Site icon अग्नि आलोक

 *हसदेव जंगल: विकास के नाम पर दोनों हाथों से लुटा जा रहा है छत्तीसगढ़ कि खनिज सम्पदा को*

Share

*अजय असुर*

छत्तीसगढ़ कि खनिज सम्पदा को दोनों हाथों से लुटा जा रहा है और यह लूट विकास के नाम पर किया जा रहा है। ये कैसा विकास है जो आदिवासियों को उजाड़कर उनके घरों को बेदखल कर किया जा रहा है। जंगलों को काटकर जानवरों को जंगलों से बेदखल किया जा रहा है? मानव हाथी संघर्ष को अंजाम दिया जा रहा है। इन संघर्षों में जानवर खत्म होंगे फिर इन्हीं जानवरों को बचाने की मुहीम के नाम पर अलग से फंड बनाकर जनता के पैसे को लूटने का इंतजाम किया जा रहा है। 

हसदेव को बचाने के लिए लोग अपना विरोध दर्ज कर रहे है, क्योंकि प्राकृतिक लूट से इन मुट्ठी भर लोगोँ को मुनाफा तो खूब मिलेगा लेकिन इन प्राकृतिक संसाधनों के लूट से देश को खोखला कर देंगे। इसलिये इन प्राकृतिक संसाधनों के लूट के खिलाफ हम सबको मिलकर आवाज उठाना होगा और हमे तय करना होगा कि हमे किस कीमत पर विकास चाहिए।

प्राकृतिक संसाधनों के लूट का विरोध आदिवासी सिर्फ अपने लिये कर रहें हैं? यदि ये जंगल नहींं होंगे तो आक्सीजन कंहा से लाओगे? क्या सिर्फ किसानों की पराली जलने से प्रदूषण होता है? फैक्ट्रियां आक्सीजन उगलती हैं? जंगलों से भी प्रदूषण होता है क्या? जो खत्म करते जा रहे हो। ऐसा ही रहा तो हम आने वाली पीढ़ियों के लिये बैंक बैलेंस तो छोड़ कर जाएंगे मगर शुद्ध हवा पानी नहीं, और मानव निर्मित प्राकृतिक आपदाएँ भी, आने वाली पीढ़ियाँ हमे किस तरह याद करें ये हमें-आपको तय करना है? क्योंकि हसदेव अरण्य को इंसानों का फेफड़ा कहा जाता है। भारत में आक्सीजन का बहुत बड़ा स्रोत है ये जंगल।

हसदेव जंगल छत्तीसगढ़ के उत्तरी कोरबा, दक्षिणी सरगुजा और सूरजपुर जिले के बीच में स्थित है। लगभग 1,70,000 हेक्टेयर में फैला यह जंगल अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है। इस हसदेव अरण्य में गोंड आदिवासी बड़े पैमाने पर शिकार-संग्रह करके जीवन यापन करने वाले विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) जैसे बिरहोर, हलबा, बैगा, लोहार, ओरांव जैसी आदिवासी जातियों के 10 हजार से ज्यादा लोगों का घर है। वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया की 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक यहां 82 तरह के पक्षी, दुर्लभ प्रजाति की तितलियां और 167 प्रकार की वनस्पतियां पाई जाती हैं। इनमें से 18 वनस्पतियों अपने अस्तित्व के खतरे से जूझ रही हैं। खनन गतिविधियों का प्रभाव क्षेत्र छत्तीसगढ़ राज्य के सूरजपुर, सरगुजा और कोरबा जिलों तक फैला हुआ है।

आधिकारिक तौर पर अनुमान है कि 15,000 पेड़ काटे जाएंगे। हालाँकि, स्थानीय आदिवासी और कार्यकर्ता समूहों ने बताया है कि लगभग 30,000 पेड़ पहले ही काटे जा चुके हैं। निकट भविष्य में 2,50,000 और पेड़ों को इसी तरह की नियति का सामना करना पड़ेगा, जब परसा में अतिरिक्त 840 हेक्टेयर से अधिक जंगल की सफ़ाई शुरू होगी। साल और महुआ जैसे आर्थिक रूप से मूल्यवान पेड़ों, जो आदिवासियों को जीविका और आय प्रदान करने के अलावा अन्य प्रकार से भी उपयोगी हैं, के अलावा कई अन्य पारिस्थितिक और सामाजिक रूप से उपयोगी झाड़ियों और घासों की भी बलि दी जा रही है। वनों की कटाई और खनन-संबंधी गतिविधियों के कारण वन्यजीवों की कई प्रजातियाँ, विशेषकर हाथी, भालू, सरीसृप और अन्य भी विस्थापन की चपेट में आ रहे हैं और ये जंगल से विस्थापित होकर मनुष्य आबादी में आ जाएंगे और फिर इनके बीच संघर्ष होगा। दोष जानवरों पर होगा। जब आप इनका घर उजाड़ो तो आखिर ये जाएंगे कंहा? 

कोयले की उपलब्धता का संभावित पैमाना, और इसके खनन के कारण पारिस्थितिक विनाश और आदिवासियों और वनों में रहने वाले अन्य समुदायों और सरीसृप सहित जानवरों पर पड़ने वाले प्रभाव का पैमाना चौंकाने वाला है। ऐसा माना जाता है कि पीईकेबी ब्लॉकों की क्षमता लगभग 200 लाख टन प्रति वर्ष हो सकती है, जबकि घने वन क्षेत्र के अंतर्गत अनुमानित कुल 5 अरब टन कोयला मौजूद हो सकता है, जिससे कुल मिलाकर लगभग 800,000 पेड़ों को खतरा हो सकता है।

2010 में केंद्रीय कोयला और पर्यावरण मंत्रालय ने इस पूरे इलाके को नोगो को इलाका घोषित किया गया था। नोगो उस इलाके को माना जाता है जिसमें वन कोयला हो, लेकिन वह समृद्ध वन इलाका हो तो उन पर खनन नहींं हो सकता यानी खनन से मुक्त रखा जाए इसलिए ऐसे इलाकों को नोगो घोषित किया गया। भारत सरकार ने इसके लिए कुछ पैमाने रखे हैं, जैसे वनो की घनत्वता, उसमे उपलब्ध जैव विविधता, उन पहाड़ो से निकलने वाले जल श्रोत और वन्य प्राणियों की उपस्थिति और यह सारी चीजें हसदेव में उपस्थित है इसलिए इसे नोगो क्षेत्र घोषित किया गया। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) और कोयला मंत्रालय ने जंगलों के भीतर ‘गो’  (ऐसे क्षेत्र जहां कंपनियां वनभूमि परिवर्तन के लिए आवेदन कर सकती हैं।) और ‘नोगो’ (ऐसे क्षेत्र जहां कंपनियां वनभूमि परिवर्तन के लिए आवेदन नहींं कर सकती हैं।) या इनवॉयलेट क्षेत्रों के मानचित्रण के विचार पर काम करना शुरू कर दिया था। गो क्षेत्र वह है, जहां वन मंजूरी के अधीन खनन और अन्य विकास गतिविधियां की जा सकती हैं, जबकि नोगो क्षेत्रों में ऐसी कोई गतिविधियां नहींं की जा सकती हैं। गो और नोगो मतलब जाओ और जंगल में मत जाओ। हसदेव के जंगलों को भी नोगो क्षेत्र घोषित होने के बावजूद राज्य और केंद्र के विभिन्न अधिकारियों द्वारा समय-समय पर इसकी अनदेखी की गई है ओर आज लगभग 85 प्रतिशत क्षेत्रों को गो क्षेत्रों में तब्दील कर दी गयी हैं और धीरे-धीरे पूरे हसदेव अरण्य को गो क्षेत्रों में मान्यता दे देंगे। शासक वर्ग कोई भी नियम/कानून अपनी सुविधा अनुसार बनाता, तोड़ता और संशोधन करता रहता है और जनता पर थोप देता है और कहता है ये तुम्हारे हित का है जैसे दिखावे के लिये हसदेव अरण्य के अधिकांश भाग को नोगो क्षेत्र में घोषित कर दिया था जब तक कि खनन राज्य के हित में था और जैसे ही प्राकृतिक सम्पदा की लूट अडानी को दिया गया वैसे ही नोगो से गो में तब्दील कर दिया जा रहा है और इसको देश और आदिवासियों के हितों के नाम पर न्यायोचित ठहराने के लिये तरह-तरह के तर्क गढ़े जा रहे हैं। एक्चुवली में परसा कोल ब्लॉक एक नई कोल ब्लॉक है और इस ब्लाक में खनन के लिये राजस्थान सरकार को आवंटन किया गया था, लेकिन राजस्थान सरकार ने इस खनन को आधिकारिक रूप से अडानी को सौंप दिया।

2010 से पहले हसदेव में लगभग 30 कोल ब्लॉक आवंटित किये गये थे, 2012 में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इसे फ्रीन्ज कहकर स्वीकृति दे दी, अर्थात यह हसदेव का किनारा है यह मुख्य हसदेव का वन क्षेत्र नहींं है। हसदेव में परसा कोल ब्लॉक, जो कि राजस्थान की कोयला खदान है और इस पर जो मालिकाना हक है वह MDO (माइन डेवलपर एंड ऑपरेटर) के तहत अडानी का है। 2012 में जब खनन शुरू हुआ तो यह खनन दो चरणों में होना था, पहला 15 सालों में 140 मिलियन टन निकालना था, और दूसरे चरण में पहले 15 सालों के उत्खनन के बाद पुनः फारेस्टशन होने के बाद फिर दूसरे चरण में होना था जो कि 1400 मिलियन टन के आसपास था यानी साल 2028 के बाद, लेकिन जब इसकी स्वीकृति दी गई तब केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि परसा कोल ब्लॉक के अलावा हम मुख्य हसदेव का खनन नहींं करेंगे यह कहते हुवे इसकी स्वीकृति दे दी गयी थी। जबकि वन सराय समिति ने अपने रिपोर्ट में कहा था कि यहां खनन होना ही नहींं चाहिए, लेकिन उसके बावजूद भी खनन होने लगा।

दूसरे चरण में जो 2028 के बाद खनन शुरू होना था पर 2028 तो दूर की बात कोरोना काल में ही इसकी स्वीकृति हो गई पर ग्रामीणों के जबरदस्त विरोध के बाद दूसरे चरण का खनन पूरे तरीके से शुरू नहींं हो पाया है। कंपनी और सरकार के MOU के मुताबिक प्रथम चरण में 140 मिलियन टन कोयला निकालना था पर कम्पनी के मुताबिक प्रथम चरण में 82 मिलियन टन कोयला निकाला गया और कोयला खत्म। बचा हुवा 58 मिलियन टन कोयला कहां है? और इस सवाल को ना छत्तीसगढ़ कि सरकार ना राजस्थान की सरकार और ना ही केंद्र की सरकार ना ही यह भ्रष्ट और दलाल मीडिया ही सवाल पूछ रही है? ना ही अडानी बाबू कोई जवाब दे रहे हैं। वो तो सीधे-सीधे कह रहें हैं कि कोयला खत्म। इस पर पूछे बिना ही दूसरे चरण की स्वीकृति दे दी गई। यह जो दूसरी अनुमति दी गई है इसमें अनुमानित 250000 पेड़ कटेंगे और एक घाट गांव पूरी तरह से विस्थापित होगा।

फिलहाल राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम द्वारा संचालित अडानी समूह को, राजस्थान और आसपास के राज्यों के लिए बिजली पैदा करने और आपूर्ति के लिए दो बड़े कोयला ब्लॉकों में खनन की मंजूरी मिल गयी है। परसा पूर्व और कांता बेसन (पीईकेबी) कोयला ब्लॉकों में लगभग 135 हेक्टेयर जंगलों को साफ करने की अनुमति दी गई है और इस आशय का एक नोटिस 18 सितंबर, 2023 को जारी किया गया था। भारी सुरक्षा घेरे के तहत हाल ही में बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई शुरू हुई है। ऐसा नहींं है कि यह सब रातों-रात हुआ है और केवल केंद्र और छत्तीसगढ़ राज्य दोनों में भाजपा शासन के तहत हुआ है। भाजपा के अलावा किसी का भी शासन होता तो भी प्राकृतिक संसाधनों की लूट जारी रहती।

कुछ लोग कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में नवनिर्वाचित भाजपा सरकार हसदेव अरण्य के जंगल के बड़े हिस्से को साफ करने के लिए पूरी ताकत से आगे बढ़ रही है, और यदि फलाने की सरकार होती तो यह नहींं होता। चाहे जो सरकारें रही हों चाहे कांग्रेस रही हो या किसी अन्य पार्टी की सरकार रही हो सभी ने जंगलों में रह रहे आदिवासियों को छला है और पूंजीपतियों के हितों के लिये हसदेव में खनिज सम्पदा को लूटने के लिये काटने के लिये पूरी ताकत से काम किया है।

2014 में जब पुनः आवंटन हुआ था तो हसदेव के लोगों ने संवैधानिक विरोध किया क्योंकि यह भारतीय संविधान की पांचवी अनुसूची का इलाका है जिसमें बिना ग्रामीणों की स्वीकृति से कोई काम संभव नहींं हो सकता है। हसदेव की 20 ग्राम सभाओं ने 2014 में यह प्रस्ताव किया कि हम किसी भी खनन की अनुमति नहींं देंगे, और ना ही हम चाहेंगे कि खनन हो इसलिए किसी भी कोल ब्लॉक का आवंटन मत करिए, फिर भी कोल ब्लॉक आवंटन की मंजूरी क्यों दी गई और इसमें 4 ब्लॉक राजस्थान सरकार को दे दी गई और राजस्थान सरकार ने अडानी द्वारा संचालित कम्पनियों को दे दिया। 

2014 से अभी तक बार-बार इन ग्राम सभाओं ने खनन का विरोध किया और विरोध अभी भी जारी है कि हम खनन की इजाजत नहींं देंगे, लेकिन 2018 में ग्राम सभा का एक फर्जी प्रस्ताव बनाया गया और इस फर्जी प्रस्ताव के आधार पर खनन की अनुमति दे दी जाती है। जबकि ग्रामसभा कह रही है कि हमने कोई स्वीकृति नहींं दी फिर यह प्रस्ताव क्यों पारित हुआ? जब इस फर्जी प्रस्ताव की बात ग्रामीणों को पता चली तो थाने में शिकायत करते हैं, जिला अधिकारी को सूचना देते हैं, मुख्यमंत्री को पत्र लिखते हैं लेकिन उसकी कोई भी कार्यवाही या सूचना अभी तक नहींं मिली इन ग्रामीणों को। चुनाव के बाद दिसम्बर 2018 में राज्य सरकार बदल जाती है और दिसंबर 2018 को नए मुख्यमंत्री शपथ ग्रहण करते हैं और उसके ठीक बाद 26 दिसंबर 2018 को हसदेव के लोग नये मुख्यमंत्री से मिलते हैं और बताते हैं कि फर्जी ग्राम सभा का प्रस्ताव हुआ उस पर कार्यवाही किया जाए पर नतीजा सिफर।

2013 में भाजपा चुनकर छत्तीसगढ़ में शासन करती है। तब विपक्ष में रहते हुवे 2015 में राहुल गाँधी ने आदिवासियों से कहा था की हम आदिवासियों के साथ है, हम कोयला नहीं निकलने देंगे, लेकिन 2018 में सत्ता में आने के बाद पिछली फर्जी कार्यवाही पर जाँच तो दूर की बात वादा भी भूल गये। बात कांग्रेस या राहुल गांधी की नहींं है, ऐसा वादा पहली बार किसी राजनैतिक पार्टी ने नहींं किया था बल्कि विपक्ष में रहते हुवे सारी राजनैतिक पार्टियां ऐसे ही वादे करती हैं और सत्ता में आने के बाद वादों को भूल जाती हैं और अपने आका पूंजीपतियों/उद्योगपतियों की सेवा में जुट जाते हैं इनको जनता के हितों से कोई लेना-देना नहीं होता है क्योंकि यही इस पूँजीवादी लोकतंत्र में होता है। पूँजीवादी लोकतंत्र में पूंजी की ही सेवा होती है।

राज्य के द्वारा कोई भी कदम ना उठाने पर ग्राम सभा की जाँच और कार्यवाही के लिए 2020 में 75 दिनों तक लोगो ने धरना दिया था लेकिन कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार का एक भी प्रशासनिक अधिकारी देखने तक नहींं आया, और आखिर में 2 अक्टूबर 2020 को 300 किलोमीटर पैदल चलकर रायपुर में राज्यपाल से गुहार लगाने पहुंचे, राज्यपाल ने आश्वासन देते हुए कहा की आपके साथ अन्याय नहींं होगा और चिट्ठी लिखी और उन्होंने कहा की जब तक ग्राम सभाओं की जाँच नहींं हो जाती तब तक खनन की कोई कार्यवाही आगे न बढे। राज्यपाल के इस वादे के साथ ग्रामीणों ने धरना खत्म कर घर वापसी किया। कुछ दिनों बाद ही 21 अक्टूबर को राज्य सरकार की अनुमति से पपरसा कोल ब्लॉक में खनन शुरू हो गया और रातों-रात सैकड़ों पेड़ काट दिये गये। 

कुछ आदिवासी पेसा की बात कर कोर्ट भी गये पर कोर्ट से भी कोई राहत नहींं मिली बस मिली तो तारीख पर तारीख। पेसा कानून के मुताबिक, खनन के लिए पंचायतों की मंजूरी ज़रूरी है। पंचायत एक्सटेंशन ऑन शेड्यूल्ड एरिया (पेसा) कानून 1996 के तहत बिना उनकी मर्जी के उनकी जमीन पर खनन नहींं किया जा सकता। ये सारे नियम कानून शासक वर्ग के लिये कोई मायने नहींं। 

2001 से 2023 के बीच पिछले 23 सालों में सबसे ज़्यादा जंगल काटे गए। इससे पहले भी काटे गये हैं आजादी से पहले भी। आजादी के बाद से और ज्यादा तेज गति से जंगल काटे गये हैं जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, जंगल काटने की गति और तेज होती जा रही है। जंगल कटने का कोई डेटा नहींं क्योंकि सरकार डेटा ही रिलीज़ नहीं करती, तो आपको सरकारी आँकड़े या तो मिलेंगे नहीं, या फर्जी मिलेंगे।

हसदेव जंगल को बचाने के लिये आदिवासी प्रोटेस्ट कर रहे हैं, तो शासक वर्ग इन आदिवासियों को नक्सली, आदिवासी करार दे रही है और उनका समर्थन करने वालों को अर्बन नक्सल। अब आपको तय करना होगा कि ये जंगल बचाने वाले आदिवासी नक्सली हैं या आतंकवादी? सरकार पर्यावरण के विरुद्ध पूंजीपतियों के मुनाफे को बढ़ा रही है और दुनिया के सबसे बड़े मंचो पर पर्यावरण के समर्थन में भाषण दे आती है। ग्लोबल कुछ और लोकल कुछ, यही पूँजीवादी लोकतंत्र की कथनी और करनी है।

अब सवाल यह है कि हसदेव को उजाड़ने से एक तो कई गांव उजड़ेंगे, हजारों लोग बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं; हाथी, शेरों का आतंक बढ़ रहा है; पर्यावरण पर भयंकर असर हो रहा है; और लाखों लोगों का विनाश और थोड़े से पूँजीपतियों का विकास हो रहा है। खान-खदानों को लूटकर देश को खोखला किया जा रहा है। इसलिए जल जंगल जमीन और पर्यावरण की लड़ाई हम सबको मिलकर लड़ने की जरुरत है।

Exit mobile version