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दिल्ली में इस बार यमुना में नहीं हो पाएगी छठ पूजा

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दिल्ली में इस बार छठ पूजा यमुना में नहीं हो पाएगी। दिल्ली में, जहां कोई एक तिहाई आबादी पूर्वांचल की है, यमुना में छठ का अर्घ्य देने पर सियासत हो रही है। दरअसल पिछले कुछ वर्षों के दौरान झाग वाले दूषित यमुना-जल में महिलाओं के सूर्योपासना के चित्रों ने दुनिया में हमारी किरकिरी करवाई है।

इस बार दिल्ली में कोई 400 अस्थायी तालाब बनाए जा रहे हैं, ताकि लोग यमुना के बजाय वहां छठ पर्व मनाएं। यहीं एक सवाल उठता है कि इन तालाबों या कुंडों को नागरिक समाज को सौंपकर इन्हें स्थायी क्यों नहीं किया जा सकता। दिल्ली से सटे गाजियाबाद में हिंडन नदी नाम की ही बची है। चूंकि यहां कई लाख पूर्वांचलवासी हैं, सो इसे गंगनहर से थोड़ा-सा पानी डालकर जिलाया जाएगा। बिहार में सबसे बड़ा पर्व तो छठ ही है। वहां की नदियों के हालात भी यमुना- हिंडन से बहुत अलग नहीं हैं। जलवायु परिवर्तन का असर इस राज्य पर भारी है, सो नदियों में पानी की मात्रा कम है।

छठ पर्व के समय यह आम दृश्य है कि जिस नदी से साल भर समाज बेपरवाह रहता है, उसके घाटों पर झाड़ू-बुहारू होने लगती। जैसे ही पर्व का समापन होता है, नदी के आसपास गंदगी जमा होने लगती है। छठ पर्व के समय समाज कोशिश करता है कि घर से दूर अपनी परंपरा का जैसे-तैसे पालन हो जाए, चाहे सोसाइटी के स्विमिंग पूल में हो या अस्थायी बनाए गए कुंड में, पर वह इससे बेपरवाह रहता है कि असली छठ मैया तो उस जल-निधि की पवित्रता में बसती हैं, जहां उसे पूरे साल सहेजकर रखने की आदत हो।

छठ पर्व वास्तव में बरसात के बाद नदी-तालाब व अन्य जलनिधियों के तटों पर बहकर आए कूड़े को साफ करने, अपने प्रयोग में आने वाले पानी को इतना स्वच्छ करने कि घर की महिलाएं भी उसमें घंटों खड़ी हो सकें, दीपावली पर मनमाफिक खाने के बाद पेट को नैसर्गिक उत्पादों से पोषित करने और विटामिन-डी के स्रोत सूर्य के समक्ष खड़े होने का वैज्ञानिक पर्व है। दुर्भाग्य है कि अब इसकी जगह अपसंस्कृति वाले गीतों, आतिशबाजी, घाटों की दिखावटी सफाई, नेतागीरी, गंदगी, प्लास्टिक-पॉलीथीन जैसी प्रकृति-हंता वस्तुओं और बाजारवाद ने ले ली है।

हमारे पुरखों ने जब छठ जैसे पर्व की कल्पना की थी, तब निश्चित ही उन्होंने हमारी जल निधियों को एक उपभोग की वस्तु के बनिस्पत साल भर श्रद्धा व आस्था से सहेजने  के जतन के रूप में स्थापित किया होगा। छठ पर्व लोक आस्था का प्रमुख सोपान है- प्रकृति ने अन्न दिया, जल दिया, दिवाकर का ताप दिया, सभी को धन्यवाद और ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ का भाव।

यह एक ऐसा पर्व है, जिसमें किसी मूर्ति-प्रतिमा या मंदिर की नहीं, बल्कि प्रकृति यानी सूर्य, धरती और जल की पूजा होती है। पृथ्वी पर लोगों के स्वास्थ्य की कामना और समृद्धि के लिए भक्तगण सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। बदलते मौसम में जल्दी सुबह उठना और सूर्य की पहली किरण के जलाशय से टकराकर मनुष्य द्वारा आत्मसात करना वास्तव में एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। व्रती महिलाओं के भोजन में कैल्शियम की प्रचुर मात्रा होती है, जो उनकी हड्डियों की मजबूती के लिए अनिवार्य भी है। सूर्य की किरणों से उन्हें जरूरी विटामिन-डी मिल जाता है, जो कैल्शियम को पचाने में भी मदद करता है। तप-व्रत से रक्तचाप नियंत्रित होता है और सतत ध्यान से नकारात्मक विचार मन-मस्तिष्क से दूर रहते हैं।

काश, छठ पर्व की वैज्ञानिकता, मूल-मंत्र और आस्था के पीछे तर्क को भलीभांति समाज तक प्रचारित-प्रसारित किया जाता! जल-निधियों की पवित्रता, स्वच्छता के संदेश को व्यवहारिक पक्षों के साथ लोक-रंग में पिरोया जाए, लोगों को अपनी जड़ों की ओर लौटने के लिए प्रेरित किया जाए, तो यह पर्व अपने आधुनिक रंग में धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है। हर साल छठ पर्व पर यदि देश भर की जल निधियों को मिल-जुलकर स्वच्छ बनाने, हजारों तालाब खोदने और उन्हें संरक्षित करने का संकल्प हो, पुराने तालाबों में गंदगी जाने से रोकने का उपक्रम हो, नदियों के घाट पर साबुन, प्लास्टिक और अन्य गंदगी न ले जाने की शपथ हो, तो छठ मैया का असली प्रताप और प्रभाव देखा जा सकेगा।

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