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बसन्त्तोत्सव : सृजन का संवरण

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काम के अभाव में उद्यम औचित्‍यहीन हो जाता है। क्षीरसागर(दूध का समुद्र) को यदि रूपक माना जाये तो कच्‍चा दूध वह जीवन है जो हमें प्रारंभ में मिलता है, जबकि मक्‍खन संपन्न वैभव का वह प्रतीक है जिसे विषम वृत्ति समन्वय के मंथन से प्राप्त करते हैं। बैरागी शिव विश्‍व का परिवर्तन नहीं चाहते, इसलिए भोग में उन्‍हें कच्‍चा दूध चढ़ाया जाता है। दूसरी ओर विष्‍णु परस्‍पर प्रेम के लिए मंथन और संघर्ष से दूध(मानव प्रकृति) को मक्‍खन(पुरुषार्थ) में परिवर्तन करना चाहते हैं। इसलिए उन्‍हें(श्रीकृष्‍ण) मक्‍खन का भोग चढ़ाया जाता है।

इस प्रकार शिव और विष्‍णु प्रकृति के प्रत्‍युत्‍तर में अंतस चेतना के विविध स्‍वरूपों को जाग्रत करते हैं। वहीं देवी शक्तियों को हम आंवला, नीबू, मिर्ची और बलि अर्पित करते हैं, जो हमारे आसपास के बाहरी विश्‍वरूप का प्रतीक है। इस प्रकार देव हमारे मन, आत्‍मा, चैतन्‍य रूपी आंतरिक प्रकृति का शोधन करते हैं जबकि दैवीय शक्तियां हमारे बाहरी जगत के कामेच्‍छा की।
हिन्‍दू धर्म में संस्‍कारगत ऋण चुकाने पर ही मोक्ष मिलता है। इसलिए धन निर्माण और उसके संचालन के लिए योग नहीं भोग महत्‍वपूर्ण है। बैरागी शिव के स्‍वर्ग में भूख(काम) नहीं है इसलिए कैलाश में उनका परिवार अभय के साथ निवास करता है। मोक्ष और मुक्ति के देवता जीवन की इच्‍छा और मृत्‍यु के भय को नष्‍ट कर देते हैं । जबकि जीवन से जुड़े काम के देवता माधुर्य पुष्‍पबाणों से वासना और महत्‍वकांक्षायें जाग्रत कर हमें ऋणी बना देते हैं।
प्रेम के देवता कामदेव का आयुध(धनुष) गन्‍ने से जबकि उसकी प्रत्‍यंचा मधुमक्‍खी व ति‍तलियों से शोभित है।
काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपनें बस कीन्हे।
अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध से युक्‍त बाण इन्द्रियों के श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका को भेदकर हमें अन्‍न, संतुष्टि और प्रसन्‍नता के लिए तड़पाते हैं। तात्‍पर्य कि उनके बाण जब किसी निर्जीव(पार्थिव) को भेदते हैं तो वह भूख, प्‍यास, और कामनाओं की पूर्ति के लिए जीवंत हो उठता है। यही आकांक्षा हमारे भाग्‍य को निर्धारित करती है।
एक ओर खिलखिलाती प्रकृति है, तो दूसरी ओर हृदय में उठती प्रेम की उमंगें। यह प्रकृति और संस्कृति के आलिंगन का पर्व है। आइए चिंतन कर इसके रसात्मक आनंद में लीन हो जाएं।

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