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…अभूतपूर्व संकटकाल में कांग्रेस

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राज कुमार सिंह
आठ दशक के लंबे अंतराल के बाद कांग्रेस को अपने पूर्ण अधिवेशन के लिए मध्य भारत की याद आई है। छत्तीसगढ़ के नया रायपुर में 24 से 26 फरवरी तक यह अधिवेशन ऐसे समय हो रहा है, जब देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। लगातार दो लोकसभा चुनाव हारने के बाद उसे अगले साल फिर लोकसभा चुनाव का सामना करना है। बेशक उससे पहले इसी साल नौ राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं, जिनमें कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ भी शामिल है। मध्य भारत में इससे पहले 1939 में कांग्रेस का पूर्ण अधिवेशन हुआ था। जबलपुर के निकट त्रिपुरी में हुए उस अधिवेशन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष थे।

मध्य भारत से उम्मीद

अभूतपूर्व संकटकाल में पूर्ण अधिवेशन के लिए मध्य भारत को चुनने के निश्चय ही कुछ कारण हैं।

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान दिल्ली में राहुल गांधी (फाइल फोटो)

उदयपुर के संदेश
उदयपुर चिंतन शिविर से जो निकला, वह सबके सामने है।

फिर भी कांग्रेस के सामने चुनौतियों का पहाड़ है। बदलते हालात में खुद की प्रासंगिकता साबित करने वाली नई राजनीतिक दृष्टि और राह कांग्रेस को खोजनी होगी। सवाल यह है कि क्या नया रायपुर में वह ऐसा कर पाएगी?

यह बात सही है कि कांग्रेस में गुटबाजी हमेशा रही है, लेकिन तब आलाकमान इतना शक्तिशाली होता था कि अपनी सुविधा के अनुसार सभी पक्षों में संतुलन बनाए रखता था। अब चुनाव-दर-चुनाव पराजय से आलाकमान की चुनाव जिताऊ क्षमता पर ही सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं, तो क्षत्रप उसे आंखें दिखाने से नहीं चूकते। पिछले साल के दो प्रकरण याद करिए।

कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की उम्मीदवारी तय थी, लेकिन वह सचिन पायलट के बजाय अपने विश्वस्त को राज्य की कुर्सी देने पर अड़ गए। शायद पहली बार ऐसा हुआ कि पर्यवेक्षकों द्वारा बुलाई गई विधायक दल की बैठक के समानांतर बैठक ही नहीं हुई, बल्कि सामूहिक इस्तीफे का दांव भी खेला गया। इसके बावजूद आलाकमान गहलोत के बजाय मल्लिकार्जुन खरगे को अध्यक्ष पद का उम्मीदवार बनाने से ज्यादा कुछ आज तक नहीं कर सका।
दूसरा प्रकरण हरियाणा का है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के पास अपना राज्यसभा उम्मीदवार जिताने लायक विधायक-मत थे, लेकिन फिर भी जीत गया सत्तारूढ़ बीजेपी-जेजेपी गठबंधन समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार।

जगह-जगह टकराव
राहुल की भारत जोड़ो यात्रा में तमाम गुटों के नेताओं ने साथ-साथ फोटो तो खिंचवाई, लेकिन उनके रिश्तों में खिंचाव आज भी बरकरार है। यह समस्या राजस्थान और हरियाणा तक ही सीमित नहीं है।

राज्य-दर-राज्य गुटबाजी पर अंकुश लगाना कांग्रेस के पुनरुत्थान की पहली शर्त है। यह अप्रत्याशित नहीं है कि रायपुर अधिवेशन में अपना चुनावी अजेंडा तय करते हुए अंतिम दिन 26 फरवरी को होने वाली जनसभा में कांग्रेस न सिर्फ छत्तीसगढ़ विधानसभा, बल्कि अगले लोकसभा चुनाव का बिगुल भी फूंक देगी।

कथनी और करनी
पूर्ण अधिवेशन में पारित किए जाने वाले राजनीतिक, आर्थिक, अंतरराष्ट्रीय मामले, किसान एवं कृषि, सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण तथा युवा एवं रोजगार विषयक सभी छह प्रस्तावों के जरिए स्वाभाविक ही बीजेपी और उसकी केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की जाएगी, लेकिन कांग्रेस की कथनी को उसकी अतीत की करनी की कसौटी पर भी कसा ही जाएगा। बेशक फैसले की वह घड़ी मतदान के वक्त आएगी, लेकिन अपनी बात आक्रामक और विश्वसनीय ढंग से मतदाताओं तक पहुंचाने के लिए नेताओं में परस्पर समन्वय और संगठन में अनुशासित ऊर्जा की जरूरत होगी। इस कसौटी पर कांग्रेस का अतीत का प्रदर्शन बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं जगाता। कहने की जरूरत नहीं कि अस्तित्व बचाने के लिए भी कांग्रेस को इन कमजोरियों से उबरना होगा।

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