अग्नि आलोक

शास्त्रीय नृत्य के विकास में पौराणिक मिथकों का योग

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डॉ. ज्योति

पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
संत: परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढ़: परप्रत्ययनेयबुद्धि:॥
~कालिदास : मालविकाग्निमित्रम्‌ (1-2)

[पुरानी होने से ही कोई चीज़ (यहाँ काव्य) अच्छी नहीं हो जाती, न ही नई होने से बुरी। समझदार लोग तो विवेक से परीक्षण करने के बाद ही अच्छे-बुरे का निर्णय करते हैं, जब कि मूर्खों की बुद्धि सुनी-सुनाई बातों पर जाती है.]
देश के विभिन्न भागों में प्रचलित शास्त्रीय नृत्य की पद्धतियों का अपना इतिहास और उनकी अपनी विशिष्ट स्थानीय पहचान होने के बावजूद उनका विगत में भरत के नाट्यशास्त्र से जुड़ा होना और उससे जीवन-रस ग्रहण करना वह बिंदु है जो हमारी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक एकता को संबल प्रदान करता है, उसे दृढ़ करता है. यह सांस्कृतिक एकता हमारी राष्ट्रीय साझेदारी का सेतु बनती है और हमें एक ख़ास राष्ट्रीय पहचान देती है. इस अर्थ में स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय-सांस्कृतिक फलक पर भरत के योगदान का आकलन होना अभी बाक़ी है.

हमारे सारे शास्त्रीय नृत्य उपनिषद-महाभारत एवं पौराणीक मिथकों से सामग्री लेकर उसका पुनर्सृजन करते हैं, और ये मिथक पूरे देश की साझी और जीवंत विरासत हैं. 

    शुद्ध नृत्य (नृत्‌ या नृत्त) उसका एक चरण भर है; उसमें भी अभिनय पूर्णत: लुप्त नहीं होता, उसका अमूर्तन हो जाता है।

   मुझे मेरे द्वारा देखी गई कुछेक नृत्य नाटिका का स्मरण हो रहा है. पहली नृत्य नाटिका कृष्ण की बाललीला पर थी. यशोदा और बालक कृष्ण दोनों भूमिकाओं में रह-रहकर नृत्यागना का अंतरण हो रहा था. शरारती कृष्ण अपने प्रकृत नटखटपन को बालसुलभ भोलेपन के आवरण से ढकते हैं और यशोदा अपने सहज वात्सल्य को कृत्रिम रोष से. नृत्यांगना पल-पल में यशोदा और कृष्ण की भूमिकाएँ बदल रही थीं और उसी के साथ उनके चेहरे का भाव-परिवर्तन हो रहा था.

      यह नाटक में नाटक था. कृष्ण भोले बनने का नाटक कर रहे थे, जिसमें उनका दबा हुआ नटखटपन झलकता था. और नृत्यांगना कृष्ण के उस नाटक का नाटक कर रही थी किंतु इतनी कुशलता से कि कृष्ण का नाटक भी भासित हो जाए.

       इसी तरह यशोदा के रोष का नाटक करते हुए उनका वात्सल्य भी झलक पड़ता था. मैं सोच रहा था, यह कैसे संभव होता होगा. बस आँखों और ओठों की भंगिमा से तो बात बनती नहीं. फिर समझ में आया कि यह तो अंत:करण की गहन संवेदना से ही उद्भूत हो सकता है, जो स्वत: चेहरे का भाव बदल देती है. संचारी भावों और सात्विक भावों का खेल.

       अगली नाटिका चीर-हरण की थी जिसमें यमुना में नग्न नहाती गोपियों को अपने वस्त्रों के लिए कृष्ण से याचना करते हुए देर तक झिझकने-शरमाने के बाद वैसे ही पानी से बाहर आना होता है.

     नृत्यांगना राधा और उनकी वरिष्ठ शिष्याएँ अन्य गोपियाँ बनी थीं. पूरे परिधान में उन्हें नग्नता के भाव का अभिनय करना था, अपने शरीर को हाथों से, बालों से, यहाँ-वहाँ से छिपाना था, लज्जा से गड़ जाना था. कितने मनोयोग से, कितने वर्षों तक किए गए अभ्यास से वह लज्जा, वह संकोच, वह ग्लानि चेहरे पर आती होगी—सारे वस्त्र पहने हुए हैं और चेहरे पर नग्नता के भाव से गड़ी जा रही हैं. उन और कितनी मर्यादा और श्लीलता से!

    अगली नृत्य-नाटिका राधा-कृष्ण के युगल नृत्य की थी, जिसमें नृत्यांगना की युवा बेटी कृष्ण की भूमिका निभा रही थी और वे राधा की. बेटी अभी परिपक्व नहीं थी, किंतु उसकी कमी माँ की सिद्धहस्तता से छिप जा रही थी. साधनारत दो पीढ़ियाँ हमारे सामने थीं—युवा किंतु अपरिपक्व, मँजी हुई किंतु अधेड़. रूप-सज्जा से उम्र का असर काफ़ी ढक जाता है, किंतु उसकी भी एक सीमा होती है. फिर भी दर्शक भाव-विभोर. शास्त्रीय नृत्यों में एक विडंबना ज़रूर निहित है.

      जब तक नृत्यांगना अपनी कला में पूर्ण निष्णात होती है, उम्र और उसके साथ-साथ शरीर ढलने लगता है. इन नृत्यों में दीर्घकालीन साधना का कोई शॉर्टकट नहीं.

      तभी ध्यान आया इन मिथकों की घटना-स्थली मथुरा-वृंदावन यहाँ से कितनी दूर, रहन-सहन और सांस्कृतिक परिवेश में अन्यथा कितनी भिन्न है! और ये नृत्यांगनाएँ  देश के दूसरे कोने में बैठकर, उस सुदूर धरती से जुड़े मिथकों का कितना सूक्ष्म निदर्शन, कितना अंतरंग पुनर्सृजन कर रही हैं, इसके लिए कितना अभ्यास किया होगा, घटनाओं से जुड़े मिथक में पर्त-दर-पर्त कितनी डूबी होंगी. वहाँ के लोगों को तो कभी भान तक न होगा. तभी मुझे कौंधा कि ये मिथक और गायन-नर्तन में उनका पुनर्सृजन हमारी सांस्कृतिक एकता को, हमारी पहचान को कितने गहरे जाकर पुख़्ता करते हैं.

       अवतारवाद में कितनी कल्पना है, कितना यथार्थ, पता नहीं, किंतु अवतारों और अन्य पौराणिक मिथकों ने गायन, नर्तन,  साहित्य, मूर्तिकला और चित्रकला के लिए कितनी समृद्ध सामग्री हमें विरासत में दी है! जिन देशों के पास यह नहीं है, वे सांस्कृतिक रूप से कितने सूखे, कितने दरिद्र होंगे! और यह सारी विरासत सामासिक है, एक ही राष्ट्रीय इकाई के घटक के रूप में हम सब की है. यही है जो हमें इतनी विविधता के बावजूद एक बनाती है, भारतीय बनाती है और उस रूप में एक ख़ास पहचान देती है। विदेश जाने पर यह पक्ष ज़्यादा शिद्दत से महसूस होता है.

पुराणों में कुछ इतिहास और कुछ तत्वज्ञान के साथ अलौकिक और काल्पनिक कथायें भरी पड़ी हैं जिनको अक्षरश: सत्य मानना निरी कूप-मंडूकता होगी। किंतु कलाओं में पुनर्सृजित होकर वे सौंदर्य-बोध के विविध आयामों का दर्पण बन जाती हैं। उनके इस बहुमूल्य सांस्कृतिक पक्ष के लिए उनके दकियानूसी, वर्णाश्रम-पोषक तत्वों को पृथक्‌ करने और उनसे सम्बंधित विचारों को अतीत का त्याज्य बोझ मानने के सिवा और कोई विकल्प नहीं.

     ‘परम्परा’ का निहितार्थ भी यही है, किसी भी परम्परा का। रूढ़ि से सर्वथा भिन्न परम्परा कोई स्थिर, अकाट्य अवधारणा नहीं है. यह बँधे हुए तालाब का सड़ता हुआ जल नहीं, समयानुकूल नम्य और निरंतर गतिशील वह जलधारा है जो अप्रासंगिक और प्रवाह में बाधक बन चुके प्रतिगामी तत्वों को त्यागते और अग्रगामिता के लिए ज़रूरी नवीन तत्वों को समाविष्ट करते, निरंतर प्रवाहित होती रहती है.

       सनातन का सार ये पौराणिक कथायेँ नहीं, वह उदार और बहुआयामी जीवन दर्शन है जो ऋग्वेद के ‘एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदंति’ की भावना से अनुस्यूत उपनिषदों से और षड्दर्शन के आचार्यों द्वारा किये गए मुक्त चिंतन से नि:सृत है।

      इनमें भी पूर्वमीमांसा वेदों के कर्मकांड पर केंद्रित होने से युगीन प्रासंगिकता खो चुका है। शेष पाँचों में कपिल का निरीश्वार सांख्य भी सम्मिलित है जो ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार करते हुए, सृष्टि को स्वयंभू मानता है, और जीवन का लक्ष्य त्रिगुणमयी प्रकृति के बंधन से मुक्त, शुद्धचेतन ‘पुरुष’ (नैतिक-बोध से सम्पन्न स्त्री-पुरुष) बनने में मानता है। वेदांत मानव-चेतना के उन्नयन से मनोमय जगत एवं वस्तुजगत के एकत्व-बोध का लक्ष्य प्रतिपादित करता है।

       शंकर का अद्वैत वेदांत इसी आंतरिक एकत्व-बोध की सर्वोच्च प्रतिष्ठा है। सनातन जीवन एक साथ सांसारिक और आत्मिक है जिसके चार पुरुषार्थ निर्धारित हैं—धर्म (नैतिकता),  अर्थ, काम और मोक्ष—धर्मानुरूप अर्थ (जीविकोपार्जन) और धर्मानुरूप काम (कला, संदर्य, संस्कृति, सभ्यता, और इंद्रियभोग) स्वत: एक पूर्णकाम जीवन की ओर ले जाते हैं। और पूर्णकाम जीवन ही मोक्ष है। (चेतना विकास मिशन).

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