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फिर छाने लगे हैं नफरत के बादल:अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़े

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हर्ष मंदर

2014 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के 10 वर्षों में भारत लगातार नफरत और भय के गणतंत्र में बदला। लिंचिंग, नरसंहार उकसाने वाले नफरती बयान और बुलडोजर उस शासन में बार-बार दोहराए जाने वाले राग बन गए। नफरत सामाजिक विमर्श और सत्ता द्वारा अपने मुस्लिम नागरिकों से व्यवहार की आम खुराक बन गई। उनके लिए डर रोजमर्रा जीवन का तत्व बन गया।

इसीलिए 2024 के आम चुनावों में मोदी और उनकी पार्टी का कमजोर प्रदर्शन राहत और उम्मीद की भावना ले आया। एक छोटी अवधि के लिए हमें लगा कि देश ने पिछले दस सालों के बुरे सपने को पीछे छोड़ दिया है।

आखिरकार, भारत की जनता ने स्पष्ट संदेश दिया कि नौकरियों, सस्ते भोजन, ईंधन, स्वास्थ्यसेवा, स्कूलों और साफ-सुथरी परीक्षाओं के साथ कामकाजी लोगों के रोजमर्रा जीवन को सुधारने में सत्ता की विफलताओं की भरपाई नफरत की राजनीति से नहीं हो सकती। इसके अलावा, मोदी अपने बूते सरकार नहीं बना पाए, उन्हें ऐसी पार्टियों का समर्थन लेना पड़ा जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारतीय मुस्लिमों को समान नागरिक न मानने की विचारधारा के खिलाफ हैं।

लेकिन चुनावी नतीजों के कुछ ही दिनों में, राहत और उम्मीद की नई रौशनी बुझ गई। ऐसा लगा जैसे संघ के अनुयायी, सरकार के बाहर और भीतर भी, नई सरकार के केवल एक महीने में मोदी दशक में फैलाए डर और नफरत का तेजी से दोहराव हासिल करना चाहते थे।

चुनावी नतीजे आने को एक महीना भी नहीं हुआ और देश ने मुस्लिमों ही नहीं ईसाइयों पर भी क्रूर नफरती हमलों की शृंखला देख ली है। खासकर मुस्लिमों की संपत्तियों को निशाना बनाने के लिए बुलडोजर वापस आए गए हैं। फिर शुरू हुआ दुस्वप्न – कभी न समाप्त होने वाला दुस्वप्न।

चुनाव बाद नफरती हत्याओं की पहली घटना छत्तीसगढ़ के रायपुर में घटी जब नतीजों के तीन दिन बाद ही तीन लोगों को लिन्च किया गया। 35 वर्षीय चांद मियां खान (35), गुड्डू खान (23) और सद्दाम कुरैशी (23) पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर और शामली से पशु व्यापारी थे। उन्होंने रायपुर के निकट महासमंद के एक गांव से भैंसें खरीदीं, जो वह उड़ीसा ले जा रहे थे। खबरों के अनुसार हमलावरों ने महानदी पल पर कीलें बिछा रखी थीं जिससे उनके ट्रक के टायर पंक्चर हो गए। ट्रक के रुकने पर लोगों की भीड़ पशु व्यापारियों पर टूट पड़ी।

भीड़ के हमले के बाद कुरैशी ने अपने रिश्तेदारों को फोन किया। उसने अपनी जेब में फोन चालू रखा और 47 मिनट तक उसके परिजन उसे और उसके साथियों को पीटते और अपनी जान की अमान मांगते सुनते रहे।

बेहोश होने से पहले उन्होंने हमलावरों से पानी मांगा, भीड़ ने विजेता के अंदाज में उन्हें पानी तक नहीं दिया। कारवां – ए – मोहब्बत की यात्राओं में लिन्चिंग के अधिकांश मामलों में हमने यह बात कई बार सुनी है। जानलेवा पिटाई से संभवत: अत्यधिक खून बह जाने से पीड़ित हमलावरों से पानी मांगते हैं और उन्हें पानी नहीं दिया जाता। हमलावरों ने तीनों को पुल से नीचे महानदी के किनारे चट्टानों पर फेंक दिया।

इस घटना के एक दिन बाद उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में एक गांव में मौलाना फारूक को उनके किरायेदार चंद्रमणि तिवारी ने मार दिया। मौलवी के बेटे ने बताया कि उनके पिता ने हमेशा किरायेदार की आर्थिक मदद की थी और दोनों के बीच कोई झगड़ा नहीं था। बेटे को समझ नहीं आया कि अचानक क्या हुआ जो उसने कुल्हाड़ी से उनके पिता को मार दिया।

एक और मस्जिद के इमाम की उत्तर प्रदेश के ही मुरादाबद के निकट गोली मारकर हत्या कर दी गई। एक सप्ताह भी नहीं बीता होगा कि उत्तर प्रदेश के अलीबाग में, 18 जून की रात एक 35 वर्षीय दिहाड़ी मजदूर मोहम्मद फरीद की भीड़ ने हत्या कर दी।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन और ऑल इंडिया सेंट्रल काउन्सिल ऑफ ट्रेड यूनियन्स की तथ्य शोधक रिपोर्ट के अनुसार फरीद एक दिहाड़ी मजदूर था जो शहर में पार्टियों में तंदूर पर रोटी बनाकर देता था। वह प्रतिदिन लगभग 400 रुपये कमाता था। अपने घर का वह इकलौता कमाऊ सदस्य था। उसकी मां, जिन्हें कुछ समय पहले पक्षाघात हुआ था, उपचार के लिए उस पर निर्भर थीं। फरीद के सभी पड़ोसियों ने उसे मेहनती और नेक बंदा बताया।

एक वीडियो दिखाता है कि लगभग 15 लोगों ने लाठियों से फरीद को पीट-पीट कर मार डाला। वह मिन्नतें करता रहा। भीड़ ने उसका ट्राउज़र उतारकर पुष्टि की कि वह मुसलिम था। भीड़ में से एक व्यक्ति चिल्लाया, “घुटने तोड़ो इसके।”

“घटना एक टेलर की दुकान के सामने घटी… टेलर मुस्लिम है। दुकान के ऊपर मकान से दो लोग फरीद को बचाने आगे आए। लेकिन उन्हें भी पीटा गया।”

भीड़ के हमले के बाद, कुछ लोगों ने उसे मलखान सिंह अस्पताल पहुंचाया। वहां के डॉक्टरों ने (पोस्ट मार्टम रिपोर्ट के अनुसार) पाया कि फरीद को डंडे से पीटने के 22 घाव थे, तीन हड्डियां टूटी थीं, फेफड़ा चोटिल था और खोपड़ी में चोट थी। अत्यधिक रक्तस्राव से जल्द ही उसकी मौत हो गई। बाद में बजरंग दल कार्यकर्ताओं ने दावा किया कि फरीद एक चोर था।

उसी दिन, हिमाचल प्रदेश के नाहन में, अखिल भारतीय विधार्थी परिषद कार्यकर्ताओं और स्थानीय व्यापारी संगठन के सदस्यों ने जावेद नामक व्यक्ति की कपड़ों की दुकान लूटी और पुलिस मूक दर्शक बनी रही। जावेद मूल रूप से उत्तर प्रदेश से है। भीड़ के अनुसार उनके भड़कने का कारण जावेद के व्हाट्सऐप स्टेटस में पशु बलि की तस्वीर लगाया जाना था। पुलिस ने बाद में पुष्टि की कि ईद के दिन उसने भैंस काटी थी, गाय नहीं और भैंस को काटना राज्य में प्रतिबंधित नहीं है।

दुकान लूटते समय भीड़ नारे लगा रही थी, “एक ही नारा, एक ही नाम, जय श्री राम”। कुछ हिन्दुत्व समूहों ने स्थानीय लोगों से मुस्लिमों को अपनी संपत्तियां किराये पर न देने का भी आह्वान किया। इस हिंसा के बाद ग्यारह लोग नाहन छोड़कर भाग गए। हिमाचल प्रदेश में सत्ता में कांग्रेस है।

चार दिन बाद, 22 जून को, गुजरात में एक 23 वर्षीय युवक सलमान वोहरा, जिसकी हाल में शादी हुई थी और पत्नी गर्भ से थी, को एक स्थानीय क्रिकेट मैच के मौके पर पीट-पीट कर मार दिया गया। कारण था कि मुस्लिम गैर- मुस्लिम खिलाड़ियों से बेहतर खेल रहे थे। दर्शक इस पर भड़क गए और उन्होंने जय श्री राम के नारे से मुस्लिम खिलाड़ियों को चिढ़ाना शुरू किया। फिर सलमान और दो अन्य मुस्लिमों को भीड़ पीटने लगी। वाइरल वीडियो में लोगों को हमलावरों से “मारो, मारो!” कहते सुना जा सकता है। उनके चाकुओं और डंडों से हमले के कारण सलमान बुरी तरह घायल हो गया। उसके गुर्दे और चेहरे पर वार किए गए। उसे एक स्थानीय अस्पताल ले जाया गया जहां उसकी मौत हो गई।

अगला निशाना एक ईसाई युवती 22 वर्षीय बिन्दु सोढ़ी बनी छत्तीसगढ़ के एक गांव में। वह हाल में ईसाई बनी थी। भीड़ ने उनकी मां, भाई-बहनों और उन पर उस समय हमला किया जब वह खेत में धान बो रही थीं।

पुलिस ने पीड़ित परिवार की कोई मदद नहीं की। बिन्दु का शव मुर्दाघर में रख दिया गया क्योंकि परिजन ईसाई पद्धति से अंतिम संस्कार करना चाहते थे जबकि ग्रामीण, जिन्हें पुलिस से गुप्त रूप से शह मिल रही थी, हिन्दू पद्धति पर जोर दे रहे थे। बिन्दु पर हमला इलाके में पहली घटना नहीं थी। पड़ोस के एक गांव में 12 जून को सात ईसाई परिवारों पर हमला किया गया था।

यहां तक कि जब मैं नफरती हिंसा की अंधेरी सुरंग में भारत के धंसने के बारे में यह लिख रहा था, कारवां – ए – मोहब्बत के मेरे साथियों ने झारखंड से एक और उन्मादी हत्या की खबर दी।

मौलाना शहाबुद्दीन हजारीबाग जिला के एक गांव में इमाम थे। वह अपनी मोटरसाइकिल पर मदरसा जा रहे थे, जहां उन्होंने 30 जून को पढ़ाया था। रास्ते में उनकी सड़क पर चल रही एक महिला को बचाने के चक्कर में उनकी मोटरसाइकिल फिसल गई। दोनों गिर गए। कुछ युवा वहां जमा हो गए और मौलाना को तब तक पीटा जब तक उनकी मौत न हो गई।

लेकिन उन्मादी हिंसा के इस ताज़ा फैलाव से चिंताजनक मध्य प्रदेश के आदिवासी जिले मांडला में एक गांव में पुलिस की कार्रवाई थी। यह 2015 में उत्तर प्रदेश के दादरी की उन्मादी हत्या की याद दिला रही थी जब कुछ ग्रामीणों ने दावा किया कि मोहम्मद अखलाक के रसोईघर के फ्रिज में उन्होंने गौमांस पाया था। इस कथित अपराध के लिए ग्रामीणों ने लाठियों और पत्थरों से उसे मार दिया।

अब, नौ साल बाद, यह पुलिस थी जिसने 11 मुस्लिम परिवारों के रसोईघरों और फ्रिज की तलाशी ली। उन्होंने भी गौमांस खोजने का दावा किया जबकि नमूने हैदराबाद की लैब में डीएनए विश्लेषण के लिए भेजे भी नहीं गए थे। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्पित कार्यकर्ता मोहन यादव के नेतृत्व में प्रदेश सरकार लैब की रिपोर्ट का इंतजार करना भी जरूरी नहीं समझा और 11 परिवारों को उनके घर ढहा कर सजा दे दी गई।

इसने गैरकानूनी “बुलडोजर न्याय” की वापसी का संकेत दिया। देश का कोई कानून कार्यपालिका को कोई अपराध करने वाले व्यक्ति का घर ढहाने की अनुमति नहीं देता। फिर संवैधानिक अधिकार और समुचित प्रक्रिया एक व्यक्ति को तब तक निर्दोष मानती है जब तक राज्य मशीनरी उसे किसी अदालत में दोषी साबित नहीं कर देती।

जैसाकि मैंने कहीं और लिखा है, प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के दूसरे कार्यकाल में भाजपा शासित राज्यों में “बुलडोजर न्याय” के लगातार इस्तेमाल ने संविधान और कानून के राज के प्रति उपेक्षा और अवमानना दर्शाई है।

एक बार फिर, 4 जून को आए चुनावी नतीजों से उम्मीद पैदा हुई थी कि भाजपा नेतृत्व संविधान की उपेक्षा कर हद पार करने से बचेगा। लेकिन स्पष्ट रूप से ऐसा नहीं हो रहा। मध्य प्रदेश में बुलडोजरों ने ऐलान कर दिया है कि मोदी के तीसरे कार्यकाल में भी असंवैधानिक गैरकानूनी स्थिति जारी रहेगी जिसका इस्तेमाल भारतीय नागरिकों के एक वर्ग को धार्मिक पहचान के आधार पर निशाना बनाने के लिए किया जाता है।

फिर, 25 जून को नगर निगम और पुलिस अधिकारी बुलडोजरों के साथ दिल्ली के मंगोलपुरी में एक मस्जिद पहुंचे और उसकी दीवार के 20 मीटर ढहा दिए। स्थानीय लोगों ने मानव शृंखला बनाकर इस कार्रवाई को रोका। दिल्ली नगर निगम में आम आदमी पार्टी का शासन है और दिल्ली पुलिस का नियंत्रण भाजपा-नीत सरकार के पास।

नई बनी सरकार का लोगों के नाम संदेश स्पष्ट है। उनके लिए, धरातल पर कुछ नहीं बदला। मुस्लिम नागरिकों को गैरकानूनी नफरती हिंसा -लोगों द्वारा भी और सीधे सत्ता द्वारा भी – का निशाना बनाने का उनका विचारधारात्मक प्रोजेक्ट जारी रहेगा बल्कि पहले से ज्यादा ढिठाई से जारी रहेगा।

चुनावी नतीजों ने आशावाद इसलिए भी पैदा किया था कि जब भारतीय मुस्लिमों को नफरती हिंसा और सत्ता से भेदभाव का सामना करना होगा तो पहले से मजबूत विपक्ष खुलकर उनके पक्ष में खड़ा होगा। लेकिन नई संसद के पहले महीने की समाप्ति पर यह उम्मीदें पूरी नहीं हो पाईं।

राजनीतिक विपक्ष ने अपनी आवाज वापस तो पाई है और संसद के अंदर और बाहर नौकरियों, किसानों, परीक्षाओं और अर्थव्यवस्था के मुद्दों पर बोल रहा है। लेकिन, विपक्षी नेता भारतीय मुस्लिमों के समान नागरिक अधिकारों, सुरक्षा, समानता, न्याय और भाईचारे के अधिकारों को बहाल करने व बनाए रखने की लड़ाई में अभी शामिल नहीं हुए हैं या मुठ्ठी नहीं कसी है।

इसीलिए मोदी के तीसरे कार्यकाल के लिए संकेत अभी उतने आशाजनक नहीं हैं। नफरत और भय के बादल, जो 4 जून को छंटते दिखाई दे रहे थे, फिर छाने लगे हैं। यह राजनीतिक विपक्ष के लिए कड़ी परीक्षा है, भारतीय संविधान की आत्मा को बचाने के लिए उनकी राजनीतिक और नैतिक साहस की ताकत की भी परीक्षा है। उनसे भी ज्यादा यह हमारी, भारतीयों की परीक्षा है।

(अनुवाद – महेश राजपूत)

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