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चंद्रभूषण की ‘प्रलय का प्रतिपक्ष’: धरती की अंतर्निभरता

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पुस्तक समीक्षा:डॉ. गोपाल प्रधान

चंद्रभूषण की ‘प्रलय का प्रतिपक्ष’ 2024 में कौटिल्य बुक्स से छपी है। इसका उप-शीर्षक ‘पशु-पक्षी, कीट-पतंगे और ग्लोबल वार्मिंग’ है। लगभग डेढ़ सौ पृष्ठों की इस किताब की कीमत 260 रुपये है। इस किताब में चंद्रभूषण की समय-समय पर पर्यावरण के सवाल पर लिखी टिप्पणियों को एकत्र कर दिया गया है। इन टिप्पणियों को पांच खंडों में बांटा गया है। खंड-1 का शीर्षक ‘चिड़ियां और जानवर: सफर के साथी’ है। खंड-2 का शीर्षक ‘कीट-पतंगे: प्रकृति के सबसे प्यारे बच्चे’ है। खंड-3 का शीर्षक ‘धरती पर आदमी की जगह’ है। खंड-4 का शीर्षक ‘हैरान करते कुछ किस्से’ है। खंड-5 का शीर्षक ‘क्या हो पाएगा धरती का इलाज?’ है।

इस किताब को हिंदी पढ़ने वाले प्रत्येक बच्चे के हाथ में जरूर जाना चाहिए। इस पुस्तक का अघोषित लक्ष्य इसी नयी पीढ़ी को पर्यावरण के बारे में संवेदनशील बनाना है। इसके शीर्षक का परोक्ष तात्पर्य भी यही है। यदि हम मनुष्यों की करनी से प्रलय आ रहा है तो उसका प्रतिपक्ष बनाना भी हमारी ही जिम्मेदारी है। हमारे समय की यही सबसे भारी विडम्बना है। हिंदी में इतनी बेहतरीन किताबें होने के बावजूद उन्हें नयी पीढ़ी भाषा की वजह से नहीं पढ़ेगी। नयी पीढ़ी के सवर्ण विद्यार्थी की भाषा अब हिंदी नहीं रह गयी है और जिन विद्यार्थियों की भाषा हिंदी है उन तक ऐसी किताबों की पहुंच ही नहीं बन पा रही है।

एक खबर पिछले दिनों सबने पढ़ी कि राजस्थान में तीस पहाड़ गायब हो गये हैं। इसका सीधा रिश्ता शहरों में इमारतों के भीतर लगने वाले संगमरमर और टाइलों से है जिनकी आपूर्ति के लिए बहुत बड़े पैमाने पर अवैध खनन का उद्योग रात दिन सक्रिय है और इसे प्रशासनिक तथा राजनीतिक संरक्षण भी मिलता है। पर्यावरण के ऐसे विध्वंस को दुरुस्त करने के नाम पर अधिकांश लेखन में और लोकप्रिय स्तर पर भी जिस कदर नागरिकों को अपराध बोध से भर दिया जाता है उसके मुकाबले चंद्रभूषण ने सरकारों की जिम्मेदारी पर वाजिब जोर दिया है। इस खतरे को समाप्त करने के मामले में उन्होंने सहज बोध में व्याप्त निराशा की जगह ऐसी तकनीकों की जानकारी दी है जिनके सहारे इसे पलटा जा सकता है। किताब का एक और हासिल मौसम के हाल के बेहद विचित्र बदलावों के पीछे कार्यरत प्रक्रियाओं की निशानदेही है। इस सिलसिले में सचमुच पूरी धरती आपस में मजबूती से जुड़ी नजर आती है। लेखक के अनुसार अंटार्कटिक में बर्फ की चट्टानों के पिघलने से हमारे देश भारत में सितम्बर माह में होने वाली बारिश का रिश्ता है। न केवल इतना बल्कि समुद्र का जल स्तर बढ़ने से उसके तट पर रहने वालों पर आफत टूटेगी।

इस आसन्न खतरे को लेखक ने दूर देश मारीशस के तट पर पानी के जहाज से तेल रिसने के कारण होने वाली तबाही के जरिये स्पष्ट तो किया ही है, यह संकेत भी कर दिया है कि हमारे देश की वित्तीय राजधानी का बहुतेरा इलाका समुद्र से निकाला गया है। यह तो कहने की कोई जरूरत ही नहीं है कि धरती के साथ समुद्र भी जुड़ा है। समुद्र के साथ धरती का यह संबंध केवल समग्र मौसम के संतुलन का नहीं है। उससे धरती के निवासियों को भोज्य सामग्री तो मिलती ही है धरती पर उगने वाली फसलों के लायक मौसम बनाये रखने में भी उसका निर्णायक योगदान होता है। इस नाते वह खुद एक स्वतंत्र विषय है। शायद इसी वजह से लेखक ने उसकी भी विस्तृत छानबीन की है। समुद्र के तापमान में वृद्धि से उसका जल स्तर तो बढ़ेगा ही, तमाम जलीय जीवों का जीवन भी दुश्वार हो जायेगा। समुद्र के साथ मनुष्य की छेड़छाड़ का एक कारण उसके तल पर ऐसी वस्तुओं की मौजूदगी है जिनकी जरूरत मनुष्य को आ पड़ी है।

ईमानदारी से उन्होंने कुछ जटिल प्रक्रियाओं के बारे में ठोस जानकारी न होने का तथ्य स्वीकार किया है। किताब पर कोरोना के दौरान हुए बदलावों की छाया है। इसके प्रसंग में ही लेखक ने एक ऐसी लगभग अविश्वसनीय जानकारी दी है जिसके परिणाम बहुत दूरगामी होंगे। उनका कहना है कि पृथ्वी पर प्राकृतिक रूप से मौजूद सभी वस्तुओं के वजन से मनुष्य द्वारा बनायी वस्तुओं का वजन अधिक हो गया है। इससे प्रकृति में मनुष्य के हस्तक्षेप की सीमा का पता चलता है।

मानव निर्मित वस्तुओं की इस बाढ़ ने पृथ्वी के जीवन में नये युग को ही जन्म दिया है जिसे वैज्ञानिक समूहों में एंथ्रोपोसीन की संज्ञा दी गयी है। इसका सीधा अर्थ यह है कि प्रकृति में होने वाले बदलाव अब किन्हीं प्राकृतिक कारणों से नहीं हो रहे। इन बदलावों का मुख्य कारण मानव हस्तक्षेप हो गया है। प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं में पेड़ सबसे अधिक हैं लेकिन उनकी तादाद लगातार कम होती जा रही है। उन्होंने पेड़ों के कटने की जो रफ़्तार बतायी है वह मनुष्य की आत्मघाती विध्वंसकता का सबूत देने के लिए काफी है।

पेड़ कटने से चिड़ियों का बसेरा उजड़ जाता है। इसी संदर्भ में लेखक ने वाणभट्ट की कादम्बरी के बोलते तोते के मुख से जंगल में प्रविष्ट शिकारियों के दिल दहला देने वाले शोर का वर्णन दर्ज करने के बाद ही सवाल उठाया है कि कहीं वे शिकारी आज के मनुष्य ही तो नहीं हैं। जब लेखक ने अपने घर के ही पास पेड़ लगाये तो उन पर चिड़ियों की आमद शुरू हुई। कहने की जरूरत नहीं कि चिड़ियों के साथ बीज भी इधर से उधर आते जाते हैं।

लेखक ने बीजों के साथ कीट का रिश्ता स्पष्ट करने के बाद कीटनाशकों के व्यापक इस्तेमाल पर चिंता जाहिर की है। कीड़ों के खात्मे से बीजों के भी विलोप का खतरा पैदा हो गया है। इसी सिलसिले में लेखक ने अमेरिका में मधुमक्खियों की कमी के साथ अखरोट की पैदावार में कमी का हवाला दिया है। हमारी वर्तमान जीवन शैली ने धरती के बुनियादी ढांचे को असुधार्य नुकसान पहुंचाया है। इसका एक और सबूत मोबाइल टावरों का निर्माण है जिनकी तरंगों का प्रभाव अनेकानेक फसलों पर नजर आ रहा है लेकिन इस तथ्य से मौजूदा नाशकारी विकास का लाभ उठाने वाले इनकार करते हैं ।

इसकी एक और विशेषता दूर से किये गये ठंडे विश्लेषण की जगह वर्णनों में निजी स्पर्श है। लेखक, उनकी पत्नी और बच्चा भी इन निजी टिप्पणियों में बेहिचक चले आते हैं। उदाहरण के लिए पशुओं के जिक्र के समय वे इनकी मौजूदगी सार्वजनिक जीवन में घटते जाने के साथ घरों में उनको पालने के नये चलन का भी जिक्र किया है। इसी प्रसंग में वे बताते हैं कि अवसाद की स्थिति में मनोचिकित्सक कुत्ता या बिल्ली पालने की सलाह देते हैं। इसके जरिये वे यह भी कहने की कोशिश करते हैं कि इन जीवों का सख्य-साहचर्य मनुष्य के स्वस्थ मानसिक जीवन के लिए आवश्यक है।

इन जीवों के प्रसंग पहले खंड में अधिक आये हैं। इनमें लेखक के घर आ पहुंचे एक बिलौटे के सहारे हमारे लिए बिल्लियों में अपने खास इलाके की रक्षा के लिए हिंसक लड़ाई के दर्शन होते हैं जिसमें बचपन में ही माता से बिछुड़े इस प्राणी को अन्य प्राणियों से आत्मरक्षा के उपाय न सीख पाने से भारी नुकसान उठाना पड़ता है। इसी तरह का अति सजीव बिम्बात्मक चित्रण एक बछड़े का है जो रात को ही घूमता है। यह प्रवृत्ति केवल उसी बछड़े की नहीं है बल्कि बिजली की रोशनी लगातार रहने से अधिकांश प्राणियों का यौन व्यवहार असंतुलित हो गया है।

जिस दिशा में हमने कदम आगे बढ़ाया उसने समस्या को हल करने के नाम पर और भी बड़ी समस्या पैदा कर दी। इसका सबूत पेश करते हुए लेखक ने यूरोपीय देशों में परिवहन के लिए इस्तेमाल होने वाले वाहनों में नाथे जाने वाले घोड़ों की लीद की समस्या का जिक्र किया है जिससे उत्पन्न समस्या को हल करने हेतु जो उपाय किया गया उसने इतना कार्बन पैदा किया कि वायुमंडल से उसे निकालना ही भारी समस्या बन गया है। बर्फ के पिघलाव ने इस समस्या को और भी गम्भीर बना दिया है क्योंकि वर्फ की शक्ल में अधिकांश कार्बन डाइऑक्साइड जमी रहती है।

दूर देशों की बात से पाठक को निश्चिंतता हो सकती है कि ये बदलाव अभी हमारे सिर पर नहीं आये हैं। इस भ्रम को खंडित करते हुए लेखक ने हिमालय के साथ होने वाली छेड़छाड़ के नतीजों को भी दर्ज किया है। उत्तराखंड की हालिया आपदाओं के जिक्र भर से इसे समझा जा सकता है। पर्वताकार बर्फ की शिला के टूटकर गिरने से उत्पन्न गरमी ने उसे पिघला दिया और उससे उत्पन्न पानी ने बड़े पैमाने पर कहर ढाया। और तो और लेखक ने इसी प्रसंग में माउंट एवरेस्ट पर जाम लग जाने और उसके कारण दो पर्वतारोहियों के मर जाने की घटना का जो ब्योरा पेश किया है वह खासा डरावना है।

हमने पहले ही कहा कि लेखक ने निराश करने की जगह आशा पैदा करने वाली पहलों को रेखांकित करने का रास्ता चुना है। एक और बेहतर बात इस सिलसिले में युवा समुदाय में आयी व्यापक सजगता है। इस प्रसंग में ग्रेटा थनबर्ग का उदय कोई अकेली घटना नहीं है। अपने देश में भी दिशा रवि का उदाहरण हम जानते हैं। इस सिलसिले में हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि अमेरिका में वर्तमान शासन ने जुबानी ही सही तापमान को ऊपर न ले जाने की तकनीक को समर्थन देने का अश्वासन दिया जबकि हमारे देश में जिस कार्यकर्ता का अभी हमने जिक्र किया उसे गिरफ़्तार किया गया और अंतर्राष्ट्रीय दबाव पर ही जमानत दी गयी। इसे शासकों की समझ के सहारे भी देखा जा सकता है।

अमेरिकी राजनेता इसे समस्या तो मानते ही हैं भले ही यह उनका पाखंड हो। इसके उलट अपने देश के सर्वप्रमुख इसे तापमान की बढ़ोत्तरी मानने की जगह उम्र बढ़ने से सहनशक्ति के क्षरित होने की समस्या मानते हैं! सभी जानते हैं कि इस साल की असहनीय गरमी ने बड़े पैमाने पर लोगों की जान ली और इससे होने वाली मौतों के आंकड़े कोरोना की मौतों की तरह ही छिपाये गये। ऐसे में अगर शासक इसे समस्या ही मानने से इनकार करेगा तो रास्ता यही है कि उसके विपक्ष में इस मामले में भी संवेदनशीलता को जगह दी जाये।

कुल मिलाकर किताब वर्तमान की सही तस्वीर तो खींचती ही है एक हद तक भविष्य का रास्ता भी सुझाती है। किताब की भाषा में विषयोचित शब्दावली अपनायी गयी है। लेखक के लम्बे समय तक पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण उन्हें ऐसी संप्रेषणीय भाषा सहज सुलभ है। अपनी इस क्षमता का लेखक ने इस जटिल विषय की रोचक प्रस्तुति में बेहद खूबसूरती के साथ सृजनात्मक इस्तेमाल किया है।

(डॉ. गोपाल प्रधान अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्रोफेसर हैं)

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