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स्त्रीप्रधान समाज का संकल्पनात्मक स्वरूप*

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डॉ. विकास मानव

 _मेरे अन्दर की स्त्री सोचती है कि कितना अच्छा होता यदि ये समाज महिला प्रधान होता. सरकारें, व्यापार, परिवार सभी जगह महिलाओं की ही प्रमुखता होती._
  फिर धर्म भी महिला प्रधान ही होते, धर्मग्रन्थ भी महिलाओं ने ही लिखे होते. महिलाएं ही मन्दिरों में पुजारी होतीं और पुरुषों के लिए नियम अलग होते. 

संभवतः तब शास्त्रों में पुरुषों को किस प्रकार आचरण करना चाहिए ये बताया जाता और स्त्रियाँ किस प्रकार पुरुषों को वश में रखें इसके तरीके भी सिखाये जाते तथा ये भी बताया जाता कि पुरुषों को अधिक स्वतंत्रता देने से हमेशा उनके बिगड़ जाने का डर रहता है.
तब स्त्री प्रधान समाज में पुरुषों को दोयम दर्जे का बनाने के लिए उन्हें जन्मजात अपवित्र, जाहिल, मूर्ख जैसी संज्ञाएँ दी जातीं और कई तरह के प्रतिबन्ध लगा दिए जाते.
तब प्रमुख रूप से धर्म को जिन्दा रखने का कार्य पुरुष करते, पुरुष ही अधिकतर धार्मिक स्वभाव के होते, तीज त्यौहार व्रत अधिकांशतः पुरुषों के लिए होते और महिलाएं तो गुरुआइ करतीं और नोट गिनतीं.

कभी कभार कुछ इक्का दुक्का पुरुष भी संत बन जाते तो क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी उनके पीछे भागते.
कई जगह तो हो सकता था कि पुरुषों को हिजाब और बुरका पहनना पड़ता कि कहीं उनके सौन्दर्य को देखकर महिलाओं की नीयत न डोल जाये और पुरुष किसी बदसुलूकी का शिकार न हो जाएँ.
महिलाएं चार पुरुषों से शादी कर पातीं और किसी से नहीं जमती तो आसानी से तलाक दे देतीं. साथ ही उन्हें जन्नत में लम्बे चौड़े तगड़े बलिष्ठ और कुंवारे पुरुष मिलने का लोभ भी होता.

सरकार में भी महिलाओं की ही प्रमुखता होती और पुरुषों के लिए अलग से क़ानून बनते तथा टैक्स में भी छूट मिलती.
पुरुषों के हितों का विशेष ध्यान रखा जाता और सभी लोग खासकर महिलाएं संसद में पुरुषों के लिए आरक्षण की बातें करतीं हांलांकि देता कोई भी नहीं.
फिर कभी कोई पुरुष राष्ट्रपति बन जाता तो हम कितना गर्व करते. सेना में महिलाओं की संख्या अधिक होती और एकाध पुरुष बटालियन भी रखी जाती.

कानून में पुरुषों के प्रति सहानभूति होती और उनके स्तर को कैसे सुधारा जाये इस बात का ध्यान रखा जाता.
फिर एक “पुरुष एवं बाल विकास मंत्रालय” होता और एक “राष्ट्रीय पुरुष आयोग” भी होता जो कि किसी भी पुरुष मात्र की इज्ज़त पर जरा सी भी आंच आने पर तुरंत जाँच बिठा देता और महिलाओं को सबसे जादा डर इसी पुरुष आयोग का होता.

पुरुष अपराधियों को हमेशा आदमी होने का लाभ मिलता और जब तक पुरुष पुलिस नहीं हो उन्हें कोई हाथ भी नहीं लगा पाता.
पुरुषों को महिलाओं की बराबरी देने के नारे लगते और उनके समानता तथा स्वातंत्र्य की वकालत करने वाले बहुत से संगठन बनते.
महिला प्रधान समाज में अधिकतर महिलाएं ही काम काज व व्यापार करतीं और पुरुषों को सामान्य गृहकार्य, भोजन, साफ़ सफाई तथा बाल बच्चों की देखभाल करनी होती और उन्हें बड़े ही सम्मानजनक ढंग से अंग्रेजी में “हाउस हसबैंड” कहकर पुकारा जाता.

गली मोहल्लों में पुरुषों की गप्प गोष्ठियां या बिल्ला पार्टी हुआ करती और दुनिया भर की महिलाएं कहा करतीं कि आखिर ये आदमी इतना बोलते क्यों हैं?
ट्रेनों में पुरुष डिब्बे अलग से लगते और बसों में पुरुषों के लिए कुछ सीट आरक्षित होतीं, साथ ही भीड़ भरी बस में पुरुषों से सटकर खड़े होकर यात्रा करने में महिलाओं को विशेष आनंद की अनुभूति होती.
स्कूल कालेज आते जाते लड़कों पर लड़कियां फब्तियां कसती, उनका पीछा करतीं और लड़कियों की छेड़छाड़ से बचने के लिए लड़कों को विशेष ट्रेनिंग भी दी जाती.

शाम ढलने पर लड़कों को घर से अकेले बाहर न निकलने की हिदायत होती और कहा जाता कि जादा फेयर एंड लवली लगा के और छाती खोलकर बाहर न निकला करें.
बलात्कार की स्तिथी में किसी भी लडके की इज्ज़त लुटने पर केवल उसका बयान ही काफी होता और लड़की को अपनी बेगुनाही साबित करनी पड़ती.
अबतक आप इतना तो समझ ही गए होंगे कि ये अनन्त कथा है. इसको कितना भी बढाया जा सकता है. मैं इसे संक्षेप में ही स्पस्ट किया हूँ.
(चेतना विकास मिशन)

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