– सलीम अंसारी
दो टर्म से केंद्र की सत्ता से दूर कांग्रेस का छटपटाना स्वभाविक है।इससे पहले के दो टर्म कांग्रेस के नेतृत्व के लिए शुभ नही थे,चाहे अर्थशास्त्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने विपरीत परिस्थितियों में सरकार का संचालन अच्छे से किया हो, मगर इसी दौर में उसके विपरीत राजनीतिक ताकत करप्शन को मुद्दा बना आगे बढ़ रही थी, बाबा रामदेव और अन्ना हजारे इसे ताकत दे रहे थे, पीछे कौन था सब जानते हैं, पूरे देश में इसका काडर माहौल बनाऐ रखने में कामयाब था। मीडिया का संगठित इस्तेमाल हो रहा था, प्रायवेट चेनल और प्रिंट मीडिया उसे खाद मुहैया करा रहे थे। दिल्ली में केजरीवाल बकाया बिलों के कारण काटे गए बिजली कनेक्शन जोड़ते नज़र आ रहे थे।शीला दीक्षित की सरकार बहुत कुछ करने के बाजूद बैकफुट पर थी। निर्भया हत्या काण्ड से भी देश का विपक्षी राजनीतिक पारा भी बुलंदी पर था। हमनें इसी के आसपास मीडिया हाउसेस को बिकते देखा है।एक खास नज़रिया रखने वाले समूह ने देश भर के कई हिंदी और उर्दू अखबारों को खरीद डाला, यह सिलसिला आज तक जारी है। कांग्रेस नेतृत्व के एतबार से संक्रमणकाल से गुज़र रही थी, कांग्रेस की भीड़ संस्कृति संगठित काडर के आगे असहाय थी, हेमन्त बिस्वा शर्मा जैसे कितने लोग थे जो कांग्रेस की सफों में थे, इसकी भनक नेतृत्व को नही थी या वह अनदेखी कर रही थी? नही पता, या जो सब कुछ जानते बूझते भी परिस्थितियों को काबू करने में नाकाम थी। व्यापारिक समूह का कांग्रेस से मोह भंग हो गया था ,वह मुकम्मल इख्तियारात और आज़ादी से काम करना चाहते थे, सरकारी नियंत्रण उन्हें क़बूल नही था, बनिया पार्टी के नाम से मशहूर भाजपा में उनके लिए उम्मीदें थीं। टाटा जैसे लोग अपनी हवाई सेवाओं को दोबारा पाने के लिए टिकटिकी लगाए समय की सूई पर नज़र जमाए बैठे थे, आखिर उनकी आरज़ू पूरी हुई।
सांस्कृतिक समूह के नाम पर छूट पाने वाले समूह ने तुष्टिकरण, औरंगजेब, जनसंख्या जैसे मुद्दों पर अच्छे खासे तबके में अपनी पैठ जमाने में सफलता पा ली थी, अवाम के ज़हन भी इनसे प्रभावित हुए बगैर नही रहे होंगे।अपनी इस कामयाबी को सरकार में बदलने के लिए यह फिर भी काफी नही थे, लिहाज़ा भ्रष्टाचार और विकास के नारों का सहारा लिया गया, मीडिया ने माहौल को साज़गार किया और 2014 में बड़ा बदलाव आ गया। कांग्रेस अपने प्रदर्शन के सबसे निचले पायदान पर चली गई। इसके बाद राजनीति में धर्म का तड़का नही भभका लगा, हालांकि इन सब में में धर्म कम प्रर्दशन ज्यादा हावी था, मगर राजनीती में तो जो दिखता है वह बिकता है। बल्कि धर्म के नाम पर अधर्म भी भीड़तंत्र की शक्ल में चरम पर था, प्रशासन बेबस था या फिर आंखें बंद किए हुए था या खानापूर्ति में व्यस्त रहा। देश में मेंहगाई का सेंसेक्स ने रेकार्ड ऊंचाइयों को छुआ, मगर यह धर्म, आस्था और व्यक्ति पूजा की आड़ में क़बूल था। विकास के नाम पर फीते काटे गए,भ्रष्टाचार के नाम पर एक पार्टी को छोड़कर सब ही निशाने पय रहे और कालाधन अपनी वापसी की उम्मीदें खो चुका।इन सब कमियों को संगठित मुस्लिम विरोधी मुद्दों से ढंका गया।
कांग्रेस ने हालात का जायज़ा लेने के लिए ए के एंटनी को ज़िम्मा सौंपा और उन्होंने ने कांग्रेस की मुस्लिम पहचान पर मुहर लगा दी।2019 में बैचारे राहुल धार्मिक रुप धारण कर के जगह जगह घूमें मगर कोई फायदा नही हुआ।राम मंदिर निर्माण का श्रेय लेने के बहूदा प्रदर्शन भी इसने किया, गर चे इसकी जड़ में कांग्रेस की अपनी भूमिका से इनकार नही किया जा सकता, मगर फिर भी उसका खामोश राजनीतिक और प्रशासनिक योगदान के इशारे और इश्तिहारे इस वक्त अवसरवादिता क़रार पाए।इस मौके पर कांग्रेस ने खुलकर यह बता दिया कि वह हिंदुत्वा की सेवा साफ्ट तरीके से बरसों से कर रही है, इस मामले में सिर्फ ” शैली ” का फर्क उसने रेखांकित किया। एक धर्मनिरपेक्ष दल का धर्म को लेकर मह प्रदर्शन देश में सेक्युलरिज्म की दशा को ज़ाहिर करता है।
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने देश की राजनीति की पटकथा को बदलने का प्रयास ज़रुर किया है और उसके आंशिक परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं, मगर धार्मिक और सांप्रदायिक राजनीति से कांग्रेस भयभीत है और वह किसी ऐसी सांकेतिक चीजों से बचना चाह रही है जो उसके तुष्टिकरण के राजनीतिक दुष्प्रचार को ताकत पहुंचाए। हालांकि कि देश में बुनियादी मुद्दों पर सुगबुगाहट अपना स्पेस बढ़ा रही है मगर फिर भी कांग्रेस मुस्लिमों को लेकर कोई रिस्क लेने में हिचक रही है, यह उसकी कमज़ोर धर्मनिरपेक्षता के चलते हो रहा हो या फिर साफ्ट हिंदुत्वा का करिश्मा हो या राजनीतिक पैंतरेबाज़ी हो , जो भी हो मुस्लिम कांग्रेसियों को अभी और अनदेखी से गुज़रना है और मुसलमानों को अभी वोट बैंक का और लंबा सफर तय करना है