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चंडीगढ़ मेयर चुनाव!‘खूबसूरत शहर पर लोकतंत्र कमजोर करने का बदनुमा दाग’’!

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राजीव खंडेलवाल


राजनीति निसंदेह ‘‘क्रिया’’ (कार्रवाई एक्शन) की बजाए ‘‘धारणा‘‘ (परसेप्शन) और ‘‘नरेटिव‘‘ से परिपूर्ण है। और इस मामले में तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। इसी ‘‘परसेप्श्न व नरेटिव’’ के सहारे प्रधानमंत्री ‘‘अबकी बार 400 के पार’’ का आत्मविश्वास से भरा कथन संसद में कर रहे थे। वर्तमान परिस्थितियां को देखते हुए इस दावे से एकदम से इंकार भी तो नहीं किया जा सकता है? ‘‘कर्ता से करतार हारे’’।

लोकतंत्र को तार-तार कर देने वाली चंडीगढ़ मेयर के चुनावी प्रक्रिया का मामला पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय से आवश्यक सहायता न मिलने पर उच्चतम न्यायालय पहुंचा। सुनवाई के दौरान प्रथमदृष्ट्यिा ‘‘वीडियो’’ क्लिक देखने के बाद माननीय मुख्य न्यायाधीश की यह बेहद तल्ख टिप्पणीयाॅ थी कि ‘‘यह जनतंत्र की हत्या है’’। ‘‘लोकतंत्र मजाक है’’। ‘‘पूरे मामले से हम हैरान है। ‘‘चुनाव अधिकारी क्या कर रहे है? ‘‘चुनाव अधिकारी पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए’’। उक्त टिप्पणियों ने तो देश के लोकतंत्र की जड़ों को ही हिला दिया। एक बार तो ऐसा लगा कि ‘‘देश में लोकतंत्र तख़्त पर नहीं तख़्ते पर है’’। उच्च न्यायालय की इस बात के लिए भी आलोचना की गई कि ऐसे मामले में ‘‘अंतरिम आदेश’’ क्यों नहीं दिया गया? उक्त तल्ख टिप्पणी के बावजूद आश्चर्य की बात यह रही कि स्वयं उच्चतम न्यायालय ने याचिकाकर्ता कुलदीप कुमार टीटा जिसे मेयर चुनाव में तथाकथित गड़बड़ी कर हराया गया था, के पक्ष में कोई अंतरिम आदेश नहीं दिया गया। न तो प्रथम दृष्ट्या दिखते ‘‘शून्य’’ चुनाव परिणाम पर रोक लगाई, जिससे की अवैध रूप से निर्वाचित अध्यक्ष को कार्य करने से रोका जा सकता था और न ही लोकतंत्र का गला घोटने वाले अधिकारी के विरूद्ध प्राथमिकी दर्ज करने के अथवा तत्काल जांच के आदेश दिये। मतदान को एक साजिश के तहत विकृत किया गया हैं, यह अभी अनुत्तरित हैै।
हाईकोर्ट ने जहां तीन हफ्ते बाद सुनवाई के लिए प्रकरण रखा, वहीं उच्चतम न्यायालय ने दो हफ्ते बाद 19 फरवरी सुनवाई निश्चित की। तत्काल कोई राहत उच्चतम न्यायालय से याचिकाकर्ता को नहीं मिली, सिवाए चुनाव प्रक्रिया के पूरे रिकॉर्ड को संरक्षित करने के साथ निर्वाचन अधिकारी को व्यक्तिगत उपस्थिति के निर्देश दिये गये। इससे इस बात को पूरा बल मिलता है कि, उच्चतम न्यायालय ने यह (परसेप्श्पन) तो पूरा बनाया कि वह लोकतंत्र का प्रहरी है और संविधान में प्रद्रत्त, वर्णित निष्पक्ष व न्यायप्रिय चुनाव आयोग के अपने कर्तव्य के पालन में असफल होने पर वह सबसे बड़ा अभिरक्षक (कस्टोडियन) है। परन्तु क्या वास्तव में ऐसा ‘‘परिणाम’’ फलितार्थ हुआ? ऐसे कुछ अन्य ऐसे मामले को आगे उद्धरित किया गया है।
महाराष्ट्र के मामलों को देख लीजिए! जहां उच्चतम न्यायालय ने शिवसेना की टूट पर विधानसभा अध्यक्ष एवं चुनाव आयोग द्वारा की गई कार्रवाई पर यह कहा था, उद्धव ठाकरे इस्तीफा न देकर यदि विश्वास मत हासिल करते हुए हार जाते, तब उच्चतम न्यायालय उनको मुख्यमंत्री पद पर पुनर्स्थापित कर सकता था। यह न्यायालय का न्याय के प्रति क्या मात्र परसेप्श्न था? क्योकि अंत में जो निर्णय आया वास्तव में उसमें क्या हुआ? ‘‘काजी के प्यादे घोड़ों पर सवार हो गये’’। स्पीकर के निर्णय ने यह स्थिति ला दी कि समस्त विधायक शिंदे ग्रुप के ही हो गये और अब विधानसभा में शिंदे ग्रुप के व्हिप का विरोध करना सदस्यता खोने के खतरे से खाली नहीं होगा। इसी प्रकार इलेक्ट्रोल बाॅड के विषय में उच्चतम न्यायालय का निर्णय महीनों से आदेशार्थ बंद है। आगामी होने वाले लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ होने अथवा चुनाव होने के बाद निर्णय आयेगा, तब क्या याचिका का उद्देश्य ही व्यर्थ नहीं हो जाएगा?
उच्चतम न्यायालय की चंडीगढ़ महापौर के मामले में दो प्रमुख गलती स्पष्ट रूप से प्रतीत होती दिखती है। प्रथम वीडियो के आधार पर उपरोक्त रिर्माक किये गये, जिस वीडियो की पुष्टि कोई ‘‘फोंरेसिक जांच’’ किये बिना उस पर विश्वास कर तथा उसका साक्ष्यात्मक मूल्य कितना होगा, उस पर विचार किये बिना ‘मत’ बना लेना, कितना न्यायोचित है? दूसरा उच्चतम न्यायालय ने तल्ख व तीखे तेवर दिखाकर वही स्टैंड लिया जो उच्च न्यायालय ने शांतिपूर्वक रहकर यह कहकर लिखा कि यह जांच का विषय है, इसलिए दूसरे पक्ष का जवाब आने पर ही इस पर कोई आदेश पारित किया जा सकता है। इससे उच्च न्यायालय की तुलनात्मक रूप से गरिमा ज्यादा दिखती प्रतीत है, भले ही कानूनी रूप से उनका स्टैंड सही नहीं कहा जा सकता है। परन्तु उन्हे भी ‘‘सही’’ करने का काम तो उच्चतम न्यायालय ने नहीं किया। ऐसा लगता है, उच्चतम न्यायालय के मन-मस्तिष्क में वह ‘‘सर्वोच्च’’ के साथ श्रेष्ठतम है, ‘‘भाव’’ के साथ परिस्थितियों, तथ्यों पर कई बार गहराई पर जाये बिना ऐसी त्वरित टिप्पणियां व आदेश पारित कर दी जाती है, जो सामान्यतः कानूनविदों के गले उतरती नहीं है।
शुरू से ही देखे, मेयर के चुनाव में प्रशासन ने रुकावटें डाली व गंभीर अनेतिकता का प्रदर्शन किया। सामान्यतः 1 जनवरी को मेयर पद ग्रहण कर लेता है। यहां पर संख्या की दृष्टि से भाजपा व अकाली दल के 16 पार्षद (14+1+1) सांसद प्रतिनिधि सहित थे। जबकि आप व कांग्रेस पार्टी में गठबंधन हो जाने के कारण कुल 20 पार्षद हो गये थे। पहली बार जब 10 जनवरी को मेयर चुनाव की तारीख 18 जनवरी घोषित हुई थी, तब तक आप व कांग्रेस का गठबंधन नहीं हुआ था। बल्कि कांग्रेस के उम्मीदवार ने भी पर्चा भरा था। बाद में जब कांग्रेस उम्मीदवार को फार्म वापिस लेने के लिए वह कार्यालय न पहुंच सके उसके लिए घर में ही उसे नजरबंद कर दिया गया था। उच्च न्यायालय के समक्ष बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर होने पर उनकी मुक्ति हुई। परन्तु 18 जनवरी की चुनावी तिथि के पूर्व ही 16 तारीख को गठबंधन हो गया। पीठासीन अधिकारी (चुनाव अधिकारी) चुनावी तिथि के दिन तथाकथित रूप से बीमार हो गये। तद्नुसार सहायक आयुक्त (डीसी) ने चुनाव की नई तारीख 06 फरवरी निश्चित की। ‘‘कमली ओढ़ लेने से कोई फ़कीर नहीं बन जाता’’, चुनाव अधिकारी भी उस व्यक्ति मनोनीत पार्षद अनिल मसीह को बनाया गया जो भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा का पदाधिकारी रहा है, यह भी बेहद हैरत की बात हैं। 06 फरवरी को निश्चित की गई चुनावी तारीख को गठबंध्ंान के उम्मीदवार कुलदीप कुमार टीटा ने हाईकोर्टं में चुनौती दी। तब पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने 23 तारीख को अंतरिम आदेश पारित करते हुए 30 जनवरी को चुनाव कराने के आदेश इस निर्देश के साथ दिये कि ‘‘पूरी चुनावी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी की जावे। तदनुसार हुए चुनाव में चुनाव अधिकारी द्वारा 8 वोट अवैध घोषित किये गये, जिसके लिए जरूरी कानूनी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई। विपरित इसके उन वैध मतों को तथाकथित रूप से अवैध करने की प्रक्रिया करते स्वयं चुनाव अधिकारी ‘‘कैमरे‘‘ में पकड़े गये, जो वीडियो उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत की गई। चुनाव परिणाम घोषित करते ही पीठासीन अधिकारी द्वारा तथाकथित जीते गए उम्मीदवार मनोज कुमार सोनकर को तुरत बुलाकर महामहिम की कुर्सी पर बैठा दिया।
एक तरफ देश में ‘‘ईवीएम’’ के बदले ‘‘बैलेट पेपर’’ पर चुनाव होने की मांग लगातार उठ रही है। इस पर प्रबुद्ध वर्ग का असंतोष व जन आंदोलन बढ़ते जा रहा है। इन जन आंदोलनकारियों को यह सोचना होगा कि इस तरह दिन दहाडे बैलेट पेपर पर किस बेशर्मी के साथ डाका डाला जा सकता है, जिससे बैलेट से चुनाव कराना कितना खतरनाक है, और हो सकता है? कभी बैलेट चुनाव के समय इतनी भयावह स्थिति होती थी कि मत पेटियां ही गायब कर दी जाती थी। इसीलिए तो ईवीएम को लाया गया था। हां उसमें कमियां जरूर व अनेक है, उनमें सुधारों का सुझाव जरूर कुछ लोगो ने दिया है। महत्वपूर्ण सुझाव ‘‘वीवीपैड’’ की गिनती की जाने की हैं। तब न तो बैलेट पेपर में गड़बड़ी होने की संभावनाएं रहेगी और साथ ही ईवीएम में ‘चिप’ के द्वारा गड़बड़ी की जाने की तथाकथित आशंका को वीवीपैड की गिनती करके दूर किया जा सकेगा। मेयर चुनाव परिणाम आने के तत्काल बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा द्वारा ट्वीट पर बधाई देते हुए उन्होंने कहा मेयर चुनाव जीतने के लिए भाजपा चंडीगढ़ इकाई को बधाई। भाजपा के ट्विटर हैंडल पर कहा गया ‘‘यह तो अभी झांकी है’’। क्या ये प्रतिक्रियाएँ जल्दबाजी में हुई गलती तो नहीं है?
राजीव खंडेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व सुधार न्यास अध्यक्ष है)

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