राज कुमार सिंह
आठ दशक के लंबे अंतराल के बाद कांग्रेस को अपने पूर्ण अधिवेशन के लिए मध्य भारत की याद आई है। छत्तीसगढ़ के नया रायपुर में 24 से 26 फरवरी तक यह अधिवेशन ऐसे समय हो रहा है, जब देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। लगातार दो लोकसभा चुनाव हारने के बाद उसे अगले साल फिर लोकसभा चुनाव का सामना करना है। बेशक उससे पहले इसी साल नौ राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं, जिनमें कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ भी शामिल है। मध्य भारत में इससे पहले 1939 में कांग्रेस का पूर्ण अधिवेशन हुआ था। जबलपुर के निकट त्रिपुरी में हुए उस अधिवेशन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष थे।
मध्य भारत से उम्मीद
अभूतपूर्व संकटकाल में पूर्ण अधिवेशन के लिए मध्य भारत को चुनने के निश्चय ही कुछ कारण हैं।
- जब कमोबेश पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस हाशिये पर खिसक चुकी है, मध्य भारत ने कम-से-कम विधानसभा चुनावों में तो उसका हाथ थामे रखा है।
- वर्ष 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में राजस्थान के अलावा जिन राज्यों के मतदाताओं ने कांग्रेस को बीजेपी पर वरीयता दी, उनमें मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ शामिल थे।
- बेशक, 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के दलबदल से मध्य प्रदेश में मामूली बहुमत वाली कांग्रेस सरकार धराशायी हो गई, पर छत्तीसगढ़ में पूर्ण बहुमत के साथ वह आज भी टिकी हुई है।
- हिंदीभाषी क्षेत्रों में लगभग अजेय बन चुकी बीजेपी को अगर कांग्रेस कहीं टक्कर दे सकती है, तो वे राज्य छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा ही हैं।
- अपनी सरकार हो तो ऐसे आयोजन आसान हो जाते हैं। छत्तीसगढ़ को चुनने की एक और वजह यह है कि राजस्थान के उदयपुर में पिछले साल पार्टी का चिंतन शिविर हो चुका है।
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान दिल्ली में राहुल गांधी (फाइल फोटो)
उदयपुर के संदेश
उदयपुर चिंतन शिविर से जो निकला, वह सबके सामने है।
- लंबे अंतराल के बाद मल्लिकार्जुन खरगे के रूप में कांग्रेस को नेहरू परिवार से बाहर का निर्वाचित अध्यक्ष मिल चुका है।
- पार्ट टाइम नेता बताए जाने वाले राहुल गांधी कन्याकुमारी से कश्मीर तक साढ़े तीन हजार किलोमीटर से भी लंबी भारत जोड़ो यात्रा कर चुके हैं।
- इन सबसे राहुल की छवि सुधरने या हताश कांग्रेस में उम्मीद की किरण दिखने से इनकार नहीं किया जा सकता।
फिर भी कांग्रेस के सामने चुनौतियों का पहाड़ है। बदलते हालात में खुद की प्रासंगिकता साबित करने वाली नई राजनीतिक दृष्टि और राह कांग्रेस को खोजनी होगी। सवाल यह है कि क्या नया रायपुर में वह ऐसा कर पाएगी?
यह बात सही है कि कांग्रेस में गुटबाजी हमेशा रही है, लेकिन तब आलाकमान इतना शक्तिशाली होता था कि अपनी सुविधा के अनुसार सभी पक्षों में संतुलन बनाए रखता था। अब चुनाव-दर-चुनाव पराजय से आलाकमान की चुनाव जिताऊ क्षमता पर ही सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं, तो क्षत्रप उसे आंखें दिखाने से नहीं चूकते। पिछले साल के दो प्रकरण याद करिए।
कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की उम्मीदवारी तय थी, लेकिन वह सचिन पायलट के बजाय अपने विश्वस्त को राज्य की कुर्सी देने पर अड़ गए। शायद पहली बार ऐसा हुआ कि पर्यवेक्षकों द्वारा बुलाई गई विधायक दल की बैठक के समानांतर बैठक ही नहीं हुई, बल्कि सामूहिक इस्तीफे का दांव भी खेला गया। इसके बावजूद आलाकमान गहलोत के बजाय मल्लिकार्जुन खरगे को अध्यक्ष पद का उम्मीदवार बनाने से ज्यादा कुछ आज तक नहीं कर सका।
दूसरा प्रकरण हरियाणा का है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के पास अपना राज्यसभा उम्मीदवार जिताने लायक विधायक-मत थे, लेकिन फिर भी जीत गया सत्तारूढ़ बीजेपी-जेजेपी गठबंधन समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार।
जगह-जगह टकराव
राहुल की भारत जोड़ो यात्रा में तमाम गुटों के नेताओं ने साथ-साथ फोटो तो खिंचवाई, लेकिन उनके रिश्तों में खिंचाव आज भी बरकरार है। यह समस्या राजस्थान और हरियाणा तक ही सीमित नहीं है।
- महाराष्ट्र में कांग्रेस के दो दिग्गजों- नाना पटोले और बाला साहेब थोराट- में टकराव चरम पर है। दोनों एक-दूसरे के साथ काम करने को तैयार नहीं हैं।
- इसी साल खरगे के गृह राज्य कर्नाटक में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। कांग्रेस को वहां सत्ता में लौटने की उम्मीद है, लेकिन इस राज्य में भी पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार के बीच छत्तीस का आंकड़ा है।
- छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीके सिंहदेव के बीच महत्वाकांक्षाओं का टकराव भी किसी से छिपा नहीं है।
- तेलंगाना में भी इसी साल चुनाव होने हैं, जहां वफादार और प्रवासी कांग्रेसियों में वाकयुद्ध चल रहा है।
राज्य-दर-राज्य गुटबाजी पर अंकुश लगाना कांग्रेस के पुनरुत्थान की पहली शर्त है। यह अप्रत्याशित नहीं है कि रायपुर अधिवेशन में अपना चुनावी अजेंडा तय करते हुए अंतिम दिन 26 फरवरी को होने वाली जनसभा में कांग्रेस न सिर्फ छत्तीसगढ़ विधानसभा, बल्कि अगले लोकसभा चुनाव का बिगुल भी फूंक देगी।
कथनी और करनी
पूर्ण अधिवेशन में पारित किए जाने वाले राजनीतिक, आर्थिक, अंतरराष्ट्रीय मामले, किसान एवं कृषि, सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण तथा युवा एवं रोजगार विषयक सभी छह प्रस्तावों के जरिए स्वाभाविक ही बीजेपी और उसकी केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की जाएगी, लेकिन कांग्रेस की कथनी को उसकी अतीत की करनी की कसौटी पर भी कसा ही जाएगा। बेशक फैसले की वह घड़ी मतदान के वक्त आएगी, लेकिन अपनी बात आक्रामक और विश्वसनीय ढंग से मतदाताओं तक पहुंचाने के लिए नेताओं में परस्पर समन्वय और संगठन में अनुशासित ऊर्जा की जरूरत होगी। इस कसौटी पर कांग्रेस का अतीत का प्रदर्शन बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं जगाता। कहने की जरूरत नहीं कि अस्तित्व बचाने के लिए भी कांग्रेस को इन कमजोरियों से उबरना होगा।