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कॉलेजियम को खुला और पारदर्शी होने की जरूरत है

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– वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा

कॉलेजियम के भीतरी हिस्सों को धूप की ज़रूरत हो। यह इस रूप में तो नहीं हो सकती कि जिस पर नियंत्रण और संतुलन का ज़िम्मा है, उसे अपने नियंत्रण में ले लिया जाए। वैसे ही जैसे शेर के हिस्से बकरी की रखवाली के जिम्मेदारी। बेशक कॉलेजियम को खुला और पारदर्शी होने की जरूरत है। पीठों में और विविधता की आवश्यकता है। दायरा भी बढ़े।

हर सरकार की फ़ितरत होती है कि सब कुछ उसके नियंत्रण में हो। हाथ में जादू का एक ऐसा डंडा हो जिसे वह जब चाहे, जैसे चाहे इस्तेमाल कर सके। इसकी कल्पना हमारे पूर्वजों और फिर संविधान निर्माताओं को रही होगी शायद इसीलिए उन्होंने दंड विधान का सिद्धांत तो रखा ही, साथ ही ऐसी व्यवस्था भी रखी कि सत्ता इसमें शामिल तो रहे लेकिन सीधे-सीधे दखल न दे सके। अब जो दिखाई दे रहा है वह यह कि सत्ता इसमें दाख़िल भी होना चाहती है और दखल भी देना चाहती है। डंडे के सामने मौजूद दंड उसे खटक रहा है। इसकी शुरूआत तो तब ही हो गई थी जब नए बने उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपने भाषण में जजों की नियुक्ति के संबंध में सदन में अपना संदेह व्यक्त किया था।

उन्होंने पूछा था कि, आखिऱ किस हैसियत से सर्वोच्च न्यायालय ने जजों की नियुक्ति वाले विधेयक को ख़ारिज किया था। क़ानून मंत्री के बयान तो पहले से ही लक्ष्मण रेखा से जुड़कर आ ही रहे थे। हैरानी की बात तो यह है कि जो सरकारें क़ानून के ज़रिये अपना इक़बाल बुलंद रखते हुए , जनता के बीच उसका पालन सुनिश्चित करती थी, वे ही सरकारें अब न्याय व्यवस्था से दो-दो हाथ किये बैठी हैं। क्या लोकतंत्र की सेहत के लिए यह ठीक है कि जिस स्वतंत्र न्याय व्यवस्था की पैरवी भारत का संविधान करता है, भारत के संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्तियों का विश्वास ही उस पर से डगमगाता प्रतीत हो? बेशक जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम में कोई कमीबेशी हो सकती है लेकिन उसे यूं चौराहे पर लाकर चर्चित कर लोकतंत्र के मजबूत पाये को डिगाने की कोशिश क्योंकर हो रही है?

कानून मंत्री किरन रिजिजू ने पिछले साल नवम्बर में भी कह चुके थे कि कॉलेजियम सिस्टम में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी है। उधर मुख्य न्यायाधीश की भी शिकायत है कि सरकार उनके सुझाए नामों पर फ़ैसले लेने में देरी करती है। सरकार के पास अब भी 104 नामों की सूची लंबित है। अक्सर यह भी देखा गया है कि सरकार की इस देरी से कई अच्छे जज अपना नाम वापस ले लेते हैं। ज़ाहिर है कि अंतिम मंज़ूरी सरकार की ही होती है और उसके बाद ही फ़ैसले पर राष्ट्रपति की मुहर लगती है। फिर आखिऱ सरकार किस सीधे दखल की अपेक्षा कर रही है। चुनाव आयुक्त की ताबड़तोड़ नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहले ही सवाल उठा चुका है।

ईडी, सीबीआई, कैग (नियंत्रक और महा लेखापरीक्षक) की नियुक्तियां सरकार ही करती है और फिर ये स्वतंत्र संवैधानिक इकाइयां किसके इशारों पर काम करती हैं, यह भी देश देख रहा है। बहरहाल कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर शीतकालीन सत्र में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने संसद में अपने पहले भाषण में न्यायपालिका पर निशाना साधा था और फिर वे जयपुर के पीठासीन अधिकारियों के सम्मलेन में भी मुखर रहे।

सदन में लगभग चेतावनी देने वाले अंदाज़ में उन्होंने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) विधेयक को रद्द करने के लिए न्यायपालिका को लक्ष्मण रेखा की याद दिलाई थी। दरअसल (एनजेएसी) बिल संसद के दोनों सदनों से पास हुआ था, जिसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की खंडपीठ ने खारिज कर दिया था। राज्यसभा के सभापति ने याद दिलाया कि ‘यह उस जनादेश का अपमान है, जिसके संरक्षक राज्यसभा और लोकसभा है।’ उन्होंने कहा था कि एक संस्था द्वारा दूसरे के क्षेत्र में किसी भी तरह की घुसपैठ शासन को असहज करने जैसी होती है। धनखड़ की इस टिप्पणी ने न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सरकार के तेवर को साफ़ कर दिया था।

सुप्रीम कोर्ट की वकील इंदिरा जयसिंह ने हाल ही में अपने एक लेख में लिखा है कि सरकार जजों की नियुक्ति के लिए जिस ‘सर्च कम इवैल्यूएशन कमिटी’ की बात करती है उसका अभी कोई अस्तित्व ही नहीं है। आज जो क़ानून है उसके मुताबिक कॉलेजियम में शामिल मुख्य न्यायाधीश और उनके अलावा दो सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस की नियुक्ति करते हैं और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति सीजेआई और चार सीनियर जज करते हैं। क्या वाकई यहां किसी सर्च कम इवैल्यूएशन कमिटी की ज़रूरत है? फिर इनकी नियुक्तियों के लिए क्या मानदंड रखा जाएगा? सरकार चतुराई से इन नियुक्तियों में शामिल हो जाना चाहती है। फिर न्यायपालिका के स्वतंत्र अस्तित्व की अवधारणा का क्या होगा जिसका उल्लेख संविधान में है।

संविधान में सभी अंगों की शक्तियां बेहद स्पष्ट हैं और यह न्याय व्यवस्था है जिसके पास सरकार की कार्य प्रणाली पर नियंत्रण और संतुलन का अधिकार है पर यहां सरकार खुद इसमें शामिल हो जाना चाहती है। क्या यह मुर्गियों के दड़बे में लोमड़ी के आ जाने जैसा नहीं है? राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) बिल न्याय व्यवस्था की स्वतंत्रता को पूरी तरह ख़त्म कर देने जैसा होगा। फैसले केवल दो तरीकों से पलटे जा सकते हैं- पहला ‘उस आधार को ही निरस्त किया जाए जिसके हिसाब से फैसला दिया गया है और दूसरा फ़ैसले को दूसरी और बड़ी पीठ ख़ारिज करे। ऐसी कोई पहल सरकार ने नहीं की लेकिन संवैधानिक पदों पर आसीन उपराष्ट्रपति और क़ानून मंत्री लगातार बयान दे रहे हैं जो देश में जनता को न्यायपालिका जैसी संस्था के ख़िलाफ़ अविश्वसनीय और कमज़ोर साबित करने की कोशिश है। अगर सरकार वाकई गंभीर है तो फैसला रद्द होने के बाद फिर कानून बना सकती थी। वकील लिखती हैं कि ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जिसमें कॉलेजियम ने सरकार और फिर राष्ट्रपति के अनुमोदन के बिना किसी को सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाया हो।

आखिर ऐसा क्यों है कि सरकार को सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका खटक रही है। पिछले कुछ समय में आए कई फैसले जिनमें राम मंदिर, राफेल, पेगासस जासूसी मामला, आर्थिक रूप से कमज़ोर को आरक्षण, आधार, सेंट्रल विस्टा, नोटबंदी जैसे बड़े फ़ैसले तो सरकार के मुताबिक ही आए हैं लेकिन राफेल और पेगासस में आतंरिक सुरक्षा के हवाले के बाद सुप्रीम कोर्ट कुछ नहीं कह पाया लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर ज़रूर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार द्वारा ताबड़तोड़ की गई नियुक्ति पर सवाल उठाया था। यह केवल सवाल भर नहीं था, यह स्वतंत्र संवैधानिक इकाई चुनाव आयोग पर सरकार के शिकंजे की ओर इशारा भी था।

जिस चुनाव आयुक्त की नियुक्ति होती है वह 24 घंटे के भीतर वीआरएस लेता है और नियुक्ति हो जाती है। अब जब नियुक्ति में सरकार यूं सीधे दखल रखेगी तब क्या वह अधिकारी जब संवैधानिक प्रमुख हों तब सरकार को कटघरे में खड़ा कर सकता है? यह भी महत्वपूर्ण है कि इस मसले पर तत्कालीन एटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को जवाब में कहा था- ‘यदि आप हर कदम पर संदेह करना शुरू करेंगे तब संस्था की स्वतंत्रता और अखंडता और उसके प्रति जो धारणा जनता के बीच बनी हुई है उस पर प्रभाव पड़ेगा।

क्या कार्यपालिका को हर मामले में जवाब देना होगा?’ यहां जवाब नहीं देने की मंशा साफ़ झलकती है लेकिन सवाल फिर वही है कि जब चुनाव आयोग के लिए सरकार का यह जवाब हो सकता है तो फिर सुप्रीम कोर्ट के लिए रवैया अलग क्यों? आखिर क्यों नहीं इस पद पर एक स्वतंत्र सोच का व्यक्ति हो जो देश में चुनाव के निर्णय सत्ताधारी पार्टी के अनुकूल नहीं बल्कि अपनी स्वतंत्र चेतना और जनता के हिसाब से ले। नियुक्ति की शक्ति जिसके हाथ होगी फिर फ़ैसले भी उसी के अनुकूल होंगे यानी सत्ता के। ताज़ा मामला गुजरात और हिमाचल चुनाव की अलग-अलग तारीख़ का था। आने वाले समय में कर्नाटक का हिजाब विवाद से जुड़ा मामला, 1991 का एक्ट जिसके तहत 15 अगस्त 1947 के बाद से पूजा स्थलों को यथावत रखे जाने का मामला, इलेक्ट्रॉनिक बांड का मामले भी फैसलों के इंतज़ार में है और संभव है कि सरकार इसमें अपने दखल से मनोनुकूल फै़सले की चाहत रखती हो।

संभव है कि कॉलेजियम के भीतरी हिस्सों को धूप की ज़रूरत हो। यह इस रूप में तो नहीं हो सकती कि जिस पर नियंत्रण और संतुलन का ज़िम्मा है, उसे अपने नियंत्रण में ले लिया जाए। वैसे ही जैसे शेर के हिस्से बकरी की रखवाली के जिम्मेदारी। बेशक कॉलेजियम को खुला और पारदर्शी होने की जरूरत है। पीठों में और विविधता की आवश्यकता है। दायरा भी बढ़े। हर कोई ख़ुद को उसके लिए नामांकित कर सके। महिलाएं और दलित भी ज़्यादा से ज़्यादा शामिल हों। किसी खानापूरी या दिखावे के लिए नहीं। अभी जो होते हुए दिख रहा है वह सिलसिलेवार स्वतंत्र इकाइयों पर सरकार की अपनी छाप लगाने की कोशिश है। अमेरिका के सातवें राष्ट्रपति एंड्रू जैक्सन का कथन है कि संविधान से मिले नागरिक अधिकारों की हैसियत कभी भी उस बुलबुले से ज़्यादा नहीं होगी यदि उसे एक स्वतंत्र न्यायपालिका से संरक्षित न किया गया हो।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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