अग्नि आलोक

वैदिक दर्शन : नरनारी का संगम ‘काम’ और काम में भगवान 

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(मैं धर्म हूँ, मार्ग और मंज़िल मुझमें है : भगवान मैं हूँ)

     डॉ. विकास मानव 

पूर्व~कथन :  शीर्षक पढ़कर आपका जंग खा चुका मृतवत मस्तिष्क कह रहा होगा ये साला पगला गया है. पूर्णावतार कृष्ण की तरह ख़ुद को काम – भगवान बता रहा है. जड़ता-जनित, घामड़ता-ग्रसित कूप-मंडूकता के पर्याय लोग इससे अधिक कुछ सोच भी नहीं सकते. करना और अनुभव लेना तो बहुत दूर की बात है.

   मैं जो व्यक्त करता हूँ, वह मेरी गहन एवं अथक साधनाओं के परिणामजनित अनुभव से आता है. इसके लिए मैं वैदिक दर्शन से लेकर वैज्ञानिक अन्वेषण तक का आधार भी देता हूँ. खालिश सच मेरा हेतु है. मैं यह देखकर व्यक्त नहीं होता की समाज पर क्या असर पड़ेगा. समाज का ठेकेदार नहीं हूँ मैं.

सत्य का अनुभव मैं बहुत ही कठिन श्रम करके प्राप्त किया हूँ। यह सब मैं व्यापार के लिए नहीं, अपनी तुष्टि के लिए किया हूँ। यह ब्रह्मज्ञान है। मैं वस्तुतः ‘मैं’ नहीं हूँ। मैं= सब। आत्मने नमः।
स्वानुभव सर्वोपरि मार्ग है, आनन्द पथ है, ज्ञानवीथी है। जिसके पास अभीप्सा एवं तत्परता रूपी दो पैर हैं वह ही चलेगा। इन दोनों पैरों के बिना इस मार्ग पर चलना, आगे बढ़ना और मंजिल तक पहुँचना सम्भव नहीं है. यह क्रियायोग का पथ है।
मैं कभी हिन्दू, इस्लाम जैसे किसी कथित धर्म की बात नहीं करता. धर्म वह है जो धारण करने योग्य है. धारण करने योग्य वह है जो संतुष्टि, तृप्ति और मुक्ति दे.
जब मैं चलता हूँ तो धर्म चलता है, मैं ठहरता हूँ तो धर्म ठहरता है. मैं हंसता हूँ तो धर्म हंसता है, मैं रोता हूँ तो धर्म रोता है. मैं बोलता हूँ तो धर्म बोलता है, मैं लिखता हूँ तो धर्म लिखता है. मैं सोता हूँ तो धर्म सोता है, मै जागता हूँ तो धर्म जागता है।
मैं धर्म से अभिन्न हूँ, धर्म का स्वरूप हूँ, धर्मानुगामी हूँ। धर्म गूढ है, मैं गूढ हूँ। मैं मर चुका हूँ, परारार्थ जीवित हूँ।


धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष : चार पुरुषार्थ.
अर्थात धर्म के पथ से आजीविका के लिए अर्थ अर्जित करें और काम को साधकर मोक्ष प्राप्त करें. यानी काम भगवान का द्वार है.
काम, क्रोध, लोभ, मोह : नर्क के चार द्वार.
उधर काम भगवान का द्वार है और इधर नर्क का द्वार है. नर्क का द्वार कैसे?
जब संभोग बिना प्रेम के होता है, पशुवत होता, यंत्रवत होता है, बलात होता है, अन नेचुरल होता है तब यह जिंदगी को नर्कमय बना देता है. जब संभोग स्त्री के बेसुध होने तक नहीं चलता, सिर्फ़ चमड़ी को छूकर समाप्त हो जाता है, तब यह काम इंसान का काम तमाम कर देता है.
ये बातें विज्ञान भी कहता है. विज्ञान भी बताता है की किस प्रकार के सेक्स से आरएच फैक्टर डिस्टर्ब होता है, होर्मोनल गड़बड़ी होती है, मनोरोग होता है और कैंसर, एड्स जैसे रोग भी.

स्त्री और पुरुष के योग का नाम काम है। काम में भगवान है.
स्त्रीपुंसयोस्तु योगो यः स तु काम इति स्मृतः। कामश्चप्रभु!
~भरतमुनि (नाट्यशास्त्र २४ / ९५)

धर्म अनुकूल काम का सेवन करना चाहिये। इस परम सुख से वञ्चित नहीं रहना चाहिये।
धर्मार्था विरोधेन काम सेवेत न हि सुखः स्यात्॥
~आचार्य कौटिल्य (अर्थशास्त्र १/३/७)
काम के भोग वा पूर्ति से काम की शान्ति नहीं होती है। जैसे अग्नि में हवि डालने से तेजी से अग्नि प्रज्जवलित हो उठती है, वैसे ही काम के सेवन से काम वृद्धि को प्राप्त होता है।
न जातु कामः कामानुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते॥
~ महर्षि मनु (मनुस्मृति २/९४)
काम का स्थान हृदय में हैं।
हदिकामो ध्रुवोः क्रोधः।
~भागवत पुराण.
जिस का हृदय शुद्ध है, उस का काम भी शुद्ध है। जिस का हृदय शुद्ध नहीं है, उस का काम कैसे शुद्ध होगा? अशुद्ध हृदय (काम) वाला व्यक्ति अवश्य नरक में जाता है।
न यस्य हृदयं शुद्धं स नरकं वृजेत्।
~महाभारत (१२७/१८)
काम का उत्पत्ति स्थान यद्यपि हृदय है, पर यह शरीर के समस्त अंगों में काल सापेक्ष अर्थात् तिथिक्रम से बदलता हुआ रहता है।
पादे गुल्फे तोरौ च भगे नाभौ कुचे हृदि॥
कक्षे कण्ठे च ओष्ठे च गण्डे नेत्रे श्रुतावपि।।
ललाटे शीर्षकेशेषु कामस्थानं तिथिक्रमात्॥
दक्षे पुंसां स्त्रिया वामे शुक्ले कृष्णे विपर्ययः।।
१- पादे= पादतलों में।
२- गुल्फे = ऍड़ी (टखनों) में।
•३ -तथा ऊरौ दोनों जाँघों में।
•४- च भगे = योनि स्थान में।
•५- नाभौ नाभि में।
•६ -कुचे= दोनों स्तनों में।
•७ -हदि= हृदय में।
•८ -कक्षे= दोनों कांखों में।

ब्रह्मचारी भीष्म कहते हैं कि इस संसार में नरों को दूषित कर देना नारियों का स्वभाव है। इसलिये विवेकवान् विद्वान् युवती स्त्रियों में आसक्त नहीं होते।
स्वभावश्चैव नारीणां नराणामिह दूषणम्।
अत्यर्थ न प्रसज्जन्ते प्रमदासु विपश्चितः॥
(महा. अनु. ४८/३८)
स्त्री को दारा कहते हैं। क्यों कि दा ददाति तथा राराति अर्थात् वह पुरुष को प्रचुर सुख देती है अथवा पुरुष जिसे बहुत सुख देता है। अथवा, दारयाति शृणाति हिनस्ति वा । जो पुरुष का दारण हिंसन करती है वा पुरुष जिसका दारण सम्पीडन करता है। स्त्रियाँ सदा पुरुषों में आसक्ति रखती हैं तथा पुरुष भी नारियों में संसक्त होते हैं।
सज्जन्ति पुरुषे नार्थः सोऽर्थश्च पुष्कलः।
(महा.अनु.४३/१५)
स्त्री स्वभाव कथन- नारद जी ने पञ्चचूडा अप्सरा से स्त्रियों के स्वभाव का वर्णन करने के लिये कहा। तत्कथित वाक्यों को यहाँ रखा जा रहा है।
(महा. अनुशासनपर्व ३५/११-३०)
“कुलीना रूपवत्यश्च नाथवत्यश्च योषितः।
मर्यादासु न तिष्ठन्ति स दोषः खीषु नारद।।
हे नारद । कुलीन युवती रूपवती है तो सनाथ (पतिवती) होने पर भी मर्यादा के भीतर नहीं रहती। यह स्त्रियों का दोष है।
न स्त्रीभ्यः किञ्चिदन्यद् वै पापीयस्तरमस्ति वै।
स्त्रियो हि मूलं दोषाणां तथा त्वमपि वेत्थ है।।
स्त्रियों से बढ़कर पापी अन्य कोई नहीं हैं। स्त्रियाँ सभी पापों को मूल हैं। इस बात को आप भी अच्छी तरह जानते हैं।
समाज्ञातानृद्धिमतः प्रतिरूपान् वशे स्थितान्।
पतीननन्तरमासाद्य नाले नार्यः प्रतीक्षितुम्॥
यदि स्त्रियों को दूसरे अपरिचितों से मिलने का अवसर मिल जाय तो वे अपने वश में रहने वाले समृद्ध एवं रूपवान् पति की प्रतीक्षा (परवाह नहीं करती हैं।
असद्धर्मस्त्वयं स्त्रीणामस्माकं भवति प्रभो।
पापीयसो नरान् यद् वै लज्जां त्यक्त्वा भजामहे।।
प्रभो! हम स्त्रियों में यह सबसे बड़ा दोष है कि हम पापी से भी पापी पुरुषों को भी लाज छोड़ कर सम्भोगार्थ स्वीकार करती हैं।
स्त्रियं हि यः प्रार्थयते सन्निकर्षं च गच्छति।
ईषच्च कुरुते सेवां तमेवेच्छन्ति योषितः॥
जो पुरुष किसी स्त्री को चाहता है, उसके पास पहुँचता है तथा थोड़ी उस की सेवा कर देता है, वह स्त्री उसी को चाहने लगती है-है-भोग के लिये चुनती है।
अनर्थित्वान् मनुष्याणां भयात् परिजनस्य च।
मर्यादायाममर्यादाः स्त्रियस्तिष्ठन्ति भर्तृषु।।
स्त्री को चाहने वाला जब कोई पुरुष नहीं मिलता तथा परिजनों का भय रहता है तभी अमर्यादात्रिय स्त्रियाँ अपने पति के पास टिकती हैं।
नासां कश्चिदगम्योऽस्ति नासां वयसि निश्चयः।
विख्यं रूपवन्तं वा पुमानित्येव भुञ्जते॥
इन स्त्रियों के लिये कोई भी ऐसा पुरुष नहीं हैं, जो अगम्य हो। इन का किसी अवस्था विशेष वाले पुरुष पर निश्चय नहीं रहता। कोई रूपवान् हो वा कुरूप हो, मात्र पुरुष होना ही पर्याप्त है। स्त्रियाँ हर जाति वय कुल कर्म वाले पुरुष का भोग करती हैं।
न भयान् नाप्यनुक्रोशात् नार्थ हेतोः कथंचन।
न ज्ञातिकुलसम्बन्धात् स्त्रियास्तिष्ठन्ति भर्तृषु॥
स्त्रियाँ न तो भय से, न दया से, न धन के लोभ से, न जाति कुल के सम्बन्ध से अपने पतियों के पास टिकती हैं।
यौवने वर्तमानानां मृष्टाभरणवाससाम्।
नारीणां स्वैरवृत्तीनां स्पृहयन्ति कुलस्त्रियः॥
जो यौवन सम्पन्न हैं, अच्छे आभूषण एवं वस्त्र धारण करती हैं, ऐसी स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों के चरित्र को देख कर कुलवती स्त्रियाँ भी वैसा होने की इच्छा एवं चेष्टा करती हैं।
याश्च शश्वद बहुमता रक्ष्यन्ते दयिताः खियः।
अपि ताः सम्प्रसज्जन्ते कुब्जान्यजडवामनैः।।
जो स्त्रियाँ बहुत सम्मानित है तथा परिसेवित हैं, जिनकी सदैव रक्षा की जाती है, वे भी घर में आने
जाने वाले कूबड़े अन् मूर्ख ने लोगों से सजाती अनुरक्त रहती हैं।
पंगुष्वथ च देवर्षे ये चान्ये कुत्सिताः नराः।
स्त्रीणामगम्यो लोकेऽस्मिन् नास्ति कश्चिन्महामुने॥
हे महामुनि देवर्षि नारद । जो पंगु (चलने में असमर्थ ) एवं अत्यन्त घृणित मनुष्य हैं उनमें भी स्त्रियों की असक्ति हो जाती है। इस लोक में लियों के लिये कोई भी अगम्य नहीं है !
यदि पुंसा गतिर्ब्रह्मन् कथंचिन्नोपपद्यते।
अप्यन्योन्यं प्रवर्तन्ते न हि तिष्ठन्ति भर्तृषु।।
हे ब्रह्मन् । यदि स्लियों को पुरुषों की प्राप्ति किसी भी प्रकार से सम्भव न हो और पति भी पास में न रह रहे हों तो वे आपस में ही कृत्रिम उपायों से सहमैथुन में प्रवृत्त होती हैं।
अलाभात् पुरुषाणां हि भयात् परिजनस्य च।
बघबन्धीयाच्चापि स्वयं गुप्ता भवन्ति ताः।।
पुरुषों के न मिलने से घर के परिजनों के भय से तथा बघ, बन्धन के भय से वे सुरक्षित रहती हैं।
चलस्वभावा दुःसेव्या दुर्ग्राहा भावतस्तथा।
प्राज्ञस्य पुरुषस्येह यथा वाचस्तथा स्त्रियः।।
स्त्रियों का स्वभाव चञ्चल होता है, उनका सेवन भी कठिन है, वे पकड़ में नहीं आतीं। उन के भाव (अभिप्राय) वैसे ही समझ में नहीं आते जैसे विद्वान् पुरुषों की वाणी।
नाग्निस्तृष्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः।
नान्तकः सर्वभूतानां न पुसां वामलोचना।।
आग कभी ईंधन से तृप्त नहीं होती। समुद्र कभी नदियों (के जल) से तृप्त नहीं होता। मृत्यु समस्त प्राणियों को खाते रहने से कभी तृप्त नहीं होती। इसी प्रकार वामलोचनाएँ- सुन्दर यौवनवती स्त्रियाँ पुरुषों से कभी तृप्त नहीं होतीं।
इदमन्यच्च देवर्षे रहस्यं सर्वयोषिताम्।
दृष्टैव पुरुष हा योनि प्रक्लिले त्रियाः।।
हे देवर्षि !!! सभी रमणियों के सम्बन्ध में यह एक दूसरी रहस्यमय बात है कि मनोरम पापी पुरुष को देखते ही स्त्री की योनि गीली हो जाती है-स्त्री सम्भोग के लिये उद्यत हो जाती है।
कामानामपि दातारं कर्तारं मनसां प्रियम्।
रक्षितारं न मृष्यन्ति स्वभर्तारमले स्त्रियः।।
सम्पूर्ण इच्छाओं को पूरा करने वाला तथा मन को प्रसन्न रखने वाला पति भी यदि स्त्री की रक्षा (भरण पोषण) में तत्पर रहने वाला हो तो वे अपने पति के अंकुश में नहीं रहतीं।
न कामभोगान् विपुलान् नालंकारान् न संश्रवान्।
तथैव बहु मन्यन्ते यथा रत्यामनुग्रहम्।।
स्त्रियाँ न तो कामोपभोग की बहुत सामग्री को, न सुन्दर आभूषणों को, न अच्छे घरों को उतना महत्व देती हैं, जितना कि रति के लिये किये गये प्रस्ताव को अर्थात् स्त्री के लिये सम्भोग का निमन्त्रण देना अधिक महत्वपूर्ण होता है, न कि प्रचुर भोग्य पदार्थ।
अन्तकः पवनो मृत्युः पातालं वडवामुखम्।
सुरधारा विषं सर्पों वह्निरित्येकतः स्त्रियः।।
यमराज, वायु, मृत्यु, पाताल, वडवानल (कृत्या), क्षुरे को धार, विष, सर्प, अग्नि- ये सब विनाश के कारक एक ओर तथा इन सब के बराबर अकेली स्त्रियाँ दूसरी ओर हैं। अर्थात् स्त्री भयंकरतम है।
यतश्च भूतानि महान्ति पञ्च
यतश्च लोका विहिता विधाता।
यतः पुमांसः प्रमदाश्च निर्मिता
स्तदेव दोषाः प्रमदासु नारद।।
हे नारद! जहाँ से पाँच भूत उत्पन्न हुए हैं, जहाँ से विधाता ने सम्पूर्ण भुवनों को रचा है, जहाँ से स्त्री पुरुष रथे गये हैं, स्त्रियों में ये दोष कहीं से आये हैं। अर्थात् सब कुछ प्रकृतिजन्य है, इसलिये स्त्रियों के दोष प्राकृतिक हैं, कृत्रिम नहीं।

स्त्रियां मायावती होती हैं :
शम्बरस्य च या माया, माया या नमुचेरपि।
बलेः कुम्भीनसेश्चैव सर्वास्ता योषितो विदुः॥
( महा. अनु. ३९/६)
शम्बरासुर की जो माया है तथा नमुचि, बलि, कुम्भीनसी की जो मायाएँ हैं, उन सब को ये युवतियाँ जानती हैं।
स्त्रीयाँ नीतिमती होती है :
स्त्रीणां बुद्ध्यर्थनिष्कर्षाद् अर्थशास्त्राणि शत्रुहन्।
बृहस्पतिप्रभृतिभिर् मन्ये सद्भिः कृतानि वै।।
(महा. अनु. ३९/१०)
भीष्म जी युधिष्ठिर से कहते है-हे पाती राजा स्त्रियों की बुद्धि में जो अर्थ भरा हुआ है, उसी का निष्कर्ष (सारांश) लेकर बृहस्पति आदि सत्पुरुषों ने नीतिशास्त्रों की रचना किया है।
स्त्रियाँ कृत्या हैं :
मानवानां प्रमोहार्थं कृत्या नार्योऽसृजत् प्रभुः।
क्षणात् स्वीसङ्गकामोत्था यातनाहो निरन्तरा।।
( महा. अनु. ४०/८)
मनुष्यों को मोह से डालने के लिये ब्रह्मा जी ने कृत्या रूप नारियों की रचना की है। स्त्री के क्षणिक संग (सम्भोग) से निरन्तर कामजनित यातना सहनी पड़ती है।
स्त्रियाँ अनिश्चिता हैं :
न च स्त्रीणां क्रियाः कश्चिदिति धर्मों व्यवस्थितः।
निरिन्द्रिया ह्यशास्त्राश्च स्त्रियो ऽनृतमिति श्रुतिः।
(महा. अनु. ४०/११)
स्त्रियों के लिये किसी धार्मिक क्रिया की व्यवस्था नहीं हैं। क्योंकि वे अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण न रखने के कारण निरिन्द्रिय (बलहीन, संयमहीन) होती हैं, उन्हें शास्त्रों का ज्ञान नहीं होता, असत्य भाषण में उनकी सहज प्रवृत्ति होती है यह मैंने लोगों से सुना है। ऐसी लोकश्रुति है। स्त्रियाँ जिस पुरुष के साथ रहती है, उसी का धर्म ग्रहण करने से अनिश्चित धर्मा हैं।
स्त्रियों का धर्म पतिपरायणता है :
नैव यज्ञक्रियाः काश्चिन्न श्राद्धं नोपवासकम्।
या तु भर्तरि शुश्रूषा तया स्वर्गं जयत्युत॥
(महा. वनपर्व २०५/२१)
नारी के लिये किसी यज्ञकर्म श्राद्धक्रिया, उपवास व्रत की आवश्यकता नहीं है। यह जो पति की सेवा करती है, उसी के द्वारा स्वर्गलोक पर विजय प्राप्त करती है। यह कथन मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के प्रति है।
संसार में जितनी भी अप्सराएँ (अक्षीण यौवना सुरूपा देहजीवा नारियो) है, उन सब का स्वामी कामदेव है।
सर्वाप्सरोगणानां च कामदेवः प्रभुः कृतः।।
~ हरिवंश पुराण (भविष्यपर्व ३७ / १२)
धर्म का पुत्र काम, लक्ष्मी के गर्भ से उत्पन्न हुआ है। इसको संसार का प्रभु (स्वामी) कहते हैं।
धर्मस्य पुत्रो लक्ष्म्यास्तु कामो जज्ञे जगत्प्रभुः॥
(हरि. पु. भ. ३६/५६)
रात्रि से रति की उत्पत्ति है, दिवस से काम की रात्रि हो रति है और दिन काम दिन (काम) और रात्रि (रति) के युग्म शाश्वत है। दिन और रात्रि परस्पर पति पत्नी हैं। यह जोड़ा चिरन्तन है। जैसे कभी दिन बड़ा और रात्रि छोटी तथा कभी दिन छोटा और रात्रि बड़ी है, वैसेही कभी पति बड़ा, पत्नी छोटी तथा पति छोटा, पत्नी बड़ी होती है। जैसे रात दिन वर्ष में दो बार बराबर होते हैं, वैसे ही पति पत्नी दो . अवसरों हर्ष और शोक उपस्थित होने पर बराबर होते हैं। हर्ष विषाद ही दाम्पत्य जीवन के उत्तायण-दक्षिणायन हैं।
रति काम महोत्सव का नाम जीवन है। बायाँ हाथ रति है, दायाँ हाथ काम है। बायाँ पैर रति है, दायाँ पैर काम है। चलते समय एक पैर आगे तथा एक पैर पीछे होता है, एक हाथ आगे और दूसरा हाथ पीछे होता है। ऐसे ही दैनिक कार्य कलापों में पुरुष या स्त्री में से एक आगे एवं एक पीछे रहे गा- एक बड़ा है, एक छोटा निष्क्रिय अवस्था में खड़े रहने पर दोनों पैर वा दोनों हाथ बराबर रहते हैं, आगे पीछे नहीं होते। इसी प्रकार स्त्री पुरुष की बराबरी जीवन की स्थिरता शान्ति वा मृत्यु है। वायां नेत्र खी है, दायाँ नेत्र पुरुष है। बायाँ कान स्त्री है, दायाँ कान पुरुष है। ये दोनों बराबर हैं किन्तु अलग अलग रहते हैं।
ऐसे ही स्त्री पुरुष बराबर हैं किन्तु यह बराबरी अलग अलग रहने पर हो है। एक साथ होने . पर बराबरी का प्रश्न ही नहीं। दोनों में एक दूसरे से बड़ा होने की दौड़ प्रारंभ होती है तो दाम्पत्य जीवन में संघर्ष एवं अशांति स्वाभाविक एवं अनिवार्य है। बायाँ नासा छिद्र स्त्री है, दायाँ नासा छिद्र पुरुष दोनों छिद्र पास पास होते हैं और अन्दर की ओर मिले होते हैं। ऐसे ही स्त्री पुरुष का जोड़ा एक साथ सटे हुए शरीर वाले तथा अन्दर से मिले हुए मन वाले होने से से शोभा को प्राप्त होते हैं।
नाक = सम्मान, श्वसन संस्थान, जीवन का प्राण मार्ग पति पत्नी का जोड़ = सामाजिक सम्मान, धर्म संस्थान, जीवन की गति। नीचे का ओष्ठ स्त्री, ऊपर का ओष्ठ पुरुष है मौन में ये दोनों ओठ सटे रहते हैं तथा बोलते समय खुले (अलग) होते हैं। ऐसे ही स्त्री-पुरुष सम्भोगावस्था में सटे (मिले हुए) स्त्री नीचे तथा पुरुष ऊपर होता है, सम्भोगेतर अवस्था में दोनों अलग अलग रहते हैं।
कार्य क्षेत्र में पुरुष आगे आगे (ऊपर) तथा स्त्री उसकी अनुगामिनी बन कर पीछे पीछे (नीचे) होती हैं।
प्रत्येक शरीर में हो रहे इस रतिकाम महोत्सव को जो देखता है, वह ब्रह्मज्ञानी है।
शरीर के आधा भाग स्त्री संज्ञक हैं तथा आधा भाग पुरुष संज्ञक वामङ्ग वा वाम पार्श्व= स्त्री। दक्षिणांग वा दक्षिण पार्श्व = पुरुष। परमात्मा का आधा शरीर स्त्री का और आधा शरीर पुरुष का है। परमात्मा इस लिये आधा पुरुष है तथा आधा स्त्री। इस कारण उसका नाम अर्धनारीश्वर पड़ा है।
अर्धनारीश्वर ही शिव (शान्त) है जो अर्धनारीश्वर नहीं है वह अशिव (अशान्त) है। स्त्री को गति पुरुष के लिये है तथा पुरुष की गति स्त्री को पाने के लिये है। जब दोनों एक दूसरे को प्राप्त कर लेते हैं तो उन की गति समाप्त हो जाती है। गति का समाप्त होना ही शिवत्व है। शिवत्व =शान्ति ।स्त्री-पुरुष परस्पर श्लिष्ट होने के बाद जब स्खलित क्षरित होते हैं तो उन की एक दूसरे को पाने की गति का अन्त हो जाता है। इस प्रकार एक दूसरे से तृप्त होने से शान्त (निष्क्रिय) हो जाते हैं।
स्त्री पुरुष का कामालु जोड़ा परस्पर तृप्ति पाकर संसगोंपरान्त शान्त हो जाता है। इसलिये ऐसा युग्म शिव है। नरनारी रूप परमात्मा निश्चय हो स्तुत्य है।
नारीनरशरीराय स्त्रीपुंसाय नमोऽस्तु ते।।
(महा. अनु. १४/२९८)
स्त्री को पत्नी रूप में पाने के लिये पुरुष में क्या अर्हता होनी चाहिये ?
अनन्यस्त्रीजनः प्राज्ञो हाप्रवासी प्रियंवदः।
सुरूपः सम्पतो वीरः शीलवान् भोगभुक् छविः।
दारानुपतयश्च सुनक्षत्रामोत् स्वभर्ता स्वजनोपेत इह प्रेत्य च मोदते॥
(महा.अनु. १९/१४ १)
अनन्य स्त्रीजनः =ऐसा पुरुष जिस के पास कोई स्त्री न रहती हो। जो स्वीहीन वा अविवाहित हो।
प्राज्ञ = बुद्धिमान हो।
हि- अप्रवासी= जो निश्चय ही विदेशवासी न हो। स्वदेश में रहने वाला हो। विदेशी न हो कर स्वदेशी हो।
प्रियंवद:= प्रिय भाषण करने वाला हो।
सुरूप सुन्दर रूप वाला हो। आकर्षक हो।
सम्पतः लोकसम्मानित हो। जिसका सब लोग आदर करते हो।
वीरः = पीर / गतिशील / क्रिया शील / शक्तिसम्पन्न हो।
शीलवान् = शीलयुक्त / अच्छे अचारण वाला हो।
भोगभुक्= भोग भोगने वाला वा भोगेच्छु हो।
छवि = जिसमें प्रकाश / दीप्ति / सौन्दर्य / आभा / तेज हो। (छो छिनत्ति असारं छिनत्ति तमो वा छविः)।
दारानुमत यज्ञः च =स्त्री से अनुमति ले कर वा स्त्री को साथ में ले कर यज्ञ सम्पन्न करता हो।
सुनक्षत्र अथ वेहत्= जो अच्छे नक्षत्र में विवाह करने के लिये तैयार हो।
स्वमर्ता स्वजन उपेतः इह प्रेत्य च मोदते= उपयुक्त द्वादश गुणों वाले पुरुषों के साथ ब्याही गई स्वी अपने पति के साथ तथा पुरुष अपनी भार्यां के साथ इसलोक और मरणोपरान्त परलोक में सुख भोगते है-प्रसन्न रहते हैं।
वदान्य मुनि ने अपनी कंन्या सुप्रभा को अष्टावक्र के लिये देने से पूर्व उपर्युक्त गुणों की परीक्षा लिया। इस हेतु मुनि ने अष्टावक्र को उदीची दिशा में भेजा। यात्रा में एक स्त्री के अतिथि बने अष्टावक्र को उनकी शय्या पर आ कर उस स्त्री ने उन का आलिंगन किया। किन्तु अष्टावक्र निर्विकार रहे। उस स्त्री ने कहा :
ब्रह्मन् नकामतो ऽन्यास्ति स्त्रीणां पुरुषो धृतिः।
प्रहृष्टो भव विप्रर्षे समागच्छ मया सह।। १।।
नातः परं हि नारीणां विद्यते च कदाचन। यथा पुरुष संसर्गः परमेतद्धि नः फलम्॥२॥
आत्मच्छंन्देन वर्तन्ते नाय मन्मथचोदिताः
न च दहान्ति गच्छन्त्यः सुतप्तैरपि पांसुभिः।।३।।
नानिलोऽग्निर्न वरुणो न चान्ये त्रिदशा द्विज।
प्रियाः स्त्रीणां यथा कामो रतिशीला हि योषितः ॥ ४ ॥
सहस्त्रे किल नारीणां प्राप्येतैका कदाचन।
तथा शतसहस्त्रेषु यदि काचिद् पतिव्रता।।५॥
नैता जानन्ति पितरं न कुलं न च मातरम्।
न भ्रातॄन् न च भर्तारं न च पुत्रान् न देवरान् ॥ ६ ॥
सीलायन्यः कुलं घ्नन्ति कूलानीव सरिद्वरा।
दोषान् सर्वाश्च मत्वाऽशु प्रजापतिरभाषत।।७।।”
~महाभारत (अनु. पर्व अध्याय १९)
हे ब्रह्मन् । पुरुष को अपने समीप पा कर उसके कामाचार को छोड़कर, अन्य किसी भी बात से स्त्रियों को धैर्य नहीं रहता। हे ब्रह्मर्षि। आप प्रसन्न हो और मेरे साथ समागम/ सम्भोग करें।
स्त्रियों के लिये पुरुषसंसर्ग (मैथुन) जितना प्रिय है, उससे बढ़ कर दूसरा कोई फल (उपलब्धि) कदापि प्रिय नहीं है। यही (सहवाससुख) हमारे लिये परमफल है।
काम से प्रेरित हुई नारियाँ सदा स्वेच्छानुसार वर्ताव करती हैं। काम से पीडित होने पर वे तपती हुई धूल में भी चलती हैं, परन्तु इससे उन के पैर नहीं जलते हैं।
हे द्विज ! वायु, अग्नि, वरुण एवं अन्य देवगण भी स्त्रियों को वैसे प्रिय नहीं लगते, जैसा उन्हें काम प्रिय होता है। क्यों कि स्त्रियाँ स्वभाव से ही रतिशीला (कामुक) होती हैं।
हजारों स्त्रियों में कभी कोई ऐसी स्त्री होती है, जो कामलोलुप न हो तथा लाखों में कोई ऐसी स्त्री मिलती है, जो परिपरायणा (एक पुरुष के साथ रमण करने वाली) हो।
ये स्त्रियों न तो पिता को कुछ समझाती हैं, न माता को गिनती हैं न कुल को मानती हैं, न भाइयों को जानती है, न पुत्रों एवं देवरों तथा पति को महत्व देती हैं, काम के आगे।
अपने लिये पति को महत्व देती हुई मैथुनार्थ ये समस्त कुलमर्यादा को छिन्न कर डालती हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे जल से उफनती हुई बड़ी बड़ी नदियाँ अपने दोनों कूलों (किनारों) को छिन्न भिन्न करती हुई आगे बढ़ती हैं। इन सब दोषों को समझ कर ही प्रजापति ब्रह्मा ने स्त्रियों के विषय में ये सब बातें कही हैं। महर्षि अष्टावक्र ने उस स्त्री से कहा :
परदारानहं भद्रे न गच्छेयं कथंचन ॥ १॥ न भद्रे परदारेषु मनो मे सम्प्रसज्जति ॥२॥”)
(अनु. २०/१२ )
हे भद्रे । मैं पराई स्त्री के साथ किसी तरह संसर्ग नहीं कर सकता।
हे भद्रे । मेरा मन परनारियों में कभी आसक्त नहीं होता।उस स्त्री ने कहा कि मै स्वतन्त्र हूँ, किसी अन्यपुरुष को स्त्री नहीं हूँ, तो अष्टावक्र जी ने कहा :
नास्ति स्वतन्त्रता नारीणाम् अस्वतन्त्रता हि योषितः।
प्रजापतिमतं ह्येतन्नस्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति॥
स्त्रियों को स्वतन्त्रता है ही नहीं। वे परतन्त्र ही होती है। यह ब्रह्मा जी का मत हैं- स्त्री स्वतन्त्रता के सर्वाथा अयोग्य है।
नास्ति त्रिलोके श्री काचिद् या वै स्वातन्त्र्यमर्हति।
(अनु. २०/२०)
तीनों लोकों में ऐसी कोई स्त्री नहीं है जो स्वतन्त्रता के योग्य हो। उसी स्त्री ने पुनः कहा कि मैं कुमारावस्था से ब्रह्मचारिणी हूँ, इसलिये कन्या हूँ। मुझे अपनी पत्नी बना कर मेरा भोग कीजिये।
कौमारं ब्रह्मचर्य मे कन्यैवास्मि न संशयः।
पत्नीं कुरुष्व मां विप्र श्रद्धां विजहि मा मम।।
( अनु. २०/२२)

हे विप्र, मेरी श्रद्धा को न नष्ट करो, मुझे भोगो।
इस पर भी अष्टावक्र जी तैयार नहीं हुए और सोचने लगे कि यह स्त्री पहले जरावस्था और बाद में यौवनावस्था में रख कर मुझसे रति निवेदन क्यों करती हैं ? उनके इस भाव को समझ कर कहा :
उत्तरां दिशि मां विद्धि, दुष्टं स्त्रीचापलं च ते।
स्थविराणामपि स्त्रीणां बाचते मैथुनज्वरः।।”
(अनु. २१/५)
आप मुझे उत्तरदिशा समझें। स्त्री में कितनी चपलता होती है-यह आप ने प्रत्यक्ष देख लिया है। बूढ़ी स्त्रियों को भी मैथुनज्वर का सन्ताप होता है वे मैथुन कराने के लिये तड़पती रहती है।
मिर्च हरी है तो तीखी, सूख कर पिचक गई तो भी तोखी। इसी प्रकार यौवन में जो काम तत्व होता है, वैसा ही जरावस्था में भी जानना चाहिये। यौवन में देहपुष्ट होता हैं, वृद्धावस्था में जीर्ण होता है। मन कभी बूढ़ा होता ही नहीं। मन में काम का भाव वैसा ही रहता है जैसे जवानी वा बुढ़ापे में काम जैसे स्त्री में होता है, वैसे ही पुरुष में भी होता है। अन्तर केवल इतना ही होता है- स्त्री का जीर्ण शरीर सम्मोग के लिये तैयार रहता है जब कि पुरुष का अशक्त।
क्योंकि पुरुष को मैथुन करना पड़ता हैं। वह सक्रिय होता है। स्त्री को मैथुन कराना होता है। वह निष्क्रिय होती है। जाँत वा चकरी अपने आप में पूर्ण ब्रह्म- अर्धनारीश्वर हैं। जाँत / चकरी में दो फलक होते हैं-नीचे का फलक स्त्री है और स्थिर होता है, ऊपर का फलक पुरुष है और चल होता है। इसी प्रकार स्त्री और पुरुष मिलकर जाँत (आटा चक्की) वा चकरी (दाल चक्की) के समान पूर्णब्रह्म हैं। स्त्री आधार है, पुरुष आधेय है।
स्त्री अचर है, स्त्री अन्दर है, पुरुष बाहर है। जीर्णता का स्त्री पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता, जितना कि पुरुष पर। स्त्री कभी भी पुरुष पर बलात्कार नहीं कर सकती, जब कि पुरुष सदैव स्त्री पर बलात्कार करने में सक्षम होता है, किन्तु जीर्णपुरुष नहीं। स्त्री बल प्रयोग सहन कर लेती है।

मृत्यु को मारना है तो मरने से पहले जीकर अमर हो लो :
मौत की बात तक डरा देती है. स्वयं अपनी मौत की आहट, अपने ही कान में सुनाई देने लगे, तो खून सूखने लगना स्वाभाविक ही है।
कोई कितना ही दुखमय जीवन क्यों न जी रहा हो, नितांत अभाव में हो, कोई अपना न हो, कितना ही रोगी हो, अंग अंग टूटा फूटा हो, पर मरना नहीं चाहता। कभी कहता भी है कि मुझे मौत आ जाए, तो भी केवल कहने भर को ही कहता है। आत्महत्या करने वाले विक्षिप्त हो चुके होते हैं, उनकी बात अलग है.
विचार करें : मृत्यु ऐसा क्या कर देती है? इतना भय! कलेजा कंपा देती है?
दौड़ने के बाद रुक कर खड़े होने में सुख मिलता है. बहुत देर खड़े रहें तो बैठ जाने में सुख है. बैठे- बैठे थक गए तो लेट जाने में सुख है. लेटे ही रहने से दिक्कत होती है तो लेटे-लेटे नींद आ जाने में अधिक सुख है. तब मृत्यु में सुख क्यों नहीं है?
बात यह है कि मृत्यु यह दिखा देती है की तुमने अभी जीना शुरू ही नहीं किया था. तुम सिर्फ़ मृत्यु की यात्रा कर रहे थे. अब तुम्हारे जीने का समय नहीं शेष रहा, तो मैं आ गई.
कथित अपनों का छूट जाना, अपनी देह तक का छूट जाना, सपनों का टूट जाना ही मौत है। यही दु:ख आपकी ओर सरका आ रहा है. देखते-देखते बचपन बीत गया, जवानी जा रही है. फिर बुढ़ापा दरवाजे पर खड़ा है।
काल आपके सामने कितनों को ले गया. कितनों को तो आप स्वयं ही ढोकर पहुँचा आए हो. कल काल आपको भी ले जाएगा।
अभी समय है, अभी साँस चल रही है. क्यों न कोई उपाय कर लिया जाए की बार-बार यह पीड़ा नहीं झेलनी पड़े. इस बार की कहानी आखिरी कहानी हो जाए। क्यों न इस बार मौत को ही मार दिया जाए?
तो एक काम करें, जीते जी ख़ुद को जीकर परम आनंदित हो लें. परमानंद यानी परमात्मा. परमात्मा बन लें. यानी पूर्णत्व अर्जित कर लें. इसके लिए जो भी जरूरी है, मुझ से लें : बिना कुछ भी दिए. अपनी बुद्धि में जगत के मिथ्यात्व का दृढ़ निश्चय कर लें. आप देखेंगे कि मौत पर विजय पाई जा चुकी है. (चेतना विकास मिशन)

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