Site icon अग्नि आलोक

 सस्ता और सुलभ न्याय सरकार के एजेंडे में नहीं

Share

,मुनेश त्यागी 

        हमारे देश में इस वक्त लगभग दस करोड़ से ज्यादा मुकदमे पेंडिंग हैं और इनकी वजह से तीस करोड़ से ज्यादा आदमी प्रभावित हो रहे हैं। इनमें से सर्वोच्च न्यायालय में 75000, विभिन्न उच्च न्यायालयों में 60 लाख और निचली अदालतों में चार करोड़ 20 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। इनमें से लगभग 5 करोड़ मुकदमें एसडीएम, एडीएम, जिलाधीश, डीडीसी, श्रम न्यायालय, श्रम कार्यालयों, इनकम टैक्स, कमिश्नर कोर्ट आदि में लंबित हैं। अभी फिलहाल नेशनल जुडिशल डाटा ग्रिड के आंकड़ों के अनुसार भारत में इस वक्त लगभग 60 लाख से ज्यादा मुकदमें से पिछले 10 साल समय से ज्यादा लंबित हैं।

       नेशनल डाटा ग्रिड की रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस वक्त 10 साल से 20 साल तक के 28,70,776 मुकदमे लंबित हैं, 20 से 30 साल के बीच में 4,79,255 मुकदमे लंबित हैं। 30 साल से ऊपर 1,00,267 मुकदमें लंबित हैं और 10 साल से ऊपर के 34, 60, 298 मुकदमें लंबित हैं। इस प्रकार भारत की निचली अदालतों में 10 साल से ऊपर के लगभग 60 लाख से ज्यादा मुकदमे पेंडिंग है।

     इस प्रकार हम देख रहे हैं कि हमारे निचली अदालतों में एक लाख से ज्यादा मुकदमे 30 साल से ज्यादा समय से लंबित हैं। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार में इस तरह के  सबसे  ज्यादा मुकदमें लम्बित हैं। इस मामले में सबसे प्रथम स्थान उत्तर प्रदेश का है जहां पर 38 लाख से भी ज्यादा मुकदमे पेंडिंग हैं, महाराष्ट्र में सात लाख से ज्यादा मुकदमे पेंडिंग है, बंगाल में सात लाख से ज्यादा मुकदमे पेंडिंग है और बिहार में 11 लाख से ज्यादा मुकदमे पेंडिंग है। भारत के अधिकांश राज्यों का यही हाल है। इस प्रकार हमारे देश में, 60 लाख से ज्यादा मुकदमे पिछले 10 साल से ज्यादा समय से पेंडिंग हैं।

      यहां पर मुख्य सवाल यह उठता है कि आखिर इतनी बड़ी समस्या में मुकदमें भारत की विभिन्न कोर्टों में क्यों लंबित हैं? जब हम इस सवाल का जवाब ढूंढते हैं तो हमें पता चलता है कि भारत में लंबित मुकदमों के अनुपात में जज नहीं हैं। मुकदमों के हिसाब से अदालतें नहीं हैं, मुकदमों के हिसाब से क्लर्क और बाबू नहीं हैं, स्टेनो नहीं हैं।

     कई श्रम न्यायालयों की हालत और भी खराब है। उत्तर प्रदेश के श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों में पचास प्रतिशत से ज्यादा जजों के पद पिछले कई कई सालों से खाली पड़े हुए हैं। यही हाल श्रम कार्यालयों का बना हुआ है। यहां हमने देखा है कि पिछले कई कई साल से स्टेनो नहीं है। जज साहिबान काम करना चाहते हैं, मगर स्टेनों के नहीं होने की वजह से वे अपने काम को अंजाम नहीं दे पाते। हमारी जानकारी के अनुसार श्रम न्यायालयों में और इंडस्ट्रियल में पिछले चार पांच सालों से स्टेनो नहीं हैं। इस प्रकार मजदूरों के साथ न्याय के नाम पर सिर्फ दिखावा किया जा रहा है, उन्हें छला जा रहा है और उनके साथ एकदम बेइंसाफी की जा रही है।

      उपरोक्त मसलों को लेकर वकीलों की संस्थाओं ने कई बार इंस्पेक्टिंग जजों के सामने इन मामलों को रखा है, मगर वे इन समस्याओं को सुलझाने की बाबत कोई ध्यान नहीं देते और पिछले 10-10, 15-15 साल से न्यायिक कर्मचारियों की नियुक्तियां नहीं हो रही हैं। हालत यह है कि निचली अदालतों में लगभग 90 परसेंट से ज्यादा कर्मचारियों के पद नहीं भरे जा रहे हैं और सरकार ने इस और कोई ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा है।

     आज हकीकत यह है कि लाखों की संख्या में निचली अदालतों में “अजीर” यानी बाबुओं के प्राइवेट कर्मचारी काम कर रहे हैं। हकीकत यह है कि अगर ये अजीर काम ना करें तो भारत की न्याय व्यवस्था एकदम धराशाई हो जाएगी और हकीकत यह भी है की भारत का विधि आयोग, भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपने कई निर्णय में यह अवधारित कर चुके हैं कि भारत में 10 लाख मुकदमों पर सौ से ज्यादा जज होने चाहिएं, इससे कम में काम नहीं चलेगा। मगर हमारी केंद्र सरकार और राज्य सरकार इन अवधारणाओं को मानने को तैयार नहीं है इन पर सुनवाई करने को तैयार नहीं है और मुकदमों के अनुपात में जज और स्टेनो व अन्य कर्मचारी नियुक्त करने को तैयार नहीं हैं।

       अगर हम दुनिया की न्यायिक व्यवस्था पर एक नजर डालें तो वहां पर 10 लाख मुकदमों पर 107 जजिज हैं, जबकि भारत में यह संख्या 10 लाख मुकदमों पर केवल 20 जजिज हैं। इस प्रकार हम देख रहे हैं कि मुकदमों के अनुपात में जजेस नहीं हैं, जिस वजह से मुकदमें समय से नहीं निपट पाते और वादकारियों को सही समय से सस्ता और सुलभ न्याय नहीं हो पाता और पक्षकार अदालतों के चक्कर लगाते रहते हैं, उन्हें तारीख पर तारीख मिलती रहती हैं, मगर उन्हें न्याय मुनासिब नहीं होता।

      सरकार जनता को सस्ता और सुलभ न्याय नहीं देना चाहती क्योंकि जहां विदेशों में जैसे अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देश अपनी जीडीपी का तीन से चार परसेंट बजट न्यायिक व्यवस्था पर खर्च करते हैं। हमारे यहां जीडीपी का सिर्फ 0.08% खर्च होता है, जिस कारण न्याय व्यवस्था की हालत प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है और जनता को न्याय मिलना एक छलावा हो गया है। हमारी सरकार रोज-रोज विदेशों का राग अलाप्ती है, मगर वह विदेशों की न्यायिक व्यवस्था से सबक लेने और कुछ भी करने को तैयार नहीं है।

      मुकदमों की पेंडेंसी को देखकर यह मुनासिब होगा कि भारत की सरकार और राज्य सरकारें जनता को सस्ता और सुलभ देने की नियत से मुकदमों के अनुपात में जजिज नियुक्त करें, मुकदमों के अनुपात में अदालतों का निर्माण करें, मुकदमों के हिसाब से कोर्ट कर्मचारी नियुक्त करें, स्टेनो नियुक्त करें, मुकदमों के अनुपात में न्यायालयों की संख्या बढ़ाई जाए और न्याय व्यवस्था पर जीडीपी का कम से कम चार परसेंट खर्च होना चाहिए, तभी जाकर जनता को सस्ता सुलभ और वास्तविक न्याय हासिल हो सकता है। 

      उपरोक्त तथ्यों की रोशनी में, हम पूरे इत्मीनान के साथ कह सकते हैं कि जनता को सस्ता और सुलभ न्याय, त्वरित अन्याय, असली न्याय मोहिया कराने के लिए, उपरोक्त मांगों को मानना पड़ेगा अन्यथा भारत की जनता को कभी भी सस्ता और सुलभ न्याय नहीं मिल सकता। यहां पर यह बड़े अचंभे की बात है एक सुप्रीम कोर्ट के जज ने कहा है कि जिस तरह से हमारी न्यायपालिका काम कर रही है, उस तरह से वर्तमान मुकदमों को निपटाने के लिए 425 वर्ष से ज्यादा लगेंगे। सरकार इससे ज्यादा और क्या सुनना चाहती है। इस सब के बावजूद भी हमारी सरकारों के कानों पर जूं नहीं रेंग रही हैं।

Exit mobile version