आम जनता के बीच ध्रुवीकरण करने के लिए, इस क़ानून की आवश्यकता हो।
यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह कानून मौजूदा भारतीय नागरिकों की नागरिकता की जांच के लिए एक और अधिक भयानक कानून लाने की दिशा में पहला कदम है। एनआरसी की कवायद करोड़ों भारतीयों, विशेष रूप से हाशिये पर रहने वाले और मुस्लिमों के लिए विनाशकारी साबित होने जा रही है।
आइए, हम आरएसएस-भाजपा शासकों द्वारा नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 या सीएए को लागू करने के लिए उनके द्वारा दिए जा रहे तर्कों की वैधता की जांच करें।
(1) सीएए भारत के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान को खत्म करने का प्रयास करता है।
शाह ने लोकसभा में विधेयक प्रस्तुत करते हुए घोषणा की थी कि यह भारतीय संविधान के अनुरूप है, क्योंकि ‘‘संविधान हमारा धर्म है।” झारखंड में चुनावी व्यस्तता के कारण सदन से अनुपस्थित रहने वाले प्रधानमंत्री ने यह घोषणा करते हुए अमित शाह पर पूरा भरोसा जताया कि ‘‘यह विधेयक भारत के सदियों पुराने आत्मसातीकरण और मानवीय मूल्यों में विश्वास के लोकाचार के अनुरूप है।”
ये बेशर्म झूठ थे। स्वतंत्र भारत में अपनी तरह का यह पहला अधिनियम है, जो भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान के घोर उल्लंघन पर आधारित है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धर्मनिरपेक्षता को संविधान के ‘बुनियादी’ संरचनाओं में से एक घोषित किया गया है। हिंदुवादी शासकों का दावा है कि यह मौजूदा नागरिकता कानून, 1955 के नागरिकता अधिनियम में संशोधन था। हालांकि, यह 1955 के अधिनियम की पूरी तरह से अवहेलना है, जिसके तहत भारतीय नागरिकता जन्म, वंश, पंजीकरण, प्राकृतीकरण या क्षेत्र के समावेश द्वारा प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार सीएए भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का उल्लंघन करता है, जिसे संविधान के चार अनुल्लंघनीय स्तंभों में से एक घोषित किया गया था।
(2) यह आरएसएस के वैश्विक मुस्लिम विरोधी ध्रुवीकरण एजेंडे का हिस्सा है।
अमित शाह ने इस बिल को पेश करते हुए ऐलान किया कि यह अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ नहीं है। उनके अनुसार, “पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में किसी भी अल्पसंख्यक को डरने की ज़रूरत नहीं है।” वह एक बड़े दिल वाले गृहमंत्री प्रतीत होते थे, जो उन सभी लोगों का स्वागत कर रहे हैं, ‘‘जो लोग उत्पीड़न के कारण यहां आते हैं, अपने धर्म और अपने परिवार की महिलाओं के सम्मान को बचाने के लिए…’’ (वही)। दयालु अमित शाह ने तर्क दिया कि ‘‘यदि पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहा है, तो हम मूकदर्शक नहीं रह सकते। हमें उनकी सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करना होगा।”
हालांकि, जब हम अधिनियम पर गौर करते हैं, तो यह दावा उनके किसी भी अन्य दावे की तरह बिल्कुल खोखला है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में सताये गये हिंदू, सिख, बौद्ध, ईसाई और पारसियों का स्वागत है, लेकिन शिया, अहमदिया और सूफी जैसे सताये हुए मुस्लिम इस प्रस्ताव के अनुसार नागरिकता के पात्र नहीं हैं। आरएसएस/भाजपा शासकों के अनुसार, सताये गये मुसलमानों पर विचार नहीं किया गया, क्योंकि वे अल्पसंख्यक नहीं हैं, बल्कि सभी मुसलमान हैं। अनपढ़ लोग भी जानते हैं कि उपरोक्त तीनों देशों में इन संप्रदायों को गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया गया है।
अमित शाह तीन मुस्लिम देशों में धार्मिक उत्पीड़न को लेकर अत्यधिक चिंतित हैं, लेकिन उन्हें मुस्लिम तर्कवादी, उदारवादी और नास्तिक लेखकों, कवियों, ब्लागर्स और कार्यकर्ताओं के उत्पीड़न की कोई चिंता नहीं है, जो इन देशों में धार्मिक निगरानी समूहों द्वारा सैकड़ों की संख्या में मारे गये हैं। भारत लंबे समय से बलूच राष्ट्रवादियों के जातीय सफ़ाये की निंदा करता रहा है। उनमें से हज़ारों को पाकिस्तानी सशस्त्र बलों ने मार डाला है और सैकड़ों लापता हैं। चूंकि वे मुसलमान हैं, इसलिए पाकिस्तानी सेना द्वारा उनके लगातार जातीय सफ़ाये के बावजूद भारत में उनका स्वागत नहीं किया जायेगा।
और चीन में उत्पीड़ित उइगर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बारे में क्या? संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार दस लाख से अधिक उइगर मुसलमानों और अन्य मुस्लिम समूहों को पश्चिमी शिनजियांग क्षेत्र में एकाग्रता शिविरों में हिरासत में रखा गया था, जहां कहा गया था कि वे ‘‘पुनः शिक्षा” कार्यक्रमों से गुजर रहे थे। हाल ही में, अमेरिकी कांग्रेस ने देश के सुदूर पश्चिम में जातीय मुसलमानों पर क्रूर सामूहिक कार्रवाई को लेकर चीन पर दबाव बनाने के उद्देश्य से एक विधेयक को मंजूरी दे दी है।
पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से प्रताड़ित मुसलमानों को अनुमति न देने के पीछे अमित शाह का तर्क यह है कि वे अपने-अपने देशों में अल्पसंख्यक नहीं हैं। लेकिन सताये गये उइगर मुसलमान चीन में धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। सीएए 2019 के तहत उन्हें शरण देने से इनकार करना केवल मुस्लिमों के प्रति नफ़रत और चीनी शासकों के प्रति समर्पण दर्शाता है।
उन अफ़गानियों के लिए जल्द ही त्रासदी सामने आने वाली है, जो तालिबान की ज़्यादतियों के कारण सैकड़ों की संख्या में, जिनमें महिलाएं भी शामिल थीं, भारत चले आये हैं। चूंकि सीएए को अधिसूचित किया गया है, इसलिए इन सभी अफ़गान शरणार्थियों को तालिबान द्वारा शासित धार्मिक अफ़गानिस्तान में वापस जाने के लिए मजबूर किया जायेगा।
(3) सताये गये ईसाइयों के लिए हास्यास्पद प्रेम
पड़ोसी देशों में ईसाइयों के प्रति प्रेम अधिक हैरान करने वाला है, क्योंकि मुस्लिमों के बाद, इस समुदाय को ही भारत में आरएसएस के गुंडों के हाथों सबसे अधिक हिंसा का सामना करना पड़ा है। मोदी ने 26 मई 2014 को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में अपना पहला कार्यकाल शुरू किया। उनके द्वारा किये गये पहले निर्णयों में से एक हर साल 25 दिसंबर (क्रिसमस) को ‘सुशासन दिवस’ के रूप में मनाने के बारे में था। यह आज तक जारी है। भारत में ईसाइयों का क्या हश्र होने वाला है, यह भारत के सबसे प्रसिद्ध पुलिस अधिकारियों में से एक, जूलियो रिबेरो ने मोदी सरकार के लगभग नौ महीने पूरे होने पर इन शब्दों में स्पष्ट कर दिया : ‘‘आज, अपने 86वें वर्ष में, मुझे ख़तरा महसूस हो रहा है। मैं अपने ही देश में अवांछित अजनबी बनकर रह गया हूं। नागरिकों की वही श्रेणी, जिन्होंने खुद को उस ताक़त से बचाने के लिए मुझ पर भरोसा किया था, जिसे वे समझ नहीं सकते थे, अब अपने धर्म से अलग धर्म का पालन करने के लिए मेरी निंदा करने के लिए बाहर आ गये हैं। मैं अब भारतीय नहीं हूं, कम से कम हिंदू राष्ट्र के समर्थकों की नजर में।… क्या यह संयोग है या एक सोची-समझी योजना है कि एक छोटे और शांतिपूर्ण समुदाय को व्यवस्थित रूप से निशाना बनाने की कार्यवाही पिछले मई में नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद ही शुरू हुई है? ‘घर वापसी’, क्रिसमस को ‘सुशासन दिवस’ घोषित करना, दिल्ली में ईसाई चर्चों और स्कूलों पर हमले, इन सभी ने घेराबंदी की भावना को बढ़ा दिया है, जो अब इन शांतिपूर्ण लोगों को प्रभावित कर रही है। ईसाइयों और उनके धार्मिक-शैक्षणिक संस्थानों पर इस तरह के हमलों ने तब से अखिल भारतीय शैतानी चरित्र ले लिया है।”
आरएसएस के सबसे प्रमुख विचारक ने मुस्लिमों, जिन्हें ‘आंतरिक ख़तरा नंबर 1’ घोषित किया गया था, के बाद भारतीय ईसाइयों को ‘आंतरिक ख़तरा नंबर 2’ घोषित किया है, (एम एस गोलवलकर, बंच ऑफ़ थाट्स, साहित्य सिंधु, बैंगलोर, 1996, पृ. 193.)। अमित शाह ईसाईयों से कितना प्रेम करते हैं, यह तब स्पष्ट हो गया जब भारतीय संसद ने 2019 में ही 104 वां संवैधानिक अधिनियम पारित कर दिया। इसने 25 जनवरी, 2020 से लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एंग्लो-इंडियन सदस्यों के नामांकन को समाप्त कर दिया है। ईसाइयों के एक वर्ग को प्रतिनिधित्व देने के लिए संविधान में एंग्लो-इंडियनों के नामांकन का प्रावधान किया गया था, जिनकी कम संख्या के कारण उनके समुदाय का कोई भी सदस्य निर्वाचित होने में असमर्थ था। दरअसल, 17वीं लोकसभा में यह प्रावधान लागू होने के बावजूद मोदी सरकार ने एंग्लो-इंडियन समुदाय से किसी भी सदस्य को सदन में नामांकित नहीं किया। वह शासन जो सीमाओं के पार ईसाइयों के उत्पीड़न से परेशान है, उन्हें संविधान प्रदत्त सभी अधिकारों से वंचित करने का काम कर रहा है।
(4) सिखों, जैनियों और बौद्धों के लिए प्यार, जिन्हें आरएसएस द्वारा भारत में हिंदू घोषित किया गया है
आरएसएस-भाजपा शासकों का पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़गानिस्तान के सिखों, जैनियों और बौद्धों के प्रति प्रेम भी हैरान करने वाला है। आरएसएस के निकाय के रूप में भाजपा शासक उपरोक्त धर्मों को स्वतंत्र धर्म का दर्जा नहीं देते हैं। आरएसएस के सबसे प्रमुख विचारक, गुरु गोलवलकर ने घोषणा की कि हिंदुओं को सिख, बौद्ध और जैन में विभाजित नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि “बौद्ध, जैन, सिख सभी उस एक व्यापक शब्द ‘हिंदू’ में शामिल हैं।” (एमएस गोलवलकर, द स्पाटलाइट्स, साहित्य सिंधु, बैंगलोर, 1974, पृ. 171.)
(5) रहस्यमय अंतिम तिथि
उत्पीड़ित समुदायों द्वारा भारत में शरण लेने की अंतिम तिथि 31 दिसंबर 2014 या उससे पहले तय की गयी है। इसका मतलब है कि 31 दिसंबर 2014 के बाद तीनों देशों में हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, ईसाइयों और पारसियों पर कोई उत्पीड़न नहीं हुआ है। यह केवल भारत के पड़ोस में वर्तमान वास्तविकता की पूर्ण उपेक्षा को दर्शाता है। असम में विदेशी घोषित किये गये पंद्रह लाख से अधिक हिंदुओं के बढ़ते गुस्से को शांत करने के लिए कट-आफ तारीख़ तय की गयी थी। लेकिन इसने असम में पुराने घावों को हरा कर दिया है, जहां असमिया पहचान के लिए लड़ने वाले संगठन सीएए के ख़िलाफ़ विद्रोह में उठ खड़े हुए हैं।
(6) श्रीलंका के उत्पीड़ित तमिल हिंदू अधर में रह गये
सीएए श्रीलंका पर चुप है, जहां बड़े पैमाने पर हिंदू तमिलों का जनसंहार हुआ था। श्रीलंका में फ़ासीवादी बौद्ध संगठन केवल सिंहली बौद्धों के लिए श्रीलंका की मांग करते रहे हैं। अमित शाह और उनकी हिंदुत्व सरकार ने श्रीलंका के उत्पीड़ित हिंदू तमिलों को बेशर्मी से धोखा दिया है, जिन्हें गृह युद्ध के दौरान भारत में स्थानांतरित होने के लिए मजबूर किया गया था या अभी भी उन्हें वहां उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है। 1,50,000 (डेढ़ लाख) से अधिक लोग बिना किसी अधिकार के दयनीय शिविरों में रह रहे हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि सीएए पड़ोस के हिंदुओं की भी सुरक्षा का बलिदान देता है।
(7) म्यांमार में उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों और जातीय समूहों को मरने के लिए छोड़ दिया गया
अमित शाह के नेतृत्व वाले भारतीय गृह मंत्रालय ने 1643 किलोमीटर लंबी भारत-म्यांमार सीमा पर बाड़ लगाने का आदेश दिया है। यह रोहिंग्या लोगों, काचिन्स (बैपटिस्ट) और अराकान सेना जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों और जातीय समूहों को रोकने के लिए किया जा रहा है, जो सैन्य शासकों के क्रूर उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं। चूंकि उन्होंने खुद को म्यांमार सेना के हत्यारे गिरोहों से बचाने के लिए भारत में शरण ली थी, अब इस बाड़ के साथ वे म्यांमार के शासकों की दया पर निर्भर होंगे।
(8) ‘एक राष्ट्र, एक विधान’ पर अमित शाह का पाखंड
आरएसएस/भाजपा शासक इस मांग पर सक्रिय रहे हैं कि भारत एक राष्ट्र है और प्रत्येक मुद्दे पर एक ही क़ानून होना चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि सीएए से पहले भारत में एक ही नागरिकता क़ानून था, लेकिन सीएए लागू होने के साथ भारत में कई नागरिकता क़ानून होंगे। सीएए पूरे अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मिजोरम, लगभग पूरे मेघालय और असम और त्रिपुरा के कुछ हिस्सों को छूट देता है, लेकिन पूरे मणिपुर को इसके दायरे में रखता है जिसे एक अपवाद भी माना जा सकता है। इस प्रकार नागरिकता ‘एक राष्ट्र, एक विधान’ के लक्ष्य को अलविदा कहने वाले ढेर सारे क़ानूनों द्वारा शासित होगी।
(9) सीएए 2019 की पटकथा घृणा के गुरु गोलवलकर ने 1939 में लिखी थी
आरएसएस के सबसे महत्वपूर्ण विचारक गोलवलकर ने अपनी 1939 की पुस्तक ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड’ में भारतीय राष्ट्र के चरित्र के बारे में जो आदेश दिया था, सीएए 2019 उसका पुनरुत्थान है। उनके अनुसार, यह एक विशिष्ट हिंदू राष्ट्र था, है और रहेगा। हक़ीक़त तो यह है कि यह न सिर्फ़ अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ है, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान के भी ख़िलाफ़ है। आरएसएस को 1925 में अपने जन्म के बाद से ही सर्व-समावेशी भारत के विचार से एलर्जी रही है।
गोलवलकर ने घोषणा की कि, ‘‘हिंदुस्तान, हिंदुओं की भूमि, हिंदू राष्ट्र है और रहना चाहिए….परिणामस्वरूप केवल वही आंदोलन वास्तव में ‘राष्ट्रीय’ हैं, जिनका उद्देश्य हिंदू धारणा का पुनर्निर्माण, उसे पुनः सक्रिय करना और उसकी वर्तमान जड़ता से मुक्ति दिलाना है।“ (एमएस गोलवलकर, वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड, भारत प्रकाशन, नागपुर, 1939, पृ. 43)
उन्होंने यहां तक कहा कि जो लोग हिंदू राष्ट्र की स्थापना में विश्वास नहीं रखते, वे या तो देशद्रोही और राष्ट्रीय हित के दुश्मन हैं, या, उदार दृष्टिकोण के अनुसार, बेवकूफ हैं। (एमएस गोलवलकर, वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड, भारत प्रकाशन, नागपुर, 1939, पृ. 44.)
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जब सीएए नहीं था, तब भी पीएम नेहरू के नेतृत्व में भारत ने (अप्रैल 1959) दलाई लामा जैसे लोगों को अपने अनुचरों के साथ शरण की अनुमति दी थी। 1970 के दशक के अंत में इस्लामवादियों और पाकिस्तानी सेना द्वारा सताये गये हज़ारों पूर्वी पाकिस्तानियों को भारत में आश्रय प्रदान किया गया था। सीएए लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत को हिंदुत्व धर्मतंत्र में बदलने के लिए मोदी और अमित शाह जैसे कट्टर हिंदू राष्ट्रवादियों के नेतृत्व में आरएसएस/भाजपा शासकों की एक चाल है। इसे संसद द्वारा सुगम बनाया गया। भारतीय न्यायपालिका, विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय समय पर हस्तक्षेप करके इस त्रासदी को टाल सकता था। लेकिन सीएए की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली 200 से अधिक याचिकाएं 2020 से सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित हैं और सर्वोच्च न्यायालय याचिकाओं पर सुनवाई करने से कतरा रही है। अब एकमात्र आशा यह है कि भारत के लोग लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत की इस बर्बादी का विरोध करेंगे।
*(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं। उन्हें भारत और दुनिया भर में राष्ट्रवाद के उदय और इसके विकास पर मौलिक शोध कार्य के लिए विश्व स्तर पर जाना जाता है