मोदी फिर राज करने आ गए लेकिन अब जमाना उनका नहीं. अब जमाना राहुल गांधी का है. नीतीश कुमार अपनी प्रासंगिकता के लिए हाथ पांव मार रहे हैं, उनके सलाहकार माथा लगा रहे हैं लेकिन अब जमाना तेजस्वी का है. सत्ता में आए या न आएं, बिहार की राजनीति के केंद्र में अब तेजस्वी यादव रहेंगे. बाकी, उनकी मेहनत, उनकी दूरदृष्टि.यह कोई मामूली बात नहीं है कि जमाना अब राहुल तेजस्वी की ओर देख रहा है और वाम दल इनके स्वाभाविक सहयोगी के रूप में उभर कर सामने आए हैं. मुद्दों की सियासत ने इन सब को करीब किया है और यह सबके हित में है, जनता के भी हित में, कि यह जुगलबंदी बनी रहे, चलती रहे.
हेमन्त कुमार झा,
एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
आप नौकरियों की वैकेंसी निकालो, उसकी क्रेडिट लेने के लिए हाथ पांव मारो, लेकिन क्रेडिट है कि वह उनके आंगन में पहुंच ही जाएगी जिन्होंने रोजगार को अपना एजेंडा बना कर इसे विमर्श के केंद्र में ला दिया था. अब तो सुनते हैं कि अग्निपथ के राही अग्निवीरों की सेवा शर्तों में भी कई सकारात्मक सुधार किए जाने की चर्चा है. क्या आप अग्निवीरों को विमर्श का विषय बनाने में राहुल गांधी से क्रेडिट छीन सकते हैं ?
बिहार की एनडीए सरकार आजकल कसमें खा रही है कि वह दस लाख सरकारी नौकरियां दे कर ही दम लेगी. इतनी नौकरियां दे लेगी तभी विधान सभा चुनाव में वोट मांगने जाएगी. रिक्तियां तलाशी जा रही हैं, निकाली जा रही हैं. एनडीए सरकार को इसके लिए थैंक्स. निश्चित ही उसे इसका क्रेडिट भी मिलना चाहिए. लेकिन, इस क्रेडिट का एक बड़ा हिस्सा खुद ब खुद फुदकते हुए तेजस्वी के बंगले तक पहुंच ही जाएगा.
इधर, केंद्र सरकार की रिक्तियां निकालने की कवायदों पर भी भाजपा के कुछ नेता गण बोलने लगे हैं. यह उनकी मौलिक राजनीति या राजनीतिक स्वभाव का तो हिस्सा नहीं ही है. कोई विवशता ही उनके मुंह से ‘नौकरी’ जैसे शब्द निकलवा रही है. मिडिल क्लास के होशियार लोग आजकल वाम दलों को खारिज करते हुए कितनी गंभीरता से उन पर वक्तव्य झाड़ देते हैं, है न ? लेकिन, उनकी छातियों पर मूंग दलते हुए भाकपा माले ने बिहार में तीन में से दो लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज कर ली और जहां हारी भी वहां एनडीए को उनके ही गढ़ में पानी तो जरूर पिला दिया.
सुनते हैं, डर का आलम ऐसा पसरा कि खुद नीतीश कुमार को अपने घर में जाकर रोड शो का आयोजन करना पड़ा. आरा में तो माले की जीत हवा के बदलते रुख का संकेत है, जहां लोग सोच भी नहीं सकते थे कि केंद्रीय मंत्री और बड़े साहब रहे आर. के. सिंह हार भी सकते हैं. बेगूसराय में तथाकथित हिन्दू हृदय सम्राट गिरिराज सिंह सीपीआई से जैसे तैसे जीत तो गए लेकिन पिछले चुनाव के मुकाबले उनका मार्जिन गोते खाता नजर आया.
कुल मिला कर परिदृश्य यह बन रहा है कि अब राजनीति को जनोन्मुखी दिशा में नजर आना ही होगा. वे दिन गए जब फलां साहब फाख्ता उड़ाया करते थे. अब जनता के मुद्दों से मुठभेड़ करने के दिन आ रहे हैं. जनता के मुद्दों से मुठभेड़ ? इन शब्दों से याद आया कि भाजपा तो इसमें सबसे अधिक फिसड्डी है. उसे तो मंदिर, अयोध्या, काशी, मथुरा, हिंदू, गाय, मुगल, दुनिया में भारत का बढ़ता रुतबा, फलां है तो मुमकिन है आदि आदि के सहारे राजनीति करने की आदत है. यही सब उसकी यूएसपी है और यही उसकी सीमा है.
लेकिन, जब जनता के मुद्दों से मुठभेड़ करने की बारी आती है तो लफ्फाजियां बेकाम साबित होने लगती हैं. अब भाजपा क्या करे ? उसे मुख्यधारा में बने रहने के लिए बदलना होगा या जमींदोज हो जाने के लिए तैयार होना होगा. कोई नहीं कह सकता कि राहुल, तेजस्वी या अखिलेश के पास वह स्किल है कि वे रोजगार या महंगाई या जीवन से जुड़े अन्य मौलिक मुद्दों पर सफल होंगे ही, यह समय बताएगा. उनकी सफलता यही है कि उन्होंने इन्हें विमर्शों के केंद्र में स्थापित किया और अजेय दिख रही भाजपा को बैकफुट पर ला दिया.
मोदी फिर राज करने आ गए लेकिन अब जमाना उनका नहीं. अब जमाना राहुल गांधी का है. नीतीश कुमार अपनी प्रासंगिकता के लिए हाथ पांव मार रहे हैं, उनके सलाहकार माथा लगा रहे हैं लेकिन अब जमाना तेजस्वी का है. सत्ता में आए या न आएं, बिहार की राजनीति के केंद्र में अब तेजस्वी यादव रहेंगे. बाकी, उनकी मेहनत, उनकी दूरदृष्टि.
यह कोई मामूली बात नहीं है कि जमाना अब राहुल तेजस्वी की ओर देख रहा है और वाम दल इनके स्वाभाविक सहयोगी के रूप में उभर कर सामने आए हैं. मुद्दों की सियासत ने इन सब को करीब किया है और यह सबके हित में है, जनता के भी हित में, कि यह जुगलबंदी बनी रहे, चलती रहे.
राजनीति चाहे जितनी जनविरोधी बनती गई, वाम दल चाहे जितने हाशिए पर आते गए, लेकिन उन्होंने अपने जनोन्मुख मुद्दों को नहीं छोड़ा. आज भी कामगार वर्ग को अपने अधिकारों और हितों की चिंता होती है तो उन्हें वामदल अपने करीब नजर आते हैं. भारत में कामगार वर्ग आबादी का इतना बड़ा हिस्सा है और उनके हितों पर इस तरह सुनियोजित चौतरफा आक्रमण हो रहे हैं कि वाम दलों की प्रासंगिकता अब फिर से बढ़ने के दिन आ गए हैं.
जरूरत है कि प्रतिरोध की धार कुंद न हो और निरीहों की पुकार अनसुनी न हो. जमाना इसी तरह बदलता है, जमाने के चेहरे इसी तरह बदलते हैं. यही बदलाव राजनीति को गतिशीलता देते हैं.