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राफेल सौदे की क्रोनोलॉजी:उन बिन्दुओं की चर्चा जिनसे इस सौदे में शक की गुंजाइश

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विजय शंकर सिंह

प्रधानमंत्री जी फाइटर जेट तेजस पर सवार थे। बहुत सी फोटो वायरल हुई। किसी फाइटर जेट पर सवार होने वाले वह पहले पीएम घोषित हुए। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल भी एक बार मिग फाइटर जेट पर सवार हो चुकी है। ऐसे कृत्य सेना और जवानों का मनोबल बढ़ाने के लिए किए जाते हैं।

तेजस नाम अटल बिहारी वाजपेई जी का दिया हुआ है। यह प्रोजेक्ट धरातल पर साल 2001 में शुरू हुआ था, हालांकि इसकी योजना उसके पहले से चल रही थी। ऐसी दीर्घकालीन योजनाएं, सरकार निरपेक्ष होती हैं और अनवरत रूप से चलती रहती हैं, जब तक कि कोई सरकार जानबूझकर उसे किसी विशेष कारणवश बाधित करने की कोशिश न करे।

एक तर्क अक्सर दिया जाता है कि सुप्रीम कोर्ट ने राफेल मामले में सरकार को क्लीन चिट दी है। लेकिन, क्लीन चिट जैसा शब्द कानून में कहीं नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि “सरकार के खरीद प्रक्रिया में कोई अनियमितता नहीं है।” यानी कागज का पेट भरा है। प्रोसीजर लागू किया गया है। कागज के अंदर झांक कर विवेचनात्मक रुचि और निगाह से झांक कर देखेंगे तो, घोटाले के गंभीर संकेत मिलेंगे। यह तभी उजागर होगा जब उसकी तह में जाया जाय। तह में जाकर तफ्तीश करने का हुनर सीबीआई का है और सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी किसी तफ्तीश पर रोक नहीं लगाई है।

याद कीजिए, तभी पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट प्रशांत भूषण ने तत्कालीन सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा से मिलने गए थे और एफआईआर दर्ज कर जांच करने का अनुरोध किया था और आलोक वर्मा को सरकार ने उसी रात बदल दिया था। यह डर, घोटाले के अपराध के खुल जाने का था।

घोटाले का आरोप अब भी है। और यह तब तक बना रहेगा जब तक कि, इसकी जांच न हो जाय। अपराध काल बाधित नहीं होता है। अब आप राफेल सौदे की क्रोनोलॉजी पढ़ें…

राफेल सौदे में कुछ ऐसे बिंदु हैं जो इस सौदे में घोटाले के आरोप की ओर शक की सूई ले जाते हैं। विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स और राफेल मामले में सरकार या प्रधानमंत्री की भूमिका के बारे में कहे और लिखे गए अनेक लेखों और बयानों के आधार पर कुछ महत्वपूर्ण बिंदु मैं नीचे प्रस्तुत कर रहा हूं, जिनसे घोटाले का शक उभरता है।

संदेह के बिंदु तब उपजते हैं, जब नियमों का पालन किए बगैर, मान्य और स्थापित कानून तथा परम्पराओं को दरकिनार कर के, कोई मनमाना निर्णय ले लिया जाता है और किसी को, या बहुत से लोगों को अनुचित लाभ पहुंचाया जाता है। यहां भी अनुचित लाभ पहुंचाने के कदाशय को ही, घोटाले के अपराध का मुख्य बिंदु माना गया है।

अब उन बिन्दुओं की चर्चा की जा रही है,  जिनसे इस सौदे में शक की गुंजाइश बन रही है। 

● बोफोर्स घोटाला, रक्षा सौदों में, अब तक का सबसे चर्चित घोटाला रहा है। हालांकि 1948 में ही रक्षा से जुड़ा जीप घोटाला सामने आ चुका था। पर बोफोर्स घोटाले के आरोप ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। इस घोटाले के बाद ही सरकारें सतर्क हो गयीं और उसके बाद आने वाली सरकारों ने रक्षा सौदों के लिए एक बेहद पारदर्शी प्रक्रिया और नियम बनाये, जिसके अंतर्गत सेना, रक्षा मंत्रालय, संसदीय समिति और सरकार, सभी की सहमति से ही किसी प्रकार का कोई रक्षा सौदा सम्बंधित समझौता हो सकता है। सबकी स्पष्ट और उपयुक्त भागीदारी के साथ-साथ पारदर्शिता को इन रक्षा सौदों के लिये अनिवार्य तत्व माना गया है। लेकिन मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार ने, जब राफेल के सम्बंध में समझौता किया तो उसने इन नियमों और प्रक्रिया का पालन नहीं किया।

● रक्षा सौदों के प्रारंभिक नियमों और प्रक्रिया के अनुसार, किसी भी रक्षा खरीद का फैसला भारतीय सेनाओं की मांग के आधार पर शुरू होता है। राफेल खरीद के मामले की भी शुरुआत, वायुसेना द्वारा 126 विमान की आवश्यकता और उससे जुड़े, मांगपत्र से हुई थी। यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार ने वायुसेना के इसी 126 विमानों की आवश्यकता के आधार पर, अपनी बातचीत शुरू की थी। लेकिन उसके बाद आने वाली एनडीए की नरेंद्र मोदी सरकार ने 126 विमानों की आवश्यकता को घटा कर, मात्र 36 विमानों का सौदा फाइनल किया। इस बदलाव पर यह आरोप लगता है, कि वायुसेना की जरूरतों को नजरअंदाज करके उसे मजबूत बनाने की जगह उसके मूल मांग 126 लड़ाकू विमानों की उपेक्षा की गयी। वायुसेना ने कभी नहीं कहा कि उसे 126 की जगह अब केवल 36 ही विमान चाहिए, जबकि सेना की मांग ही रक्षा सौदे का मुख्य आधार बनती है। सेना अपनी आवश्यकताओं को घटा बढ़ा सकती है। पर इस जोड़ घटाने का भी कोई न कोई तर्क और आधार होना चाहिए। वायुसेना ने 126 से अपनी ज़रूरतों को कैसे 36 तक सीमित कर दिया, इस पर न तो वायुसेना ने कभी कोई उत्तर दिया और न ही रक्षा मंत्रालय ने।

● यूपीए सरकार ने, डसॉल्ट कम्पनी से वायुसेना के लिये 126 राफेल विमानों के साथ उनके तकनीकी हस्तांतरण के लिये, ट्रांसफर आफ टेक्नोलॉजी की शर्त भी रखी थी, जिसके तहत यह तकनीक यदि भारत को मिल जाती तो यह विमान भविष्य में स्वदेश में ही बनता, लेकिन, नरेन्द्र मोदी सरकार में जो सौदा हुआ है, उसमे,  ट्रान्सफर ऑफ टेक्नोलॉजी की शर्त ही हटा दी गई है।

● सरकार या प्रधानमंत्री ने अपने स्तर पर सौदे में जो बदलाव किये उन्हे, कैटेगराइजेशन कमेटी के पास अनुमोदन के लिए नहीं भेजा गया। कैटेगराइजेशन कम डिफेंस एक्यूजीशन कॉउंसिल में, रक्षा मंत्री, वित्तमंत्री और तीनों सेनाओं के प्रमुख होते हैं। जो किसी भी प्रस्तावित प्रस्ताव परिवर्तन का परीक्षण कर के  उसे प्रधानमंत्री के पास भेजते हैं। लेकिन इस मामले में यह प्रक्रिया नहीं अपनाई गयी। बिना कैटेगराइजेशन कम डिफेंस एक्यूजेशन काउंसिल की सहमति के लिया गया यह फैसला स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन है।

● अचानक, इस सौदे में जो बदलाव हुआ उनसे यह आभास होता है कि, इस सौदे के बारे में अंतिम समय तक फ्रांस के राष्ट्रपति, भारत के रक्षा मंत्री और वायुसेना और भारतीय रक्षा समितियों को कुछ भी पता नहीं था। जबकि इन सबकी जानकारी में ही यह सब परिवर्तन होना चाहिए था।

● समझौते के ठीक पहले मार्च, 2015 में डसॉल्ट के सीईओ एलेक्ट्रैपियर कहते हैं कि हम हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के साथ मैन्युफैक्चरिंग का काम करने जा रहे हैं। एचएएल की बेंगलुरू इकाई में, यह सब बातें प्रेस के सामने आती हैं। जब पीएम मोदी इस समझौते के लिए फ्रांस जा रहे थे तो उसके पहले विदेश सचिव, एस जयशंकर जो अब विदेश मंत्री हैं, ने अपने बयान में कहा कि, “मोदी जी फ्रांस जा रहे हैं, वे वहां पर 126 राफेल विमान खरीद की वार्ता को आगे बढ़ाएंगे।” यानी तब तक इस सौदे में परिवर्तन की कोई भनक तक उन्हें नहीं थी। जिस दिन मोदी जी वहां पहुंचे उस दिन फ्रांस के राष्ट्रपति हॉलैंड ने कहा कि, 126 राफेल की डील पर हमारी बात आगे बढ़ेगी। फिर उसी दिन अचानक 36 विमानों पर यह सौदा भारत और फ्रेंच कंपनी डसॉल्ट के बीच पूरी हो गयी। अचानक इस सौदे में अनिल अंबानी का प्रवेश हो गया और एलएएल, जिसके साथ यह करार लगभग तय हो गया था, उसे पीछे हटा दिया गया। इस तरह देश की सुरक्षा एजेंसियों से लेकर रक्षा और वित्त मंत्री तथा दूसरे पक्ष को भी इस सौदा परिवर्तन की भनक तक नहीं लगी। यही मुख्य आरोप है कि, यह सब, एक निजी कंपनी को अनुचित लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया।

● देश की 78 साल पुरानी सार्वजनिक उपक्रम कम्पनी, एचएएल को हटाकर अनिल अंबानी की कंपनी को नए सौदे में, ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट दे दिया गया। आरोप है कि, अनिल अंबानी की यह कंपनी सौदे के मात्र दस दिन पहले बनाई गई। इस तरह एक नितांत नयी कंपनी को इतने महत्वपूर्ण सौदे में शामिल कर लिया गया, जिसका रक्षा क्षेत्र में कोई अनुभव ही नहीं है।

● अनिल अंबानी की, रिलायंस इस सौदे में ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट के नाम पर शामिल हुई। इस डील में ऑफसेट ठेके की राशि है ₹ 30 हज़ार करोड़, जिसका एक बड़ा हिस्सा रिलायंस को मिलेगा। यह बात डसॉल्ट और रिलायंस ने सार्वजनिक की, न कि भारत सरकार ने। सरकार ने यह तथ्य क्यों छुपाया? अनिल अंबानी के प्रवेश के सवाल पर सरकार ने कहा कि अंबानी से पहले से बातचीत चल रही थी, लेकिन यह कंपनी तो, सौदे के मात्र दस दिन पहले ही बनी है, फिर बातचीत किससे चल रही थी?

● प्रधानमंत्री ने समझौते के बाद कहा था कि विमान ठीक उसी कॉन्फ़िगरेशन में आएंगे, जैसा पुराने समझौते के तहत आने वाले थे। लेकिन नये समझौते में ₹ 670 करोड़ का विमान ₹ 1600 करोड़ से ज़्यादा कीमत का हो गया। इस पर यह सवाल उठने लगे कि, विमानों कीमत क्यों तीनगुनी हो गयी, तो बाद में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने ‘पे इंडिया स्फेसिफिक ऐड ऑन’ की बात कहकर बढ़े दाम को जायज ठहराया। इस पर यह आरोप लगा कि, सरकार ने ऐसा करके जनता को गुमराह किया है। सरकार ने अब तक इसका कोई तार्किक जवाब नहीं दिया है।

● राफेल के दाम बढ़ने घटने की बात पर सरकार ने जितनी बार बयान दिए, वे सब अलग अलग तरह के हैं जो स्थिति साफ करने के बजाय, उसे और उलझा देते हैं। कहा गया कि इंडिया स्पेसिफिक ऐड ऑन के तहत विमानों में 500 करोड़ के हेलमेट लगाने की बात जोड़ी गई इसलिए दाम बढ़ गए। फिर सवाल उठता है कि इसकी अनुमति किससे ली गई?

● सबसे आपत्तिजनक और हैरान करने वाला कदम यह है कि, इस समझौते से बैंक गारंटी, संप्रभुता गारंटी और एंटी करप्शन से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण प्रावधानों को हटा दिया गया है। इंटीग्रिटी पैक्ट पर सहमति और हस्ताक्षर न करके देश की संप्रभुता से भी समझौता किया गया। राफेल डील से एंटी करप्शन प्रावधानों को हटा देने से भ्रष्टाचार के प्रति संदेह स्वतः उपजता है।

● द हिंदू अखबार में छपी खबरों के अनुसार, नरेन्द्र मोदी सरकार में 36 रफालों की कीमत, पहले की तय कीमतों से, 41 प्रतिशत अधिक है। इसके अलावा बैंक गारंटी की शर्त हटा देने की वजह से राफेल की कीमतें और बढ़ गईं।  रक्षा मंत्रालय के दस्तावेजों से यह तथ्य भी सामने आए कि रक्षा मंत्रालय के विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री ने अपने स्तर पर बातचीत करके इस सौदे को अंतिम रूप दिया जो, सभी नियमों और तयशुदा प्रोसीजर सिस्टम का उल्लंघन है।

● यह भी एक तथ्य सामने आया है कि इंडियन निगोशिएटिंग टीम (ऐसे सौदों में समझौता करने वाली समिति जिसमें, सेना, रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय के बड़े अफसर रहते हैं, को इंडियन निगोशिएटिंग टीम, आईएनटी कहते हैं। यह एक औपचारिक वैधानिक प्रक्रिया का अंग होता है) ने, अपनी टिप्पणी में कहा था कि यूपीए सरकार के समय की शर्तें बेहतर थीं, लेकिन उसे दरकिनार कर दिया गया। तत्कालीन रक्षा सचिव ने भी इस सौदे में पीएमओ द्वारा सीधे हस्तक्षेप किये जाने पर आपत्ति जताई थी। इसके अतिरिक्त, प्राइस निगोसिएशन कमेटी (यह भी एक औपचारिक वैधानिक प्रोसीजर के अंतर्गत दाम पर बारगेनिंग और उसे तय करने के लिये गठित कमेटी होती है) के तीन विशेषज्ञों ने भी अपना तीखा विरोध जताया था कि सरकार ने बेंचमार्क प्राइस जो कि पांच बिलियन यूरो था, उसे बढ़ाकर आठ बिलियन यूरो क्यों कर दिया?

● इन आपत्तियों में यह भी कहा गया था कि, नये सौदे में पिछले सौदे के मुकाबले विमानों की कीमत अधिक देनी पड़ रही है, इसलिए इसका टेंडर फिर से होना चाहिए। बिना टेंडर के गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट रूट में तभी यह समझौता हो सकता था, अगर यह उसी दाम में या उससे कम दामों में होता।  लेकिन सौदे में कीमतों में अंतर आ रहा है और वह कीमतें बढ़ रही हैं, अतः इस मूल्य बदलाव के बाद, इस सौदे के संबंध में, दोबारा टेंडर की प्रक्रिया की जानी चाहिए थी, जो नहीं अपनाई गई है।

● जिस मामले में प्रधानमंत्री को अपने स्तर पर फैसला लेने का अधिकार ही नहीं था, उस संदर्भ में, उन्होंने अपने स्तर से ही फैसला ले लिया जिसके कारण, भारत सरकार की अनुभवी कंपनी एचएएल को नुकसान पहुंचा और निजी कंपनी को जानबूझकर लाभ पहुंचाया गया।

● एक आरोप यह भी है कि अनिल अंबानी रक्षा से जुड़े किसी भी तरह का निर्माण नहीं कर सकते, इसलिए उनकी मौजूदगी एक तरह से कमीशन एजेंट के तौर पर ही देखी जाएगी।  एचएएल को यह दायित्व, मेक इन इंडिया के अंतर्गत दिया जा सकता था। प्रशांत भूषण का मानना है कि कमीशन एजेंट के रूप में अनिल अंबानी की मौजूदगी की वजह से भी राफेल के दाम बढ़ाने पड़े। कीमत का विवरण दाखिल किया। इनमे यह भी उल्लेख था कि, राफेल सौदे को किस प्रकार से, अंतिम रूप दिया गया।

● 14 नवंबर- राफेल सौदे में अदालत की निगरानी में जांच की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा।

● 14 दिसंबर- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, सरकार की निर्णय लेने की प्रक्रिया पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है और जेट सौदे में कथित अनियमितताओं के लिए सीबीआई को प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश देने वाली सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया।

● 2 जनवरी, 2019- यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण ने 14 दिसंबर के फैसले की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की।

● 26 फरवरी- सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार याचिकाओं पर सुनवाई के लिए सहमत हुआ।

● 13 मार्च- सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि समीक्षा याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर किए गए दस्तावेज राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति संवेदनशील हैं।

● 10 अप्रैल- सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं द्वारा समीक्षा के लिए दस्तावेजों पर विशेषाधिकार का दावा करने वाली केंद्र की आपत्ति को खारिज किया।

● 10 मई- सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रखा।

● 14 नवंबर- सुप्रीम कोर्ट ने राफेल सौदे में अपने फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में राफेल सौदे के मामले में जांच की मांग को लेकर, याचिका दायर करने वाले सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट, प्रशांत भूषण, पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और प्रसिद्ध पत्रकार अरुण शौरी का कहना हैं कि, राफेल विमान सौदे में केंद्र सरकार ने जानबूझकर अनिल अंबानी को लाभ पहुंचाने के लिये, डसॉल्ट कम्पनी पर दबाव डाला।

(विजय शंकर सिंह पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं।)

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