रविंद्र पटवाल
इतनी चोट खाया देश अब आसानी से किसी भी राजनेता या बुद्धिजीवी को बक्शने वाला नहीं है। यह उसे बार-बार के धोखे और झूठे वादों, कथनी और करनी में इस हद तक देखने को मिल रहा है कि स्कूल में प्रवेश से लेकर, प्रतियोगी परीक्षाओं की हकीकत और अपेक्षित रोजगार की आस छोड़ चुके करोड़ों लोगों को देखते हुए, वह साफ़-साफ़ देख पा रहा है कि शब्दों के वास्तविक अर्थ कितने खोखले हो चुके हैं। टीवी या अख़बार की दुनिया के शीर्ष पर बैठकर ज्ञान की गंगा बहाने वाले प्रताप भानु मेहताओं के लिए यह खतरे की घंटी है, क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था और शासन तंत्र उस मोड़ पर खड़ा है कि उसके पास दिखावे के लिए भी गुंजाईश नहीं बची है। ऐसे में यदि कोई व्यवस्था के बचाव में आगे आता है तो वह भी आम लोगों की निगाह से उतर जायेगा।
प्रताप भानु मेहता इस जमाने के माने-जाने बुद्धिजीवी हैं। अशोका यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर रह चुके हैं, और अक्सर अंग्रेजी अख़बार, इंडियन एक्सप्रेस में संपादकीय पृष्ठ पर उनके विचारों को देश का बौद्धिक वर्ग मनोयोग से पढ़ता और गुनता है। आज के उनके लेख में राहुल गांधी के जाति के बारे में, अवधारणा को उन्होंने अपने लेख का आधार बनाया है, और साबित करने का प्रयास किया है कि अपने इस प्रयास से राहुल गांधी कहीं से भी सामजिक न्याय को सच्चे अर्थों में आगे नहीं बढ़ा रहे हैं।
मेहता जी को सबसे बड़ी नाराजगी उस तस्वीर को लेकर है, जिसे राहुल गांधी संसद के भीतर बजट सत्र के दौरान दिखाने की कोशिश कर रहे थे। पीएबी मेहता के मुताबिक, यह सामजिक न्याय के लिए सस्ती लोकप्रियता हासिल करने वाले स्टंट से अधिक कुछ नहीं है। अपने लेख में वे राहुल के व्यक्तित्व में आये बदलाव को भी रेखांकित करते हैं, जो ऐसा लगता है कि कुछ ऐसी बीरबल की खिचड़ी है, जिसमें चित भी मेरी, और पट भी मेरी साबित हो सके। हालांकि, प्रताप भानु मेहता जैसे विद्वानों की यह खास विशेषता पहले से रही है, लेकिन यहां ऐसे कई महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जिन्हें अनदेखा कर लेखक बच निकलना चाहता है, और राजनीति में शुचिता और उच्च मानदंडों का पालन सिर्फ विरोधी पक्ष से अपेक्षा रखता है।
मेहता जी का मुख्य तर्क यह है कि बजट तैयार करने वाले यदि सवर्ण जाति के हैं, तो इससे यह साबित करना कि समूचा बजट ही खराब है, कहीं से भी न्यायोचित नहीं है। इसके आधार पर तो यह भी कहा जा सकता है कि स्वंय राहुल गांधी के द्वारा जातिगत जनगणना की बात उठाना एक तमाशा है। बहरहाल, तर्क-वितर्क और बाल की खाल निकालने के लिए ही तो विद्वान लोगों को वरीयता दी जाती है, ताकि वे सिस्टम को यथास्थितिवादी स्थिति में बनाये रखने में मदद पहुंचा सकें। आम लोग, इन्हीं सूक्ष्म बातों में गूढ़ अर्थ निकालकर गदगद रहें, और इसे अपने बौद्धिक मेधा में इजाफे के तौर पर समझें।
हां, यह सही है कि यदि बजट को सदियों से विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के सदस्यों द्वारा ही तैयार किया गया हो, लेकिन उसके बावजूद वह बजट या नीति बहुसंख्यक, सामजिक न्याय को आगे बढ़ाने में मददगार साबित हो सकती है। लेकिन फिर सवाल उठता है कि क्या वाकई में इस बिना पर इसे जस का तस मान लिया जाये, या वाकई में तह में जाकर देखा भी जाए कि बजट में ऐसा है भी या नहीं? क्या प्रताप भानु मेहता को पिछले दस वर्षों में दिखा नहीं कि देश में चुनिंदा लेकिन सर्मोनियल पदों पर दलितों, आदिवासियों और ओबीसी वर्ग के सदस्यों को बिठाकर, अभूतपूर्व ढंग से अमीर-गरीब की खाई को इतना चौड़ा किया जा चुका है, जितना ब्रिटिश राज भी नहीं कर पाया था? क्या लेखक महोदय, जो खुद शैक्षणिक व्यवसाय से आते हैं, उसमें तमाम विश्वविद्यालयों एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग सहित लगभग हर संस्थाओं में आरएसएस अनुमोदित उप-कुलपतियों की नियुक्तियां लगभग पूरी तरह से हो चुकी हैं? लेक्चरर, सहायक प्रोफेसरों की तो बात ही छोड़ दीजिये।
क्या लेखक महोदय, जिस अख़बार में लेख लिखा करते हैं उसमें आये दिन फर्जी आर्थिक रूप से पिछड़े उम्मीदवारों को देश की प्रशासनिक सेवाओं में भर्ती होने की खबरें देख पाने से मरहूम रह जाते हैं। लेटरल एंट्री नामक बीमारी के बाद अब कितने पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के लिए मुख्यधारा में आने और हलवा खाने के लिए जगह बनती है? सरकारी नौकरी का क्या हाल है और आये दिन पेपर लीक के पीछे की जड़ में कौन है? राहुल गांधी ने इन सभी बातों को अपने बजट भाषण में उठाया है, और देशज भाषा में देश की जनता को बताने का प्रयास किया है कि चक्रव्यूह के इस ओर मोनोपली कैपिटल, देश की संस्थाओं पर काबिज नौकरशाह और मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व मिलकर एक डीप स्टेट की तरह काम कर रहा है, जिसे जातिगत जनगणना के जरिये वे तोड़ना चाहते हैं।
मेहता के लेख पर कुछ प्रतिक्रियाएं
बहरहाल, हर देश में बौद्धिक जमात को अपने-अपने नजरिये से बात रखने और समझने-समझाने की स्वतंत्रता है। लेकिन इस लेख पर काफी प्रतिक्रिया भी देखने को मिली है, जिसे जनचौक के पाठक भी देखना चाहेंगे। इसमें सबसे पहले, वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत टंडन ने पीबी मेहता के लेख का स्क्रीनशॉट साझा करते हुए लिखा है, “सवर्ण लिबरल” अब राहुल गांधी को बदनाम करने प्रोजेक्ट पार्ट II में शामिल हो गया है।
2010 में राहुल गांधी जब नियामगिरी और भट्टा परसौल गये तब कॉर्पोरेट उन्हें बदनाम करने का ज़हरीला कैंपेन शुरु किया। “सवर्ण लिबरल” भी उसमे शामिल था।
गुजरात 2002 के बावजूद इस “सवर्ण लिबरल” को मोदी मंजूर था। एक बड़ी वजह मनरेगा भी थी। “सवर्ण लिबरल” जानता था कि मोदी के अंदर प्रशासनिक क्षमताएं नहीं है, संवैधानिक लोकतंत्र के लिए खतरा बनेंगे मोदी – जो हुआ भी। इसके बावजूद “सवर्ण लिबरल” ने 2013-14 में मोदी की स्वीकार्यता बनाने के न जाने कितने लेख लिख डाले।
सवर्ण ब्यूरोक्रेट्स की बजट के हलवे की बात से “सवर्ण लिबरल” अंदर से हिल गया है।
जातिवार जनगणना के खिलाफ़ अब देश में माहौल बनाया जाएगा। “सवर्ण लिबरल” एक बार फिर राहुल गांधी को बदनाम करने के प्रोजेक्ट में शामिल हो गया है। अभी शुरुआत है-ये कैंपेन भी उतना ही ज़हरीला होगा जितना 2010 के बाद वाला था।”
सोशल मीडिया हैंडल X पर सुधा यादव ने अपनी पोस्ट पर लिखा है, “भारत के उदारवादी चिंतक प्रताप भानु मेहता ने आज भारत के प्रतिष्ठित अख़बार इंडियन एक्सप्रेस में जाति और सामाजिक न्याय को लेकर लेख लिखा है, इंडियन एक्सप्रेस पर बार बार ताज्जुब होता है कि ऐसे आर्टिकल को प्रमुखता से जगह देता है, पहले भी तवलीन सिंह के बे सिर पैर के आर्टिकल को जगह देकर लोगों के बीच जाति को लेकर भ्रम फैलाया। प्रताप भानु मेहता को सीरियस लेने की जरूरत है, क्योंकि वे देश के शीर्ष इंटेलेक्चुअल में अपनी जाति की वजह से पदासीन हैं, और इसलिए भी सीरियस लेने की जरूरत है, क्योंकि ऐसे ही लोग विश्वविद्यालयों में बैठे हैं जो SC, ST और ओबीसी को नॉट फाउंड सूटेबल कर रहे हैं।
प्रताप भानु मेहता ने इस आर्टिकल में बोला है कि जब भी कोई प्रोफेसर कुछ बोलना या कहना चाहता है, तो सबसे पहले अगर वो सवर्ण दिख गया तो उस पर सवाल खड़े किए जाने लगते हैं, वे कहते हैं कि हर जगह जाति को घुसा देना एक गलत प्रैक्टिस है। प्रताप भानु मेहता इस पूरे लेख में ना कोई रिसर्च रख रहे ना कोई आधार और बिना आधार के जाति और सामाजिक न्याय की राजनीति से लोगों को डराने की कोशिश कर रहे हैं, एक बड़े स्तर के इंटेलेक्चुअल से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वे बिना किसी उदाहरण या आधार के लेख लिख रहे हैं।
आइये छानबीन करते हैं प्रोफेसर प्रताप भानु मेहता की जो देश में उत्तर आधुनिक विचारों पर खड़ी अशोका विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर रह चुके हैं। मेहता ने बहुत पहले जाति जनगणना को ‘Snake Oil in the name of Social Justice’ कहा था।जब 2006 में समाजवादियों और वामपंथियों के सहयोग से कांग्रेस ने तत्कालीन शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह के नेतृत्व में शिक्षण संस्थाओं में OBC आरक्षण का विस्तार किया तो मेहता ने नेशनल नॉलेज कमीशन से इस्तीफा दे दिया।
इस्तीफा देने वालों में आंद्रे बेते भी थे। उस समय मेहता ने कहा था कि यह कदम ‘Inject an Insidious Poison’ है। स्क्रॉल की रिपोर्ट के अनुसार मेहता जाति जनगणना के लिए कहते हैं कि यह भारत में जाति बहुसंख्यक वाद से हिन्दू बहुसंख्यक वाद की तरफ ले जाएगा।
मेहता भूल जाते हैं कि मुस्लिम के खिलाफ आरएसएस जो वर्चस्व खड़ा कर रहा है, वो वह मुस्लिम शासन के पहले की ब्रह्मनिकल संस्कृति को उच्चता देकर ला रहा है, और निचली जाति बहुजन की तो वे पहले ही इस संस्कृति से बहिष्कृत हैं।
मेहता आज़ादी के बाद के भारतीय राजनीति के जनवादीकरण के आंदोलनों को बिल्कुल साइड कर दे रहे हैं। वजह है क्योंकि निचली जातियों ने जनवादीकरण की प्रक्रिया में सबसे पहला सवाल ऊपर विश्वविद्यालयों में बैठे बुद्धिजीवी से ही किया है। जिससे मेहता जैसे लोगों का अपना वर्चस्व खतरे में है। क्योंकि बहुजन विमर्श अब जगह ले रहा है जिसे प्रो रजनी कोठारी ने ‘जातियों का राजनीतिकरण’ कहा है, जिसे दक्षिणपंथी-उदारवादी राजनीति ने ‘राजनीति का जातिकरण’ बोलकर खारिज करने पुरजोर प्रयास किया।
मेहता ये भूल जाते हैं, बिहार में पिछड़ी और दलित जातियों ने रणवीर सेना के खिलाफ प्रतिरोध खड़ा किया। बहुजनों की लड़ाई मुसलमान से नहीं थी। लालू यादव के शासन में जातियों ने प्रतिरोध उच्च जाति के अंतहीन शोषण के खिलाफ खड़ा किया और बहुजन मुस्लिम संघर्ष तो हुआ ही नहीं उस दौर में और साम्प्रदायिक राजनीति को विराम लग गया। 1990 के दशक में शुरू हुई राजनीति को इसी वजह से फेसर @_YogendraYadav ने Second Democratic Surge कहा है। मेहता बिना किसी आधार के जाति जनगणना से बहुसंख्यकवाद का डर दिखा रहे हैं।”
इसी प्रकार, संदीप मनुधाने लिखते हैं, “पी बी मेहता एक अनुभवी व्यक्ति हैं, जो जटिल भाषा का उपयोग करते हुए उदारवादी बातचीत पर आसानी से हावी होने की कला में पारंगत हैं। उन्होंने 2011-14 के दौर में हम सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया था, और मोदी को मजबूती से मंच प्रदान किया था। अब ऐसा नहीं है।
लेकिन मैं समझाता हूं कि वह कैसे समझाएंगे कि जाति जनगणना एक अच्छा विचार क्यों नहीं है – यहां बताया गया है –
“आर्थिक आयामों के सहस्राब्दियों में फैले सामाजिक द्वंद्वों के साथ ऐतिहासिक सत्यों का त्रिकोणीकरण अब भारतीय समाज में निहित हस्तक्षेपों के उन्मूलन से पैदा हुई संरचनात्मक असंगतियों की निरंतर निगरानी के लिए नए सिरे से आह्वान के रूप में प्रकट हो रहा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि तथाकथित हाशिए पर पड़े लोगों को सुधारने के लिए राज्य द्वारा मजबूर किया गया हस्तक्षेप या तो व्यवहार्य होगा, या संभव होगा, या यहां तक कि उचित भी होगा, क्योंकि इससे पैदा होने वाली नई दरारें मोदी के नए भारत की राजनीतिक मानक वास्तविकताओं के गैर-समतावादी चतुर्भुज के समतावादी परित्याग के चल रहे प्रवचन को गहराई से असहज कर देंगी।”
यह तो सिर्फ एक वाक्य था।”
यह लिखते हुए संदीप मनुधाने असल में प्रताप भानु मेहता जैसे बुद्धिजीवियों पर कटाक्ष कर रहे हैं, जिनके पास समाज को देने के नाम पर सिर्फ ऐसे जुमले हैं, जिनके बीच वह सिर्फ उलझ ही सकता है। प्रताप भानु मेहता ने अपने इस लेख को ट्वीट भी किया है, जिस पर एक पूर्व नौकरशाह राहुल सिंह ने लिखा है, “श्री मेहता, राहुल गांधी (आरजी) आंद्रे बेतेली या योगेंद्र सिंह या यहां तक कि उदारवादी एमएन श्रीनिवास जैसे जाति समाजशास्त्री नहीं हैं। वह मोदी से लड़ने वाले राजनेता पप्पू हैं, स्वयंभू फ़कीर जो परमात्मा से वास्तविक समय में मार्गदर्शन का दावा करते हैं।
बौद्धिक ईमानदारी के लिए आरजी को क्यों आंका जाना चाहिए? ओबीसी और दलितों का घालमेल! क्यों नहीं? सांप्रदायिक गोलबंदी के महाजाल से निपटने के लिए वह और क्या कर सकता है। वह मंदिर मस्जिद, मछली, मटन, मुजरा और मंगलसूत्र के राजनीतिक विमर्श को शिव की बारात, डरो मत डरो मत, चक्रव्यूह और एब्स शानदार पद्मव्यूह से जोड़ रहा है! पप्पू से एक विचारक के रूप में आरजी का रूपांतरण, जो हिंदू मिथकों, प्रतीकों और दर्शन का चतुराई से उपयोग कर भाजपा की एकरूपता, भय मनोविकृति और बहुलता, निर्भयता और सांप्रदायिक सद्भाव के साथ हिंदू धर्म के विरोधी चित्रण को मात देने की कोशिश कर रहा है, इसकी सराहना की जानी चाहिए, न कि इस पर नाराजगी जताई जानी चाहिए।”
मुख्य बात तो यह है कि इतनी चोट खाया देश अब आसानी से किसी भी राजनेता या बुद्धिजीवी को बक्शने वाला नहीं है। यह उसे बार-बार के धोखे और झूठे वादों, कथनी और करनी में इस हद तक देखने को मिल रहा है कि स्कूल में प्रवेश से लेकर, प्रतियोगी परीक्षाओं की हकीकत और अपेक्षित रोजगार की आस छोड़ चुके करोड़ों लोगों को देखते हुए, वह साफ़-साफ़ देख पा रहा है कि शब्दों के वास्तविक अर्थ कितने खोखले हो चुके हैं। टीवी या अख़बार की दुनिया के शीर्ष पर बैठकर ज्ञान की गंगा बहाने वाले प्रताप भानु मेहताओं के लिए यह खतरे की घंटी है, क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था और शासन तंत्र उस मोड़ पर खड़ा है कि उसके पास दिखावे के लिए भी गुंजाईश नहीं बची है। ऐसे में यदि कोई व्यवस्था के बचाव में आगे आता है तो वह भी आम लोगों की निगाह से उतर जायेगा।