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विलासिता और बुनियादी जरूरतों का संघर्ष

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भारत में आर्थिक असमानता कास्वरूप हमें यह सिखाता है कि उपभोग, कराधान और आर्थिक नीति में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है।देश की 50 करोड़ की शहरी मध्यम वर्गीय आबादी, जो कभी आर्थिक प्रगति का प्रतीक थी, आज खुद को आर्थिक संकट में पा रही है। इनकी आय का बड़ा हिस्सा ईएमआई और करों में चला जाता है और इनके पास उपभोग के लिए धन की कमी होती जा रही है। जब तक देश की बड़ी आबादी के पास आर्थिक शक्ति नहीं होगी, तब तक न केवल उपभोग की मांग कम होगी, बल्कि अर्थव्यवस्था भी सिकुड़ती रहेगी।संपन्न वर्ग की उपभोग क्षमता और मध्यम वर्ग की गिरती आर्थिक स्थिति के बीच यह आवश्यक है कि सरकार ऐसी नीतियों पर काम करे जो समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलें और आर्थिक असमानता को कम करें।

मनोज अभिज्ञान

वर्तमान में, भारत की अर्थव्यवस्था विचित्र स्थिति में है। एक तरफ देश की आबादी का बड़ा हिस्सा मुद्रास्फीति, बढ़ते करों और सिकुड़ते आर्थिक अवसरों से जूझ रहा है, तो दूसरी तरफ मेट्रो शहरों और बड़े शहरों में विलासिता की वस्तुओं की मांग तेजी से बढ़ रही है।

इस परिदृश्य को देखते हुए, एक बात स्पष्ट हो जाती है कि हम दो अलग-अलग भारत में रह रहे हैं, एक वह जहां संपन्न वर्ग अधिक से अधिक संसाधनों का उपभोग कर रहा है और दूसरा वह जहां मध्यम और निचले वर्ग के लोगों के पास जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भी धन की कमी है।

FMCG क्षेत्र की प्रमुख कंपनियों में से एक, नेस्ले इंडिया के सीईओ सुरेश नारायणन ने हाल ही में इस संकट की ओर इशारा किया है। उनका कहना है कि मध्यम वर्ग सिकुड़ रहा है और इसका असर उपभोग की वस्तुओं की मांग पर पड़ रहा है।

यह स्थिति इस बात को दर्शाती है कि भारत के मध्यम वर्ग के लोगों के पास करों, ईएमआई और मुद्रास्फीति से निपटने के बाद उपभोग के लिए बहुत कम संसाधन बचे हैं। इसके बावजूद, एक ऐसा विशेष वर्ग भी है जो विलासिता की वस्तुओं की बढ़ती मांग को कायम रखे हुए है।

इस परिदृश्य में ‘दो भारत’ का विचार स्पष्ट रूप से उभरता है, एक वर्ग जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और दूसरा जो अपने उपभोग की क्षमताओं को और बढ़ा रहा है।

भारत में 140 करोड़ लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों का भुगतान कर रहे हैं, जिसमें उपभोग कर, मुद्रास्फीति कर और अन्य अप्रत्यक्ष कर शामिल हैं। इन करों के बावजूद, केवल 5% लोग आयकर का भुगतान करते हैं।

यह स्पष्ट करता है कि कराधान का बड़ा बोझ मध्यम और निचले वर्ग पर पड़ता है, जिनके पास इन करों के बाद बचत या निवेश के लिए बहुत कम संसाधन होते हैं। मध्यम वर्ग की हालत यह है कि वे थोड़ा-बहुत बचत या निवेश करते भी हैं, तो उस पर भी उन्हें पूंजीगत लाभ कर और एसटीटी (सिक्योरिटीज ट्रांजैक्शन टैक्स) जैसे करों का सामना करना पड़ता है।

इसके अलावा, अंतिम संस्कार जैसे अनिवार्य कार्यों पर भी जीएसटी लगने से लोगों को जीवन भर के साथ-साथ मरने के बाद भी करों का बोझ सहना पड़ता है।

यह पूरी कराधान प्रणाली उस असमानता को दर्शाती है, जिसमें एक तरफ करों का बोझ तेजी से बढ़ रहा है, जबकि दूसरी तरफ सरकार का राजस्व संग्रह भी बढ़ रहा है, लेकिन इसका लाभ आम जनता तक नहीं पहुंच रहा है।

भारत की 80 करोड़ की ग्रामीण आबादी आज 5 किलो राशन पर निर्भर है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नौकरियों की कमी, कृषि उत्पादकता में गिरावट और संसाधनों की सीमित उपलब्धता ने इस आबादी के लिए उपभोग के अवसरों को लगभग समाप्त कर दिया है।

एक तरफ जहां देश के बड़े शहरों और मेट्रो में विलासिता की वस्तुओं की मांग बढ़ रही है, वहीं दूसरी तरफ ग्रामीण क्षेत्रों से उपभोग की मांग नहीं आ रही है। इसका सीधा असर देश की समग्र अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है, जो मांग में गिरावट के चलते सिकुड़ रही है।

ग्रामीण क्षेत्रों की उपभोक्ता मांग में कमी के कारण न केवल FMCG कंपनियां प्रभावित हो रही हैं, बल्कि समूची राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।

देश का शहरी मध्यम वर्ग भी आर्थिक असमानता के इस चक्र में फंसा हुआ है। जहां कुछ वर्ष पहले तक यह वर्ग देश की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण स्तंभ था, अब यह वर्ग अपनी बढ़ती लागत और सीमित आय के चलते धीरे-धीरे सिकुड़ता जा रहा है।

ईएमआई, स्वास्थ्य खर्च, शिक्षा की बढ़ती लागत और रोजमर्रा के जीवन की आवश्यकताओं के साथ-साथ बढ़ते करों ने इस वर्ग की क्रय शक्ति को बुरी तरह प्रभावित किया है।

देश की 50 करोड़ की शहरी मध्यम वर्गीय आबादी, जो कभी आर्थिक प्रगति का प्रतीक थी, आज खुद को आर्थिक संकट में पा रही है। इनकी आय का बड़ा हिस्सा ईएमआई और करों में चला जाता है और इनके पास उपभोग के लिए धन की कमी होती जा रही है।

यही कारण है कि इस वर्ग के लिए नेस्ले जैसी कंपनियों के बिस्किट और चॉकलेट जैसी बुनियादी उपभोग की वस्तुएं भी लग्जरी बनती जा रही हैं।

इस आर्थिक असमानता का एक और पहलू है, विलासिता की वस्तुओं की मांग में तेज वृद्धि। नेस्ले इंडिया के सीईओ के अनुसार, कंपनी के प्रीमियम उत्पादों की मांग में वृद्धि हो रही है, खासकर उच्च वर्ग के उपभोक्ताओं के बीच।

यह दर्शाता है कि देश के एक विशेष वर्ग के पास न केवल संसाधनों की प्रचुरता है, बल्कि उनकी उपभोग की आदतें भी तेजी से बदल रही हैं। यह वर्ग महंगे उत्पादों की तरफ रुख कर रहा है, जबकि मध्यम और निचले वर्ग के लोगों के पास बुनियादी जरूरतों के लिए भी धन की कमी हो रही है।

यह असमानता न केवल आर्थिक विभाजन को दर्शाती है, बल्कि सामाजिक विभाजन को भी गहरा करती है। जहां एक वर्ग अपनी विलासिता की आवश्यकताओं को पूरा कर रहा है, वहीं दूसरा वर्ग अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ हो रहा है।

इस प्रकार की आर्थिक असमानता केवल उपभोग की प्रवृत्तियों को प्रभावित नहीं करती, बल्कि सामाजिक संतुलन को भी बाधित करती है।

अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने का मुख्य कारण यह है कि देश की बड़ी आबादी के पास उपभोग की शक्ति नहीं बची है। जहां एक तरफ देश में जीडीपी बढ़ने की रिपोर्ट्स आती हैं, वहीं दूसरी तरफ आम जनता की खर्च करने की क्षमता घट रही है।

मध्यम वर्ग, जो देश की उपभोक्ता अर्थव्यवस्था का प्रमुख हिस्सा होता था, अब कर्जों और करों के बोझ तले दबा हुआ है। इस कारण न केवल उनका उपभोग घटा है, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था भी मंदी के चक्र में फंस गई है।

जब तक देश की आर्थिक नीतियों में आम जनता की जरूरतों को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी, तब तक यह असमानता बढ़ती जाएगी। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में उपभोग को बढ़ावा देने के लिए आम जनता की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करना अनिवार्य है।

यह तभी संभव होगा जब करों का बोझ कम किया जाएगा, रोजगार के अवसर बढ़ाए जाएंगे और मुद्रास्फीति को नियंत्रित किया जाएगा।

आज के भारत में आर्थिक असमानता का यह स्वरूप हमें यह सिखाता है कि उपभोग, कराधान और आर्थिक नीति में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। जब तक देश की बड़ी आबादी के पास आर्थिक शक्ति नहीं होगी, तब तक न केवल उपभोग की मांग कम होगी, बल्कि अर्थव्यवस्था भी सिकुड़ती रहेगी।संपन्न वर्ग की उपभोग क्षमता और मध्यम वर्ग की गिरती आर्थिक स्थिति के बीच यह आवश्यक है कि सरकार ऐसी नीतियों पर काम करे जो समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलें और आर्थिक असमानता को कम करें।

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