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क्या वाक़ई संघ बदल सकता है, या यह सिर्फ़ सांप के केंचुली बदलने वाली प्रक्रिया है

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भंवर मेघवंशी

क्या संघ वाक़ई जाति मुक्ति की युक्ति ढूंढ रहा है या यह केवल राजनीतिक रूप से सही होने की क़वायद मात्र है? संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जाति और वर्ण की व्यवस्था को पुरातन और अप्रासंगिक बताते हुए इसे मिटा देने की आवश्यकता जताई है। जबसे उनका यह वक्तव्य आया है, तब से इस पर विभिन्न तरह के विचार विभिन्न समूहों की तरफ़ से टीका-टिप्पणी के रूप में की जा रही है। 

जाति पर विचारने वाले पहले नहीं हैं मोहन भागवत

अनेकानेक लोगों ने संघ की कथनी और करनी के फ़र्क़ का सवाल उठाया है। उनका मानना है कि संघ के पूर्व सरसंघ चालक बाला साहब देवरस में पुणे की वसंत व्याख्यान माला में लगभग चार दशक पूर्व इस विचार की नींव रख दी थी। तब उन्होंने अस्पृश्यता को पाप के रूप में निरूपित किया था। बाद में संघ ने अपने प्रमुख कार्यों में समरसता को शामिल किया और राष्ट्रीय समरसता मंच का निर्माण किया। लेकिन उसका परिणाम क्या रहा? क्या तत्कालीन संघ प्रमुख के इस बयान का इसके कैडर ने स्वीकार किया? क्या संघ के स्वयमसेवकों ने छुआछूत की बीमारी से निजात पाई? क्या संघ ने कोई बड़ा अभियान चलाया? इन सवालों का एकमात्र जवाब यह है कि बिल्कुल भी नहीं। केवल उन्होंने कह दिया और उसे प्रचारित कर दिया गया। बस हो गया अस्पृश्यता का अंत!

केवल कागजी बयान

वर्ष 2014 से केंद्र में जबसे भाजपा सत्तारूढ़ हुई है, आरएसएस हर वक्त चुनावी सोशल इंजीनियरिंग में व्यस्त रहता है। इसलिए वह सैद्धांतिक रूप से खुद से एकदम सही साबित करने की जुगत में लगा हुआ है। जैसे कि मोहन भागवत लिखित किताब ‘यशस्वी भारत’ को पढ़ने पर ज्ञात होता है कि आरएसएस ने खुद को बहुत बदल लिया है और वह प्रगतिशीलता के मूल्य अपना रहा है। जबकि ऐसा है नहीं। अपने लिखित दस्तावेज़ों में संघ ठीक साबित होना चाहता है। इसलिए वह आरक्षण का भी समर्थन करता नज़र आता है। यहां तक कि वह ट्रांसजेंडर्स का समर्थक दिखाई पड़ता है। लेकिन उसका कैडर न तो आरक्षण का समर्थक है और न ही ट्रांसजेंडर लोगों के प्रति संवेदनशील। परंतु जो हक़ीक़त में नहीं है, वह काग़ज़ में दिखाने की कला में संघ पहले से ही माहिर है।

मोहन भागवत, प्रमुख, आरएसएस

केवल केंचुल बदल रहा संघ

जाति के पूरे संघी विमर्श पर दृष्टिपात करें तो हम पाते है कि संघ अपनी पैदाइश से घनघोर जाति समर्थक रहा है। संघ के द्वितीय सर संघ चालक गुरु गोलवलकर ने जाति को हिंदू समुदाय की विशिष्टता लिखा था। संघ के प्रचारकों व अखिल भारतीय अधिकारियों में सदैव ब्राह्मण बनिया वर्चस्व क़ायम रखा गया है। कभी भी संघ ने जाति मिटाने अथवा जाति प्रथा का अंत करने के लिए कोई आंदोलन नहीं चलाया और ना ही जाति उन्मूलन के एजेंडे को अपना खुला समर्थन व्यक्त किया, बल्कि गाहे-ब-गाहे जाति के बने रहने के फ़ायदे ही गिनाये हैं। अब वही संघ जब अचानक जाति वर्ण की व्यवस्था को मिटाने की बात करने लगा है तो लोगों का आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक ही है।

कुछ लोग यह साबित करने में लगे हैं कि आरएसएस बदल गया है। वह समावेशी हो रहा है। वह दलितों व आदिवासियों का समर्थक है और दलित-पिछड़े मुसलमानो से संवाद कर रहा है। डॉ. आंबेडकर को अपना रहा है। लेकिन क्या यह वास्तव में हो रहा है या केवल काग़ज़ी क़वायद है जिसे ज़बानी जमा खर्च ही माना जाये? अब यह आशंका ज़रूर व्यक्त की जाने लगी है कि जाति व्यवस्था के विरुद्ध उठ रहे असंतोष के मद्देनज़र संघ खुद को सही कर रहा है। किंतु क्या वाक़ई संघ बदल सकता है या यह सिर्फ़ सांप के केंचुली बदलने वाली प्रक्रिया है, जिसमें वह अपनी चमड़ी बदलता है, उसका ज़हर बरकरार रहता है। संघ भी सिर्फ़ ऊपरी चमड़ी बदलता दिख रहा है, उसके भीतर का ज़हर अब भी जस का तस है और रहेगा।

संघ का कपट

यह भी माना जा सकता है कि देश में सांप्रदायिक राजनीति को चुनौती देने के लिए सामाजिक न्याय की ताकतें जाति जनगणना पर ज़ोर दे रही हैं और विभिन्न संस्थानों में जाति आधारित भागीदारी का सवाल निरंतर तेज हो रहा है, ऐसे में अचानक आरएसएस का जाति व्यवस्था को ख़त्म करने का विचार कहीं प्रतिक्रांति का प्रयास तो नहीं है? चूंकि आरएसएस का इतिहास और लोगों का उसके साथ का अनुभव जातिविहीन समाज के स्वप्न के पक्ष में नहीं नज़र आया है, तो ऐसे में मोहन भागवत का बयान अचानक नहीं हो सकता। यह सोची समझी रणनीति का हिस्सा ही है, ताकि हिंदुत्व की विभाजक राजनीति को जातीय गोलबंदी से बचाया जा सके।

संघ प्रमुख का बयान दलित, पिछड़ा, आदिवासी के गले तो नहीं ही उतर रहा है। मज़ेदार बात यह है कि आरएसएस के स्वयंसेवक भी इसे नहीं पचा पा रहे है। ऐसे में वर्ण व जाति की पुरातन व्यवस्था को ख़त्म करने का बयान महज़ सदाशयता भर माना जाएगा, क्योंकि जिन धार्मिक ग्रंथों पर जाति की पूरी व्यवस्था टिकी हुई है, उनको हटाने या नकारने की बात आरएसएस प्रमुख ने नहीं की है। इसलिए जब तक बांस रहेगा, तब तक बांसुरी भी रहेगी। जब तक सनातनी वैदिक जाति समर्थक धर्म ग्रंथ रहेंगे तब तक जाति भी रहेगी। उसे कोई नहीं मिटा सकता। महज़ बयानों से तो कभी नहीं।

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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