गिरफ्तारी के बाद हेमंत सोरेन ने जिस सोच-समझ के साथ चंपाई सोरेन को सत्ता सौंपी वह उनकी दो समझदारी पर आधारित थी यानी दो राजनीतिक खतरों से मुक्ति का संकेत था। पहला परिवारवाद के आरोप से बचाव और दूसरा राज्य स्तर पर और जेएमएम में चंपाई सोरेन का कोई भी ऐसा प्रभाव नहीं था जिससे हेमंत के लिए भविष्य में कोई खतरा पैदा करता यानी चंपाई तमाम विधायकों में सबसे कमज़ोर नजर आए।
लेकिन विधानसभा चुनाव से पहले चंपाई सोरेन ने जिस तरह सोशल मीडिया पर अपना दर्द बयां किया है वह झारखंड की सियासी तपिश को बढ़ा दिया है और राजनीतिक हलकों में चर्चा का बाजार गर्म है कि चंपाई सोरेन भाजपा की गोद में बैठ सकते हैं जिसका लाभ भाजपा को आगामी विधानसभा चुनाव में मिल सकता है।
प्रदेश भाजपा के लोग अच्छी तरह जान रहे हैं कि चंपाई सोरेन से भाजपा को कोई विशेष लाभ नहीं होने वाला है, बस इतना होगा कि भाजपा प्रोपेगेंडा फैलाकर झामुमो को कुछ नुकसान पहुंचा सकती है, जबकि इसकी भी संभावना कम है। अगर चंपाई भाजपा में जाते हैं तो इतना जरूर होगा कि इसका लाभ चंपाई सोरेन को ही होगा।
चंपाई झारखंड के कोल्हान क्षेत्र से आते हैं जहां आदिवासी समुदाय के मुंडा और हो का वर्चस्व है और इन समुदाय पर भाजपा की अच्छी पकड़ है। वहीं इस क्षेत्र में संथाल समुदाय का कोई विशेष संख्याबल नहीं है। चंपाई संथाल आदिवासी हैं। इनका कोल्हान से बाहर पहचान तक का संकट है। झारखंड में इनकी पहचान मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद से हुई है। इसके पहले स्थानीय मीडिया को छोड़कर राज्य मीडिया के बीच भी इनकी कोई पहचान नहीं थी। आज राज्य मीडिया तो क्या राष्ट्रीय मीडिया भी इनके दर्द का ऐसे बखान कर रही है गोया ये जेएमएम की नींव की ईंट थे और इन्हें निकाल बाहर किया गया है जिससे कभी भी जेएमएम भरभराकर गिर सकती है।
बता दें कि चंपाई सोरेन सिर्फ 153 दिनों तक मुख्यमंत्री पद पर रहे। यानी पांच महीने दो दिनों का इनका कार्यकाल रहा। इन्होंने 3 जुलाई 2024 को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। हालांकि राज्य में इससे पहले भी बहुमत साबित होने की स्थिति में शिबू सोरेन को अपने पद से त्यागपत्र दे देना पड़ा था। वहीं देश भर के विभिन्न राज्यों के सीएम का कार्यकाल भी कुछ घंटों का रहा है।
संथाल समुदाय से आए आदिवासी नेता की बात करें तो शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी, हेमंत सोरेन राज्य ही नहीं राष्ट्रीय स्तर के नेता जबकि चंपाई सोरेन कहीं नहीं हैं। कोल्हान (तीन जिला- पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम और सरायकेला) में विधानसभा की 14 सीटों में 9 आदिवासियों के लिए, एक अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है वहीं चार सीटें बहरागोड़ा, पूर्वी जमशेदपुर, पश्चिमी जमशेदपुर और ईचागढ़ सामान्य वर्ग के लिए हैं। 13 सीटों पर इंडिया गठबंधन का कब्जा वहीं एक निर्दलीय के पाले में है यानी भाजपा को पिछले 2019 विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र में कोई सफलता नहीं मिली थी।
चंपई पिछली बार 2019 में भाजपा के उम्मीदवार से बहुत कम वोटों से जीते थे। बीजेपी कैंडिडेट होंगे तो जीत आसान हो सकती है। सरायकेला में आदित्यपुर शहर बीजेपी का गढ़ है, बावजूद 2019 में उसे शिकस्त मिली। शायद इसी राजनीतिक गणित के भरोसे चंपाई ने X पर अपना दुखड़ा बयान किया है जिसे लेकर भाजपा समर्थक हाय तौबा मचाए हुए हैं और मीडिया भी इनके राग से राग मिला रही है।
अब जरा एक नजर चंपाई सोरेन की आंतरिक पीड़ा पर जिसे उन्होंने सोशल मीडिया X पर व्यक्त किया है:
जोहार साथियों,
आज समाचार देखने के बाद आप सभी के मन में कई सवाल उमड़ रहे होंगे। आखिर ऐसा क्या हुआ? जिसने कोल्हान के एक छोटे से गांव में रहने वाले एक गरीब किसान के बेटे को इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया। अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत में औद्योगिक घरानों के खिलाफ मजदूरों की आवाज उठाने से लेकर झारखंड आंदोलन तक, मैंने हमेशा जन-सरोकार की राजनीति की है।
राज्य के आदिवासियों, मूलवासियों, गरीबों, मजदूरों, छात्रों एवं पिछड़े तबके के लोगों को उनका अधिकार दिलवाने का प्रयास करता रहा हूं। किसी भी पद पर रहा अथवा नहीं, लेकिन हर पल जनता के लिए उपलब्ध रहा। उन लोगों के मुद्दे उठाता रहा, जिन्होंने झारखंड राज्य के साथ अपने बेहतर भविष्य के सपने देखे थे।
इसी बीच 31 जनवरी को एक अभूतपूर्व घटनाक्रम के बाद इंडिया गठबंधन ने मुझे झारखंड के 12वें मुख्यमंत्री के तौर पर राज्य की सेवा करने के लिए चुना। अपने कार्यकाल के पहले दिन से लेकर आखिरी दिन (3 जुलाई) तक मैंने पूरी निष्ठा एवं समर्पण के साथ राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया। इस दौरान हमने जनहित में कई फैसले लिए और हमेशा की तरह हर किसी के लिए सदैव उपलब्ध रहा. बड़े-बुजुर्गों, महिलाओं, युवाओं, छात्रों एवं समाज के हर तबके तथा राज्य के हर व्यक्ति को ध्यान में रखते हुए हमने जो निर्णय लिए, उसका मूल्यांकन राज्य की जनता करेगी।
जब सत्ता मिली, तब बाबा तिलका मांझी, भगवान बिरसा मुंडा और सिदो-कान्हू जैसे वीरों को नमन कर राज्य की सेवा करने का संकल्प लिया था। झारखंड का बच्चा-बच्चा जनता है कि अपने कार्यकाल के दौरान मैंने कभी भी किसी के साथ ना गलत किया, ना होने दिया।
इसी बीच हूल दिवस के अगले दिन मुझे पता चला कि अगले दो दिनों के मेरे सभी कार्यक्रमों को पार्टी नेतृत्व द्वारा स्थगित करवा दिया गया है। इसमें एक सार्वजनिक कार्यक्रम दुमका में था, जबकि दूसरा कार्यक्रम पीजीटी शिक्षकों को नियुक्ति पत्र वितरण करने का था। पूछने पर पता चला कि गठबंधन द्वारा 3 जुलाई को विधायक दल की एक बैठक बुलाई गई है, तब तक आप सीएम के तौर पर किसी कार्यक्रम में नहीं जा सकते।
क्या लोकतंत्र में इस से अपमानजनक कुछ हो सकता है कि एक मुख्यमंत्री के कार्यक्रमों को कोई अन्य व्यक्ति रद्द करवा दे? अपमान का यह कड़वा घूंट पीने के बावजूद मैंने कहा कि नियुक्ति पत्र वितरण सुबह है, जबकि दोपहर में विधायक दल की बैठक होगी, तो वहां से होते हुए मैं उसमें शामिल हो जाऊंगा। लेकिन उधर से साफ इंकार कर दिया गया।
पिछले चार दशकों के अपने बेदाग राजनैतिक सफर में मैं पहली बार भीतर से टूट गया। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं। दो दिन तक चुपचाप बैठ कर आत्म-मंथन करता रहा। पूरे घटनाक्रम में अपनी गलती तलाशता रहा. सत्ता का लोभ रत्ती भर भी नहीं था, लेकिन आत्म-सम्मान पर लगी इस चोट को मैं किसे दिखाता? अपनों द्वारा दिए गए दर्द को कहां जाहिर करता?
जब वर्षों से पार्टी की केन्द्रीय कार्यकारिणी की बैठक नहीं हो रही है और एकतरफा आदेश पारित किए जाते हैं, तो फिर किसके पास जाकर अपनी तकलीफ बताता? इस पार्टी में मेरी गिनती वरिष्ठ सदस्यों में होती है, बाकी लोग जूनियर हैं और मुझ से सीनियर सुप्रीमो जो हैं, वे अब स्वास्थ्य की वजह से राजनीति में सक्रिय नहीं हैं, फिर मेरे पास क्या विकल्प था? अगर वे सक्रिय होते, तो शायद अलग हालात होते।
कहने को तो विधायक दल की बैठक बुलाने का अधिकार मुख्यमंत्री का होता है, लेकिन मुझे बैठक का एजेंडा तक नहीं बताया गया था। बैठक के दौरान मुझसे इस्तीफा मांगा गया। मैं आश्चर्यचकित था, लेकिन मुझे सत्ता का मोह नहीं था, इसलिए मैंने तुरंत इस्तीफा दे दिया, लेकिन आत्म-सम्मान पर लगी चोट से दिल भावुक था।
पिछले तीन दिनों से हो रहे अपमानजनक व्यवहार से भावुक होकर मैं आंसुओं को संभालने में लगा था, लेकिन उन्हें सिर्फ कुर्सी से मतलब था। मुझे ऐसा लगा, मानो उस पार्टी में मेरा कोई वजूद ही नहीं है। कोई अस्तित्व ही नहीं है. जिस पार्टी के लिए हमने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। इस बीच कई ऐसी अपमानजनक घटनाएं हुईं, जिसका जिक्र फिलहाल नहीं करना चाहता. इतने अपमान एवं तिरस्कार के बाद मैं वैकल्पिक राह तलाशने के लिए मजबूर हो गया।
मैंने भारी मन से विधायक दल की उसी बैठक में कहा कि “आज से मेरे जीवन का नया अध्याय शुरू होने जा रहा है ” इसमें मेरे पास तीन विकल्प थे। पहला, राजनीति से संन्यास लेना, दूसरा, अपना अलग संगठन खड़ा करना और तीसरा, इस राह में अगर कोई साथी मिले, तो उसके साथ आगे का सफर तय करना। उस दिन से लेकर आज तक तथा आगामी झारखंड विधानसभा चुनावों तक इस सफर में मेरे लिए सभी विकल्प खुले हुए हैं।
(विशद कुमार की रिपोर्ट)