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राहुल का चरित्र हनन गांधी और नेहरू के चरित्रहनन की शृंखला का ही एक हिस्सा

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संजीव शुक्ल

जिसको पप्पू बनाने में करोड़ो खर्च किये, आज उसीकी यात्रा में बेहिसाब भीड़ उमड़ती दिख रही है। सारा हिसाब-किताब गड़बड़ा रहा है। हालांकि पप्पू नाम से सबसे पहले भोलेपन की तरफ़ ही ध्यान जाता है, जिसे कलंकित करने का बीड़ा एक विशेष विचारधारा के लोगों ने उठाया है। पर अब सारे अरमान ढहते नज़र आ रहे हैं। 

राहुल का चरित्र हनन गांधी और नेहरू के चरित्रहनन की शृंखला का ही एक हिस्सा है। बस रूप दूसरा है। गांधी, नेहरू की वैचारिकी पर हमला करना और उसे निस्तेज करना संभव नहीं था, इसलिए उन पर चरित्रगत हमले किये गए, उन पर सत्ता लोभी और तुष्टिकरण का आरोप मढ़ा गया। चूंकि जनता का कुशल नेतृत्व करने की उनकी क्षमताओं पर सवाल खड़ा करना संभव नहीं था इसलिए उन पर हमले दूसरे तरह से किये गए।

राहुल गांधी का मामला दूसरा है। जनता के बीच उनकी न्यून उपस्थिति और संवादहीनता का अवसर उठाते हुए अवसरवादियों ने उनकी मेधा पर ही सवाल उठा दिए। उनकी नेतृत्व क्षमता को संदिग्ध घोषित करने के लिए उनकी बातों को जनता तक पहुंचने से रोकने के प्रयास किये गए। जो पहुंचे भी वह तोड़मडोरकर। उनको आयरन कर्टेन में तब्दील कर दिया गया। संचार तंत्र पूरी तरह से निर्देशित और सीमा में बांधा गया।

राहुल की छवि गैरजिम्मेदार व्यक्ति की बनाई गई।

 ऐसा चरित्र हनन तो पराधीन भारत में अंग्रेजों ने भी किसी का न किया होगा। पर स्वतंत्र भारत मे हुआ। यह घटिया पर डरे हुए लोगों की राजनीति थी। जो खुद के प्रदर्शन पर नहीं अपितु दूसरों को कमतर साबित करने के विज्ञापन पर टिकी थी।

ऐसे में जब आपकी बात को रोका जाए, जनयात्राएं राहें आसान करती हैं। ऐसे में जनता के बीच उतरकर उनके बीच चलकर उनसे संवाद स्थापित किया जाय, उनके दुःख-दर्द से साक्षात्कार किया जाय, उन्हें राजनीतिक दुरभिसंधियों से जागरूक किया जाय।

यात्राएँ नेतृत्वकर्ता को जहाँ अपनी कमियों को आइना दिखाती हैं, वहां जनता की लोकतांत्रिक समझ में इजाफा भी करती है। यहां वास्तविक संवाद होता है। नेतृत्व जन को समझता और समझाता हुआ चलता है। लेकिन रैली में जनता के रूप में भीड़ नेतृत्व के पास लाई जाती है, वहां नेतृत्व वक्ता होता है और भीड़ श्रोता। यह एक तरह से सामंती तरीका है।

राहुल ने सही राह चुनी है। लोग जुड़ रहे हैं। इससे सत्ता के समीकरण सधे या न सधे लेकिन जनता के सही मुद्दों के चुनाव की संभावनाएं तो बढ़ेंगी ही। और यही उन लोगों के लिए सबसे बड़ी दिक्कत है जो अब तक लोगों को भरमाने में सफल होते आ रहे हैं। यात्रा हमेशा नई उम्मीदों को जगाती है

#संजीव शुक्ल 

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