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परिवर्तन बनाम यथास्थितिवाद?

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शशिकांत गुप्ते

परिवर्तन संसार का नियम है। यह कहने सुनने और पढ़ने में गर्व का अनुभव होता है। यथार्थ में परिवर्तन शब्द सँघर्ष का द्योतक बन जाता है।
परिवर्तन के लिए सबसे बड़ा सँघर्ष यथास्थितिवादी मानसिकता से करना पड़ता है।
यथास्थितिवाद परिवर्तन चाहता ही नहीं है। इसीलिए हम देशवासी सिर्फ विदेश ही अपनी पहचान भारतीय बताते हैं। मतलब हम सिर्फ विदेश में ही भारतीय होतें हैं। स्वदेश में तो हम विभिन्नता बट जातें है।
इसीलिए यथास्थितिवादी हमरा ध्यान बुनियादी समस्याओं से दरकिनार कर अव्यवहारिक सवालों में उलझाएं रखतें हैं?
यथास्थिति मानसिकता से ग्रस्त सियासतदानों द्वारा एक नया शब्द प्रचलन में लाया, हम कट्टर ईमानदार है।
कट्टर शब्द अलगाव,अतिवाद,अनाचार,
अत्याचार,अनैतिकता,और अपरिपक्वता को इंगित करता है।
भारतीय ही भारत में खाद्य पदार्थो में मिलावट करतें हैं। नकली दवाइयां निर्मित करतें हैं।
जालसाज़ी कर अपने ही देशवासियों को शिकार बनातें हैं।
हमें अपनों ही लूट,गैरों में कहा दम था,
इतिहास साक्षी है। जब भी कोई व्यक्ति वह,सामाजिक,धार्मिक,
साहित्यिक या राजनैतिक क्षेत्र में परिवर्तन के लिए सँघर्ष रत रहा है। उसे तात्कालिक कट्टरपंथियों ने ही प्रताड़ित किया है।
कट्टरता संकीर्ण सोच है। परिवर्तन व्यापकता का द्योतक है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने समाज के कल्याण के लिए सुधारवादी तरीका त्याग कर परिवर्तनकारी तरीका अपनाया है।
परिवर्तनकारियों की बहुत बडी फेरहिस्त है। राजाराम मोहनराय,ने अठारहवीं सदी में सतीप्रथा का विरोध किया था। राजाराम मोहन राय का विरोध किसी विधर्मी ने नहीं किया था।
स्वामी दयानंद सरस्वतीजी, महात्मा फुले,सावित्रीबाई फुले,आदि। बहुत लंबी सूची है।
वर्तमान में प्रत्येक चुनाव में जो भी उम्मीदवार चुनाव लड़ता है वह,जाति,समाज और धर्म विशेष का होता है।
वह दिन कब आएगा जब एक भारतीय चुनाव में उम्मीदवार होगा?

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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