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*राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा बनाम हिंदू राष्ट्र का अभ्युदय* 

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* जवरीमल्ल पारख*

22 जनवरी 2024 का दिन स्वाधीन भारत के इतिहास में काले दिन के रूप में दर्ज हो गया है। इसी दिन अयोध्या में उस नवनिर्मित राम मंदिर में दशरथ पुत्र राम के बालक रूप जिन्हें ‘रामलला विराजमान’ कहा गया, की नयी प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन किया गया। यह धार्मिक आयोजन धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों संपन्न हुआ। इस मंदिर का निर्माण उस स्थान पर किया गया, जहां 6 दिसंबर 1992 से पहले बाबरी मस्जिद खड़ी थी और जिसे दिन-दहाड़े राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ताओं ने (जिन्हें कारसेवक नाम दिया गया) हमला कर कुछ ही घंटों में ध्वस्त कर दिया था। एक विशाल भवन का विध्वंस बिना पूर्व योजना के और सत्तासीनों के साथ मिलीभगत के नहीं हो सकता था। सांप्रदायिक फ़ासीवाद की विचारधारा में यक़ीन करने वाले आरएसएस का दावा है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण वहां पहले से बने राम मंदिर को ध्वस्त करके, मुग़ल सम्राट बाबर के आदेश पर सन 1528 ई. में किया गया था। क्या वास्तव में राम मंदिर या कोई भी मंदिर वहां था और उसे तोड़कर मस्जिद बनायी गयी थी, पुरातत्व विभाग के बार-बार उत्खनन के बाद भी इसका कोई प्रमाण आज तक नहीं प्राप्त हुआ। यह तथ्य सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में भी दर्ज है। सच्चाई तो यह है कि राम की कथा एक मिथकीय कथा है, न कि इतिहास, जिस पर समय-समय पर विभिन्न भाषाओं में काव्य लिखे गये। उन काव्यग्रंथों में न तो राम कथाएं एक सी हैं और न ही अयोध्या वही है, जिसका दावा किया जाता है। वर्तमान अयोध्या में बने सैकड़ों मंदिर उस मुग़ल काल में ही बने हैं, जिस काल में राम मंदिर तोड़े जाने का आरोप लगाया जाता है। आज़ादी से पहले के लगभग सौ सालों तक यह मसला एक भूमि-विवाद के रूप में ही रहा। अयोध्या के कुछ मंदिरों और अखाड़ों ने यह दावा किया कि बाबरी मस्जिद के बाहर की तरफ़ एक चबूतरे को जिसे ‘राम चबूतरा’ कहा गया, वही राम की वास्तविक जन्मभूमि है और समय-समय पर अदालतों में इसको लेकर लड़ाइयां भी लड़ी गयीं, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। उस समय तक बाबरी मस्जिद के अंदर राम जन्मभूमि का दावा नहीं किया गया था। यह बहुत बाद का दावा है। यहां यह भी गौरतलब है कि अयोध्या के ही कई अन्य मंदिर भी यह दावा करते रहे हैं कि राम का जन्म ठीक उसी स्थान पर हुआ था, जहां उनका मंदिर है। यह केवल अयोध्या के बारे में ही सच नहीं है, मथुरा के बारे में भी सच है, जहां छोटे-बड़े कई मंदिर यह दावा करते हैं कि कृष्ण का जन्म ठीक वहीं हुआ, जहां उनका मंदिर स्थित है। यही नहीं, मथुरा में एक पोथड़ा कुंड भी है, जहां बताया जाता है कि कृष्ण के पोथड़े धुलते थे। दिलचस्प यह है कि मिथक के आधार पर, पैदा होने के कुछ ही समय बाद कृष्ण को उनके पिता वासुदेव यमुना नदी पार कर गोकुल ले गये थे और नंद व यशोदा के घर छोड़ आये थे। क्या कृष्ण के पोथड़े धुलने के लिए गोकुल से मथुरा आते थे? अगर आते थे, तो क्या उसी के लिए तालाब का निर्माण कराया गया था? क्या यह निर्माण कंस ने कराया था, जो उस समय मथुरा का राजा था? इन कपोल-कल्पित कहानियों में यक़ीन करना इसीलिए संभव होता है कि लोगों की धार्मिक आस्था उनको विवेकपूर्ण ढंग से सोचने से रोकती है और धर्म के नाम पर जो भी कह दिया जाता है, उसे आंख मूंदकर मान लिया जाता है। तब तर्कबुद्धि और विवेक हवा हो जाता है।

22 और 23 दिसंबर 1949 की रात को चोरी-छुपे बाबरी मस्जिद में प्रवेश कर ‘रामलला’ की मूर्ति रख दी गयी और प्रचारित यह किया गया कि भगवान राम ही साक्षात् रूप में प्रकट हुए। इसे चमत्कारिक परिघटना माना गया। बहुत बाद में इस पर बनाये गये वीडियो में स्पेशल इफ़ेक्ट का उपयोग करते हुए इस चमत्कार को घटित होते हुए दिखाया भी गया और जनता के बीच प्रचारित किया गया। धर्मभीरु हिंदू जनता ने इसे सच भी मान लिया, जबकि यह उन लोगों का कुकृत्य था जो मस्जिद ध्वस्त कर मंदिर बनाना चाहते थे। मस्जिद में मूर्तियां रखना एक आपराधिक काम था और इसे स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने भी 2019 के अपने फ़ैसले में गंभीर अपराध ही माना है। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी तरफ़ से मस्जिद में से मूर्तियां हटाने का आदेश दिया था। लेकिन अयोध्या के तत्कालीन जिलाधीश के. के. नय्यर ने प्रधानमंत्री के आदेश की अवहेलना की और मूर्तियों को मस्जिद में बने रहने दिया गया। यह इसलिए भी मुमकिन हुआ, क्योंकि यू पी के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत का समर्थन भी उन्हें हासिल था। इस तरह मस्जिद में रखी गयी मूर्तियों के कारण बाबरी मस्जिद में नमाज़ का पढ़ा जाना बंद हो गया और अदालत द्वारा मस्जिद में रखी गयी मूर्तियों की नियमित पूजा भी आरंभ करा दी गयी। हालांकि मूर्तियों के दर्शन की अनुमति नहीं दी गयी। यही के के नय्यर 1967 में भारतीय जनसंघ के टिकट पर लोकसभा के सदस्य भी चुने गये। इससे भी यह साबित होता है कि 1949 की आपराधिक घटना में भी आरएसएस की भूमिका रही है।

रामजन्मभूमि का मसला तीन दशकों से ज़्यादा समय तक ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहा। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी को केवल दो सीटें ही मिली थीं, तब विश्व हिंदू परिषद ने रामजन्म भूमि का मसला उठाना शुरू किया और यह मांग की कि रामलला के दर्शन की अनुमति दी जाये। एक स्थानीय अदालत द्वारा ताले खोलने की और दर्शन की अनुमति दे दी गयी। बाद में मस्जिद से थोड़ी दूरी पर कांग्रेस के सक्रिय समर्थन और सहभागिता से राम मंदिर का शिलान्यास भी कर दिया गया। इस तरह रामजन्मभूमि का आंदोलन तेज़ होता गया। इसका लाभ भी भारतीय जनता पार्टी को मिला और 1989 में हुए चुनाव में भाजपा 88 सीटें जीतने में कामयाब रही। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू करने के लिए मंडल आयोग की सिफ़रिशें स्वीकार कर लीं, तो भारतीय जनता पार्टी को हिंदू ध्रुवीकरण के अभियान में अवरोध पैदा होने का डर सताने लगा। यही वजह थी कि भाजपा ने रामजन्मभूमि आंदोलन को जन आंदोलन बनाने का फ़ैसला किया। उनकी मांग यह थी कि बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर का निर्माण किया जाये। लोगों को इस आंदोलन में लामबंद करने के लिए लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर से लेकर अयोध्या तक रथ यात्रा निकालने का निर्णय किया। इस यात्रा ने सारे देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने और जगह-जगह दंगे कराने में अहम भूमिका निभायी। अधिकतर दंगे एकतरफ़ा थे और ग़रीब मुसलमान हिंसा के शिकार बनाये गये। कथित कारसेवकों ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद में हमला करने की कोशिश की, जिसके कारण पुलिस गोलीबारी में 16 लोग मारे गये। 6 दिसंबर 1992 में एक बार फिर कारसेवा के नाम पर लाखों लोगों को एकत्र किया गया और उसी दिन 460 साल पुरानी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने 2019 के अपने फ़ैसले में मस्जिद विध्वंस को भी अपराध ही माना था। यह और बात है कि अदालतें ये अपराध करने वाले अपराधियों को चिन्हित करने और उन्हें सज़ा देने में अब तक नाकामयाब रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में यह भी स्वीकार किया था कि जहां बाबरी मस्जिद थी, उस जगह उससे पहले वहां राम मंदिर होने का कोई  सबूत नहीं मिलता। दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने के पक्ष में फ़ैसला यह कहकर दिया था कि हिंदू जनमत सदियों से इस बात में यक़ीन करता है कि रामचंद्र जी का जन्म इसी स्थान पर हुआ था। इसलिए हिंदू जनता के धार्मिक विश्वास का सम्मान करते हुए सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से यह निर्णय दिया कि जहां बाबरी मस्जिद खड़ी थी, उस जगह को हिंदू पक्ष को मंदिर बनाने के लिए सौंप दिया जाये। यह भी आदेश दिया कि मंदिर बनाने के लिए केंद्र सरकार एक ट्रस्ट बनाये, जो इस काम को संपन्न करे। चूंकि यह साबित नहीं हो सका कि बाबरी मस्जिद मंदिर तोड़कर बनायी गयी थी, इसलिए मुस्लिम पक्ष को सांत्वना देते हुए उस जगह से लगभग 24-25 किलोमीटर दूर पांच एकड़ ज़मीन मस्जिद बनाने के लिए देने का फ़ैसला भी सुनाया गया। यह और बात है कि आज तक उस मस्जिद की एक ईंट तक नहीं रखी गयी है। स्पष्ट है कि राम मंदिर बनाने के लिए बाबरी मस्जिद की जगह हिंदू पक्ष को दिया जाना संविधानसम्मत न्याय नहीं था, बल्कि हिंदू आंदोलनकारियों के पक्ष में दिया गया एक राजनीतिक फ़ैसला था। न्यायाधीशों ने संविधान की बजाय हिंदू जनभावना को तरजीह दी।

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को ज़िम्मेदारी दी कि वह एक ट्रस्ट बनाकर उसे मंदिर निर्माण का दायित्व सौंपे। केंद्र की मोदी सरकार ने ट्रस्ट बनाकर उन संगठनों से जुड़े लोगों को मंदिर बनाने की ज़िम्मेदारी सौंप दी, जो 1992 के मस्जिद विध्वंस की साजिश में शामिल थे। कोर्ट के फ़ैसले के बावजूद नरेंद्र मोदी सहित भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के विभिन्न संगठन लगातार इस बात का प्रचार करते रहे हैं कि बाबरी मस्जिद की जगह पर मंदिर के निर्माण द्वारा पांच सौ साल पहले के अन्याय का बदला ले लिया गया है और राम, जिनको उनके घर से निर्वासित कर दिया गया था, उन्हें उनका घर मिल गया है। यहां तक कि 22 जनवरी 2024 के बाद हुई केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधाई देते हुए जो प्रस्ताव पारित किया गया, उसमें भी कहा गया कि ‘1947 में देश के शरीर को ही आज़ादी हासिल हुई थी, लेकिन देश की आत्मा की प्राण प्रतिष्ठा तो 22 जनवरी 2024 मिली और इससे प्रत्येक को आध्यात्मिक संतुष्टि प्राप्त हुई’। इस प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “सदियों पुराने एक स्वप्न को साकार किया है” और “भारतीय सभ्यता पांच शताब्दियों से इसका स्वप्न देख रही थी”। (इंडियन एक्सप्रेस, 25 जनवरी, 2024)।

मंत्रिमंडल का यह प्रस्ताव आज़ादी के लिए लगभग दो सौ साल तक लड़े गये संघर्ष का अपमान है, जिस संघर्ष में लाखों-लाख भारतीयों ने अपने जीवन का बलिदान दिया, जेलों में यातनाएं सहीं। इसी लंबे संघर्ष का नतीजा था, 15 अगस्त 1947 की आज़ादी, जिसे पूरा देश स्वतंत्रता दिवस के रूप में हर साल मनाता रहा है। लेकिन स्पष्ट है कि अगर वह आज़ादी एक आत्माहीन शरीर की थी, तो उसे आज़ादी कैसे कहा जा सकता है और अगर उस देह में आत्मा की प्रतिष्ठा 22 जनवरी 2024 को हुई है, तो क्या यही वास्तविक आज़ादी है? यही नहीं, क्या उस लड़ाई के नायकों ने अंतत: एक शव को ही ढोकर हमारे सिर पर लाद दिया था? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसमें प्राण प्रतिष्ठा करके उसे नया जीवन दिया है?

क्या भारत की जनता इस तरह की ऊलजलूल बातों को सहज ही स्वीकार कर लेगी और भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफ़ाकुल्लाह जैसे हज़ारों शहीदों के बलिदान को अपमानित होने देगी? क्या सुप्रीम कोर्ट पांच सौ साल के मिथ्या और भ्रामक दावों को भारत सरकार द्वारा फैलाये जाने की ओर इसी तरह आंखे मूंदे रहेगा? क्या यह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना नहीं है? क्या इसके द्वारा जनता में उस झूठ को पुख्ता करने का काम नहीं किया गया, जिसे कई दशकों से लगातार बोला जा रहा है? सच तो यह है कि इसके द्वारा हिंदू और मुसलमानों के बीच ज़हर घोलने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने का काम किया जा रहा है। भाजपा और आरएसएस का यह दावा कि पिछले पांच सौ साल से हिंदू जनता राम मंदिर के लिए संघर्ष करती रही है, सरासर झूठ है। 1949 से पहले तक केवल क़ानूनी लड़ाइयां लड़ी गयीं और वे भी लगभग सौ साल तक ही। भारत में सांप्रदायिक दंगों का इतिहास भी बहुत पुराना नहीं है। 1857 के प्रथम साझा संघर्ष के बाद ही हिंदुओं और मुसलमानों में फूट पैदा करने के लिए ही अंग्रेज़ों ने भारतीय इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या पेश की और उन्हीं की साज़िशों का नतीजा था कि अयोध्या और दूसरे कई जगहों पर मंदिर-मस्जिद को लेकर विवाद खड़े हुए और सांप्रदायिक दंगों को भड़काने के लिए उनका इस्तेमाल किया गया। औपनिवेशिक शासकों की मदद उस समय भी सांप्रदायिक संगठन कर रहे थे और आज भी उसी विनाशकारी विभाजनकारी एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं।

राम मंदिर की भव्य इमारत दरअसल मस्जिद तोड़े जाने के जघन्य अपराध की नींव पर खड़ी है। इस नींव में उन हज़ारों निर्दोष लोगों का ख़ून भी शामिल है, जो संघ परिवार द्वारा तीन दशकों से अधिक समय से चलाये गये रामजन्मभूमि आंदोलन और इसके बहाने हिंदू ध्रुवीकरण के हिंसक अभियानों के शिकार हुए। इस बात का तो कोई प्रमाण नहीं है कि बाबरी मस्जिद से पहले कोई मंदिर उस जगह पर था, लेकिन इस बात का तो ठोस प्रमाण है कि राम का यह मंदिर आपराधिक ढंग से मस्जिद तोड़कर बनाया गया है। जो लोग इसे हिंदू आस्था की अभिव्यक्ति मानते हैं, पांच सौ साल पहले हिंदुओं के साथ किये गये कथित अन्याय का बदला मान रहे हैं और इस तरह हिंदुओं की विजय पताका के रूप में इस मंदिर को देख रहे हैं या इसे हिंदू नवजागरण  के नये दौर की शुरुआत मान रहे हैं, वे दरअसल 6 दिसंबर 1992 में किये गये जघन्य अपराध को अपने वैचारिक समर्थन की घोषणा कर रहे हैं और उसका गर्व से प्रदर्शन भी कर रहे हैं, जबकि धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश के नागरिक के नाते उन्हें इस पर शर्मिंदा होना चाहिए था।

6 दिसंबर 1992 को एक पांच सौ साल पुरानी मस्जिद ही नहीं तोड़ी गयी थी, बल्कि पूरे मुस्लिम समुदाय के उस विश्वास को तोड़ा गया था, जिस विश्वास से प्रेरित होकर उन्होंने पाकिस्तान की बजाय हिंदुस्तान में रहने का फ़ैसला किया था और जिन्होंने धार्मिक राष्ट्र की बजाय एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में रहना स्वीकार किया था। लेकिन 6 दिसंबर 1992 के दिन ने उनके इस विश्वास को बुरी तरह हिला दिया था। उसके बाद गुज़रे 32 साल उनके लिए एक न ख़त्म होने वाला दु:स्वप्न ही रहा है। विशेष रूप से पिछले दस साल का हर दिन उन्हें एहसास कराता रहा है कि यह देश उनका नहीं है। संविधान में कही गयी यह बात कि ‘संविधान की नज़र में प्रत्येक भारतीय नागरिक चाहे उसका धर्म, उसकी जाति, उसकी नस्ल, उसकी भाषा कुछ भी क्यों न हो, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष या वह हिंदुस्तान के किसी भी इलाक़े का रहने वाला क्यों न हो, सब बराबर हैं और सबको समान अधिकार हासिल हैं’, मुस्लिम समुदाय के लिए एक अर्थहीन कथन बनता जा रहा है। 22 जनवरी 2024 ने जैसे निर्णायक रूप से इस बात को संविधान से ऊपर स्थापित कर दिया है, जो आरएसएस के एक सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने कही थी : “भारत केवल हिंदुओं का राष्ट्र है और बाक़ी सभी धार्मिक और नस्ली समुदाय विदेशी हैं। वे भारत में रह सकते हैं, लेकिन तब, जब वे ‘अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें’ और ‘खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें’। ‘अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें राष्ट्र के रहमो-करम पर, सभी संहिताओं और परंपराओं से बंधकर केवल एक बाहरी की तरह रहना होगा, जिनको किसी अधिकार या सुविधा की तो छोड़िए, किसी विशेष संरक्षण का भी हक़ नहीं होगा’। (‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ के हिंदी अनुवाद से उद्धृत, पृ. 201-202)। अगर वे अपने को राष्ट्रीय नस्ल में समाहित नहीं करते हैं तो ‘जब तक राष्ट्रीय नस्ल उन्हें अनुमति दे, वे यहां उसकी दया पर रहें और राष्ट्रीय नस्ल की इच्छा पर यह देश छोड़कर चले जायें।’ स्पष्ट है कि आरएसएस के अनुसार हिंदू राष्ट्र में ग़ैरहिंदुओं, विशेष रूप से मुसलमानों और ईसाइयों को नागरिकता के वे अधिकार नहीं मिल सकते, जो हिंदुओं को स्वाभाविक रूप से प्राप्त होंगे। यानी उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा।

नरेंद्र मोदी अपने पूरे शासनकाल में लगातार यह प्रदर्शित करते रहे हैं कि वे सबसे पहले एक हिंदू हैं और हिंदू होना ही उनके राष्ट्रवादी होने का प्रमाण है। गोदी मीडिया लगातार प्रचारित करता रहा कि 22 जनवरी के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के लिए वे ग्यारह दिन से व्रत पर थे। उन्होंने देश के विभिन्न मंदिरों की यात्राएं कीं। वहां झाड़ू-पोंछा तक किया। नदियों और समुद्र में स्नान किया और इन ग्यारह दिनों में फल और नारियल का पानी ही उनका आहार रहा। वे इस दौरान मंदिर के पुजारियों और पुरोहितों की तरह की वेशभूषा धारण किये रहे। अपने सरकारी निवास स्थान पर गायों के बीच उनको घास खिलाते और उनकी सेवा करते हुए दिखायी दिये। इस तरह वे बराबर पूरे देश को संदेश देते नज़र आये कि वे किसी लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि एक हिंदू राष्ट्र के सर्वोच्च प्रतिनिधि हैं (चाहें तो उन्हें राजा मान सकते हैं)। यह महज संयोग नहीं है कि 23 जनवरी को ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के पहले पन्ने पर छपे भाजपा समर्थक एक बिल्डर के विज्ञापन में अयोध्या को एक नये साम्राज्य का पुनर्जन्म बताया गया है। यह भी संयोग नहीं है कि मंदिर ट्रस्ट के सचिव चंपत राय और दूसरे कई मोदी भक्तों ने उन्हें विष्णु का अवतार और साक्षात भगवान कहा है। इस तरह राम की प्राण प्रतिष्ठा दरअसल हिंदू राष्ट्र की प्राण प्रतिष्ठा और उसके कथित राजा के राज्याभिषेक का भव्य आयोजन था। इसका मक़सद यह भी है कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में किये गये कार्यों की आलोचना से परे रखना, क्योंकि भगवान की आलोचना तो नहीं की जा सकती। उनकी तो भक्ति ही की जा सकती है। उनके इस ईश्वरत्व का ही प्रताप है कि उनके एक आह्वान पर हिंदू समाज का अच्छा-ख़ासा हिस्सा राम (और मोदी जी) के भक्ति भाव में डूब गया।

22 जनवरी के इस भव्य आयोजन को केवल अयोध्या में ही नहीं मनाया गया, बल्कि नरेंद्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार ने सारे देश की जनता (ज़ाहिर है हिंदू जनता) का आह्वान किया था कि वे अपने घर, गांव, मोहल्ले और सोसाइटी में इस दिन को एक धार्मिक उत्सव की तरह मनाये। आम आदमी पार्टी ने कहा कि लोग रामचरितमानस के सुंदर कांड का पाठ करें। (इसी सुंदरकांड में वह कुख्यात चौपाई भी है जिसमें कहा गया है : ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’। विडंबना यह है कि सुंदरकांड के पाठ में औरतों और पिछड़ों ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया।) मंदिरों में भजन-कीर्तन किये । घंटा-घड़ियाल बजाये। प्रभात फेरी निकाली। घरों पर भगवा झंडे फहराये। रात के समय दिये जलाये, रोशनी की यानी कि जैसा प्रधानमंत्री ने कहा, इस दिन को भी दिवाली की तरह मनाया। प्रचारित किया गया कि वनवास के बाद रावण पर विजय प्राप्त कर जब राम अयोध्या लौटे थे, उसी तरह पांच सौ साल के निर्वासन के बाद राम अपने घर लौट रहे हैं। इस दिन जगह-जगह जुलूस निकाले गये।

दावा चाहे जो किया गया हो, लेकिन इसका मक़सद किसी धार्मिक भावना की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि एक समुदाय पर विजय की घोषणा का उत्सव ही था। इस कथित उत्सव की स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी, जगह-जगह हुए दंगे, जिनका शिकार मुख्य रूप से मुसलमानों को बनाया गया। चर्च और मस्जिदों पर भगवा झंडा फहराये गये। उनके सामने ढोल-नगाड़े बजाये गये और भजन-कीर्तन किया गया। मुस्लिम समुदाय को गंदी-गंदी गालियां दी गयीं और उनके घरों, दुकानों और धार्मिक स्थलों पर हमले किये गये।

इस उत्सव में अधिकतम भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए भाजपा सरकारों ने और दिल्ली की आप सरकार ने भी सरकारी कार्यालयों में आधे दिन के अवकाश की घोषणा की। स्कूल और कालेज पूरे दिन के लिए बंद कर दिये गये। इस तरह सरकार ने पूरे देश को यह संदेश देने की कोशिश की कि यह एक धार्मिक आयोजन ही नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय आयोजन भी है। राम धर्म के ही प्रतीक नहीं है, बल्कि राष्ट्र के प्रतीक हैं। अगर धार्मिकता के चश्मे को उतारकर देखें, तो राम किसी भी आधुनिक, लोकतांत्रिक और समतावादी समाज के आदर्श नहीं हो सकते। वह राम, जिन्होंने अपनी पत्नी की अग्नि परीक्षा ली और बाद में गर्भवती होते हुए भी उसे निर्वासित कर दिया। वह राम, जिन्होंने एक शूद्र शंबुक की केवल ब्राह्मणों को प्रसन्न करने के लिए हत्या कर दी क्योंकि वह धर्मशास्त्रों का ज्ञान हासिल करना चाहता था और तपस्या द्वारा वह पद प्राप्त करना चाहता था, जिसको प्राप्त करने का अधिकार केवल ब्राह्मणों का था। राम मंदिर को लेकर राष्ट्रव्यापी उत्साह का उग्र और हिंसक प्रदर्शन इस बात को बताता है कि एक आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिसंपन्न राष्ट्र बनाने का हमारा अभियान पूरी तरह से पटरी से उतर चुका है और हम तेज़ी से पीछे की तरफ़ भागे जा रहे हैं। केवल इस उम्मीद में कि हमें हमारा वैसा ही हिंदू राष्ट्र मिल जायेगा, जो विभाजन के समय पाकिस्तान को मिला था, एक इस्लामी राष्ट्र की ही तरह का और जिसका हश्र हम देख रहे हैं।

22 जनवरी 2024 के दिन अयोध्या में जो हुआ, वह प्रकारांतर से हिंदू राष्ट्र की घोषणा ही है, भले ही उस पर संसद की मोहर न लगी हो। संसद की मोहर लगना अब महज़ एक औपचारिकता है। वे सभी लोग, जो सचेत रूप से या किसी बाहरी या आंतरिक दबाव के कारण राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के समारोह में शामिल हुए, चाहे अयोध्या जाकर या अपने शहर, मोहल्ले या घर पर दिये जलाकर या पटाखे छोड़कर, उन्होंने मान लिया है कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया जाना न केवल अपराध नहीं है, बल्कि उस महान राष्ट्रीय यज्ञ का शुभारंभ था, जिसकी पूर्णाहुति अब 22 जनवरी 2024 को हुई है और इस ऐतिहासिक राष्ट्रीय पर्व के दिन हमें इसका साक्षी होने का गौरव प्राप्त हुआ है। लेकिन सच्चाई यह है कि वे जाने-अनजाने बाबरी मस्जिद विध्वंस के अपराध के सहभागी बन गये हैं। संविधान की एक महत्त्वपूर्ण बुनियाद धर्मनिरपेक्षता की इस तरह हत्या किये जाने में, बीस करोड़ आबादी के एक पूरे समुदाय को समानता का जो अधिकार संविधान ने दिया है, उससे नीचे धकेलकर दोयम दर्जे का नागरिक बनाये जाने के अपराध में सहभागी बन गये हैं। 22 जनवरी 2024 ने अंतिम रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में भारत के अस्तित्व का अंत कर दिया है और इस तरह भारत के लोकतंत्र के नष्ट किये जाने की भी शुरुआत हो गयी है।

राम मंदिर का निर्माण भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के एजेंडे में लंबे समय से रहा है। लेकिन इससे यह समझ लेना अपने आपको धोखा देना होगा कि उनका यह एजेंडा समाप्त हो गया है। 1991 में संसद द्वारा जो क़ानून पास किया गया था कि बाबरी मस्जिद को छोड़कर देश के किसी धर्मस्थल की यथास्थिति वही बनी रहेगी, जो 15 अगस्त 1947 के दिन थी। लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद से काशी और मथुरा के मामले फिर से उठने लगे हैं और 1991 के क़ानून को अनदेखा करते हुए इन दोनों स्थानों पर बनी मस्जिदों के सर्वेक्षण आदि की अनुमति अदालतों द्वारा दी जा रही है और कोई आश्चर्य नहीं होगा, यदि भविष्य में अदालतें यह कहते हुए मस्जिदों को हिंदू पक्ष को सौंपने का आदेश पारित कर दे कि इन स्थानों से हिंदुओं की भावना जुड़ी हुई है। संघ परिवार द्वारा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का यह हिंसक अभियान तब तक नहीं रुकने वाला है, जब तक कि मौजूदा संविधान की जगह एक नया संविधान लागू नहीं हो जाता। स्पष्ट ही, नया संविधान यदि एक ओर फ़ासीवाद से प्रेरित होगा, तो दूसरी ओर ब्राह्मणवाद से भी, मनुस्मृति जिसका आधार ग्रंथ है।

यहां यह दिलाने की आवश्यकता है कि मौजूदा संविधान जब बनाया जा रहा था, तब आरएसएस ने यह कहते हुए नया संविधान बनाने का विरोध  किया था कि जब मनुस्मृति है, तो नये संविधान की क्या आवश्यकता? संघ परिवार के इस विजय अभियान को भारत की धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और सामाजिक न्याय में यक़ीन करने वाली और मौजूदा संविधान में आस्था रखने वाली मेहनतकश जनता ही रोक सकती है, जिसके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हितों पर पिछले दस सालों से लगातार हमले हो रहे हैं। उनसे वह सब कुछ छीना जाता रहा है, जो लंबे संघर्ष के द्वारा उन्होंने हासिल किया था।

*(लेखक सेवा निवृत्त प्रोफेसर हैं और साहित्य, सिनेमा और मीडिया पर नियमित लेखन करते हैं। कई पुरस्कारों से सम्मानित। संपर्क : 9810606751, ई-मेल : jparakh@gmail.com)*

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