Site icon अग्नि आलोक

वास्तु-शास्त्र : भवन में रंग-संयोजन और चित्रांकन-विधान

Share

पवन कुमार

(निदेशक : काशीविश्वनाथ वास्तुज्योतिष संस्थान, वाराणसी)

       _ईश्वर् के द्वारा बनाई गई हर वस्तु महत्वपूर्ण है। उसकी सृष्टि में कोई भी वस्तु निरर्थक नहीं है। ईश्वर् ने प्रकृति को विभिन्न वर्ण दिये हैं।_

         वर्ण के दो अर्थ होते हैं–अक्षर और रंग। अक्षर को वर्ण इसलिए कहा जाता है कि अक्षरों (वर्ण मातृकाओं) में  विभिन्न वर्णों की रश्मियां प्रस्फुटित होती हैं। इसीलिये वर्ण का दूसरा अर्थ रंग भी होता है।

  प्रकृति की आध्यात्मिक कृति उसका मनमोहक रूप है। हर पुष्प, हर पौधा, हर वृक्ष अपनी- अपनी अलग छटा बिखेरता है जो मन और प्राणों को मोह लेती है। रंगों का हमारे जीवन में भी बड़ा महत्व है। रंग ऊर्जा में संतुलन लाते हैं। वे जीवन में सजीवता, जीवन्तता लाते हैं। 

       ईश्वर् ने रंगों का महत्व स्वयम् समझाया और सिद्ध किया। नारायण सृष्टि के पालक हैं, इसलिए वे पीत वस्त्र धारण करते हैं। पीत रंग बुद्धि, धैर्य, पराक्रम और ज्ञान का प्रतीक है। देवताओं के गुरु बृहस्पति भी पीत वस्त्रधारी हैं।

       धार्मिक आयोजनों में भी पीत वस्त्रों का अपना महत्व है। प्रकृति प्रदत्त पके फल भी अधिकतर पीत वर्ण में होते हैं जो बल, बुद्धि और क्रियाशीलता प्रदान करते हैं।

       इसी प्रकार माँ सरस्वती श्वेत वस्त्र धारण करती हैं जो ज्ञान, प्रज्ञा शुद्धि, सात्विकता की प्रतीक है। लाल वस्त्र भगवती दुर्गा और लक्ष्मी धारण किये हुए हैं जो दया, शौर्य, ऊर्जा और दमन का प्रतीक है।

       प्राचीन काल में ऋषियों ने गैरिक रंग को महत्व दिया था जो साधना, सौम्यता और वैराग्य का प्रतीक है। वहीं काला वस्त्र यम और शनि धारण करते हैं। दोनों देव न्याय और शासन के प्रतीक हैं  बिना कठोरता के शासन करना और न्याय करना असम्भव है। यही कारण है कि न्यायालय में इस रंग का उपयोग अधिवक्ता और न्यायाधीश करते हैं।

        रेलवे में भी टी.सी.भी काला कोट धारण करता है जो भय का प्रतीक है। न्याय भावुकता से नहीं हो सकता, इसीलिये काला रंग कठोरता, निरपेक्षता का प्रतीक है।

       किसी भी भवन में गृह-स्वामी का शयन-कक्ष, कारखानों, कार्यालयों और दक्षिण-पश्चिम भाग् में जो कक्ष हो, वहां की दीवारों का रंग हल्का गुलाबी या नींबू जैसा हल्का पीला हो तो अच्छा रहता है। गुलाबी रंग प्रेम का प्रतीक है।

      यह आपस में प्रेम, लगाव और सौहार्द बढ़ाता है। इस स्थान पर गहरा हरा व लाल रंग विपरीत मनोवृत्ति पैदा करता है।

      उत्तर-पश्चिम के कक्ष में हल्के स्लेटी रंग का प्रयोग करना चाहिए। वास्तुशास्त्र के अनुसार यह कक्ष घर की अविवाहित कन्याओं के रहने के लिए और अतिथियों के ठहरने के लिए उचित माना गया है।

      भवन के दक्षिणी ओर के कक्ष में नारंगी रंग का प्रयोग सही माना गया है। इस रंग के प्रयोग से मन में स्फूर्ति और उत्साह का संचार होता है। इसके ठीक विपरीत रंगों या हल्के रंगों का प्रयोग सुस्ती और आलस बढ़ाता है।

      भवन के पूर्व की ओर बने कक्ष में सफेद रंग का प्रयोग किया जाना चाहिए। सफेद रंग सादगी और शांति का प्रतीक है। इस स्थान पर गहरे रंगों के प्रयोग से मन में चञ्चलता  रहने लगती है।

      भवन के पश्चिम दिशा का कक्ष नीले रंग का होना उचित है। ऐसा करने से उस कक्ष में रहने वाले आज्ञाकारी व आदर-सम्मान देने वाले बने रहेंगे। अध्ययन कक्ष के लिए भी यही रंग शुभ माना गया है। नीला रंग, नीलाकाश की विशालता, त्याग तथा अनंतता का प्रतीक है। उस कक्ष में रहने वाले का मन संकीर्ण नहीं रहता, ओछे विचारों का नहीं रहता।

      भवन के उत्तरी-पूर्वी भाग् को हरे और नील रंग के मिश्रण से रंगना अच्छा माना जाता है। यह स्थान ‘जलतत्व’ का है। यहां गहरे रंगों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। भवन का दक्षिण पूर्वी भाग् ‘अग्नितत्व’ का माना जाता है। इस स्थान की साज-सज्जा पीले रंग से करनी चाहिये।

*रंगों के अतिरिक्त कुछ अहम बातें*

      घर में सूखे-मुरझाये फूल बहुत दिनों तक नही रखने चाहिए क्योंकि उनकी ऊर्जा क्षीण हो चुकी होती है।

       फूल मुरझाने के बाद बेचैनी और शून्यता बढ़ाने का काम करने लगते हैं। प्रायः लोग दरवाजों के ऊपर माला-फूल लगाते हैं और अवसर निकल जाने के बाद इन्हें हटाते नहीं हैं, वे सूखते रहते हैं जो एक प्रकार से बहुत बड़ा वास्तु-दोष है।

          ताजे फूल जीवनी-शक्ति के प्रतीक होते हैं। फूलों को शयन-कक्ष के

       वजाय बैठक में रखना उपयुक्त रहता है जिससे सकारात्मक ऊर्जा चारों ओर फैलती है। गृहस्वामी के सौभाग्य की वृद्धि भी करती है।

    *शयन-कक्ष, अध्ययन-कक्ष आदि*

इस में बड़ा दर्पण प्रथम तो होना नही चाहिए, लेकिन यदि लगाना आवश्यक हो तो वह वायव्य दिशा ( पश्चिम-उत्तर) में होना ठीक रहता है। वायव्य दिशा चन्द्रमा का स्थान है।

      यदि आप नैरेत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में दर्पण लगाते हैं तो मन अशांत रहेगा। क्योंकि यह स्थान राहु का भी माना गया है।

      शयन-कक्ष में हमेशा शुक्र ग्रह के रंगों का प्रयोग करना चाहिए। जैसे–हल्का नीला, हल्का बैगनी, गुलाबी, सफेद आदि। लाल, पीला, सिन्दूरी रंग मंगल का रंग है। मंगल शुक्र के कार्यों में बाधा पहुंचाता है।

         इसी प्रकार राहु भौतिकतावादी विचारों का और अनैतिक विचारों का निर्माण भी करता है। इसीलिए शयन-कक्ष में काले रंग की वस्तुएं नहीं रहनी चाहिए। शयन-कक्ष के लिए नैरेत्य कोण सबसे उपयुक्त स्थान है। इस दिशा का मुख्य स्वामी यम है जो शक्ति और विश्रामदायक है।

 शयन-कक्ष में सकारात्मक ऊर्जा का रहना जरूरी है। उसी प्रकार की इसकी साज-सज्जा करना आवश्यक है।

     भवन में हिंसक और युद्ध आदि के चित्र नहीं लगाने चाहिए। फल-फूल और बच्चों की तसबीरें जीवन-चेतना की प्रतीक होती हैं जिन्हें घर के पूर्वोत्तर दिशा में लगाना चाहिए। तालाब, झील, सूखी नदियों के चित्र शुभ नहीं माने जाते क्योंकि वे गतिहीनता के द्योतक होते हैं।

       कांटों वाले शुष्क पेड़, खंडहर के दृश्य भी घर में नहीं होने चाहिए। यदि आपको चित्र लगाना ही हो तो वसंत ऋतु के चित्र, स्वास्तिक, कलश, घोड़ा, गाय, हाथी के चित्र लगाना ठीक है।

         दक्षिण दिशा में अपने पूर्वजों के चित्र नहीं होने चाहये। रसोईघर में देवता और पूर्वजों के चित्र नहीं होने चाहिए।

      यदि भवन के मुख्य द्वार पर सामने से उर्जा-प्रवाह में गतिरोध हो तो उसे ‘द्वारवेध’ कहते हैं। अगर यह द्वारवेध भवन की ऊँचाई से दोगुनी दूरी पर हो तो वह कोई महत्व नहीं रखता।

        ये ‘वेध’अनेक प्रकार के हो सकते हैं जिन्हें जानना आवश्यक है। द्वार खोलते और बन्द करते समय जो स्वर उत्पन्न होता है, उसे ‘स्वरवेध’ कहते हैं। यह मानसिक तनाव और अस्थिरता का कारक माना जाता है। द्वार के सामने कुआं, सेप्टिक टैंक या भूमिगत नालियां हों तो इससे धनहानि होती है और आर्थिक समृद्धि नहीं के बराबर होती है।

        मुख्य द्वार के सामने किसी भी प्रकार की मशीन, आटा-चक्की, कटिंग मशीन लगी हो तो उसे ‘ब्रह्मवेध’ कहते हैं जिसके कारण भी घर के सदस्यों में तनाव रहता है, जीवन में अस्थिरता रहती है। प्रवेश- द्वार के सामने प्रायः लोग जानबर बांधने के लिए खूंटा गाड़ लेते हैं, तो वह ‘कीलवेध’ कहलाता है। वह प्रगति में बाधक होता है।

          उसे तत्काल हटवा देना चाहिए। इसी प्रकार मुख्य द्वार के सामने बिजली का खंभा हो तो उसे ‘स्तम्भवेध’ कहते हैं जो व्यापार के साझेदारोँ में मतभेद और वैमनस्य पैदा करता है।

       _प्रवेश द्वार के सामने गैराज और चौकीदार के लिए कक्ष भी नहीं होना चाहिए। मुख्य द्वार मकान के बीचोबीच नहीं होना चाहिए। संतानों के लिए कष्टकारी होता है।_

         मुख्य गेट अगल-बगल लगे पिलर्स से ऊंचा भी नहीं होना चाहिए। इससे गृहस्वामी को परेशानी रहती है।

      भवन निर्माण करने से पूर्व भूमि-पूजन ईशान कोण में किया जाता है, लेकिन भवन-निर्माण का आरंभ ईशान कोण से नहीं करना चाहिए। जब भी भवन- निर्माण आरम्भ करें, पश्चिम-दक्षिण के कोण से करें। यदि गृहस्वामी उत्तर दिशा में शयन करता है तो उसका स्वामित्व और प्रभुत्व कम होने लगता है।

       पूर्व-दक्षिण का कोना अग्निस्थान के लिए है, यदि पति-पत्नी वहां शयन करते हैं तो दोनों में खगड़ा होना स्वाभाविक है। यदि बुजुर्ग हैं तो हर समय दवाई ही खाते रहेंगे। पश्चिम में सोने वाले व्यक्ति के दिल में कोई बात पच नहीं सकती, वह घर के रहस्यों को ही बाहर उजागर करता रहता है। पश्चिम-उत्तर के कक्ष में  सोने वाले व्यक्ति का मन बाहर ही भटकता रहता है।

       _अध्ययन कक्ष पश्चिम दिशा के बीचोबीच बनाना श्रेयष्कर रहता है, क्योंकि वहां शनि का प्रभाव रहता है जो मन को एकाग्रता प्रदान करता है। अध्ययन करने वाले का मुख उत्तर-पूर्व की ओर रहना चाहिए। विद्यार्थियों के लिए यह दिशा सर्वोत्तम है।_

         (चेतना विकास मिशन)

Exit mobile version