अग्नि आलोक

एक थप्पड़ की संविधान व्यथा

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कनक तिवारी 

बाॅलीवुड की फिल्म-मंडी की अदाकारा हिमाचल प्रदेश की मंडी लोकसभा से भाजपा की टिकट पर निर्वाचित राजनीति की मंडी के चखचख बाज़ार की नामचीन किरदार हो रही कंगना रानावत के गाल पर केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की एक कान्स्टेबल कुलविन्दर कौर द्वारा कथित रूप से मारे गए थप्पड़ से बखेड़ा खड़ा तो हो गया है। कुलविन्दर को निलम्बित कर दिया गया है। उसके खिलाफ शायद भारतीय दंड संहिता की धाराओं 323 और 341 के मामूली और जमानतीय अपराध ही दर्ज हो सकते हैं। धारा 341 तो लग ही नहीं सकती। कुलविन्दर पर लागू सेवा नियमों का उल्लंघन भी हो सकता है। इस घटना पर पक्ष विपक्ष में चटखारे लेकर सैकड़ों हजारों टिप्पणियों, कमेन्ट और सीखों का बाज़ार गर्म हो रहा है। घटना की यादों पर पपड़ी पड़ जाएगी और उसे भुला भी दिया जाएगा। लेकिन इस थप्पड़ ने जनविमर्श तलाश करने के लिए मुझ जैसे लोगों को कुरेद दिया है। 

लोकसभा के चुनाव में खासतौर पर इंडिया गठबंधन के नेताओं ने संविधान को अपनी तलवार और ढाल दोनों बना लिया। एनडीए की जीत के बाद संसद भवन में सदैव की भांति प्रधानमंत्री संविधान के चरणों में लोट गए। वही संविधान थप्पड़ प्रकरण पर मुझे बोलना चाहता है। संविधान की आत्मा भाग तीन में है। वहां मूल अधिकार में। बोलने की, यूनियन बनाने, आने जाने, रोज़गार की तरह तरह की आज़ादियों का ऐलान है। हाथ के हाथ उन पर लगे प्रतिबंधों का ब्यौरा भी है। सवाल यह है कि यदि नागरिकों के साथ सियासी या प्रशासनिक जुल्म हो रहा है। तो क्यों कंगना रानावत जैसे और लोगों के द्वारा भी भारतीय किसानों के सबसे बडे़ आंदोलन में उनके परिवारों की महिलाओं के शरीक होने पर फब्तियां कसी जाएं कि 100-100 रुपए लेकर ये औरतें वहां बिठाई गई हैं। तो उसका प्रतिरोध किस तरह हो? ऐसे हर मुद्दे में गोडसे और सावरकर को नहीं, गांधी को ही खींचकर लाया जाता है। हत्यारे गोडसे के मंदिर बने हैं। संविधान के चरणों में लोटने वाले भी गोडसे मंदिर में चरण छू लेते हैं। 

गांधी ने कहा था अहिंसा कायरों का धर्म नहीं है। वीर हृदय की प्राण वायु है। अंतिम सीमा तक अटल रहो लेकिन अगर कोई तुम्हारी मां, बहन, पत्नी या अन्य किसी का शील हरण करने की कोशिश करे तो समझाओ। प्रतिरोध करो फिर बताएं आगे क्या कहा था? 

कई माह पहले कंगना ने कटाक्ष किया होगा। वह कुलविन्दर के दिल में जज़्ब हो गया होगा। उसे अचानक उत्तेजित कंगना ने नहीं किया। इसका बचाव उसे नहीं मिलेगा। लेकिन अपनी मां, बल्कि सैकड़ों हजारों किसान परिवारों की माओं के खिलाफ कोई भद्दे कटाक्ष करे या कथित रूप से सोशल मीडिया में भी उनकी गरिमा को चोटिल करे। तो चोट सीधे आत्मा पर लगती है। आत्मा पर लगी चोट से उपजा मवाद कभी नहीं सूखता। जो कुलविन्दर के खिलाफ हैं। उनसे पूछा जाना चाहिए जब मणिपुर में माताओं बहनों का फौजी लोग भी बलात्कार कर रहे थे। जब इरोम शर्मिला और तमाम माताएं बहनें असम रायफल्स के जवानों के सामने पूरी तौर पर निर्वस्त्र होकर कह रही थीं ‘आओ हमारा रेप करो।‘ जब कर्नाटक के हासन का सांसद और उसके पिता का रेवन्ना परिवार कथित रूप से लगभग तीन हजार महिलाओं के यौन शोषण का आरोपी हुआ। जब कठुआ में एक बच्ची के साथ बलात्कार किया गया और बलात्कारियों का सम्मान हुआ जब बिलकीस बानो के परिवार के खिलाफ या हाथरस में हुआ। तब चिकनी चुपड़ी जहीन औरतें कंगना से हमदर्दी जताने वाली इत्र फुलेल सनी महीन भाषा की महिलाएं कहां थीं! महिलाओं के शील का सड़कों पर नीलाम हो रहा हो क्योंकि वे दलित कुल की हैं। तब खुद कंगना ने अपना मुंह क्यों सिल रखा था?

मैं कतई हिंसा के पक्ष में नहीं हूं। हालांकि उन्मादित होकर एक थप्पड़ मारने को मैं हिंसा नहीं, आक्रोश मानता हूं। कानून भी उसे यही मान सकता है। ऐसे अपराधी को तो चेतावनी देकर भी छोड़ा जा सकता है। बिना चूं चपड़ के भी कुलविन्दर का खेद रिकाॅर्ड कर मामला समाप्त कर सकता है। उसकी सेवा शर्तों के तहत मामूली कार्यवाई हो सकती है। लेकिन यह जनविमर्श नहीं है। संविधान में खुद गांधी के सिद्धान्तों की परीक्षा ज़रूरी है। सिविल नाफरमानी, निष्क्रिय प्रतिरोध और सत्याग्रह की गांधी की परिभाषाएं भी उनके साथ चली गईं। क्योंकि तब तक अंगरेज़ भी चला गया था। संविधान निर्मित आज़ाद भारत में सिविल नाफरमानी की नपुंसक परिभाषा नहीं हो सकती। डीजीपी साहब के जूतों पर अर्दली पाॅलिश करे। उनके कुत्तों की सेवा करे। मेम साहब की डांट खाए। छुट्टी के दिन भी काम करे। अगर प्रतिरोध करे तो झूठे आधारों पर उसकी नौकरी ले ली जाए। भारत में निचली सरकारी सेवाओं का तितिम्मा बुनना अंगरेज़ी न्याय कुल की जूठन नहीं हो सकती। अगर कुलविन्दर ने छुट्टी ली होती और थप्पड़ मारती या सड़क या बाज़ार में ऐसी घटना होती। तब कानून की पैनी नज़र से अपराधों की नस्लें तक अलग हो जातीं। सवाल है कि भारत के नागरिकों की आत्मा का कोई आसमान है भी कि नहीं। जिस देश का सबसे बड़ा लोकसेवक सेवा करते करते परमात्मा का अंश हो जाए और फिर भी हेट स्पीच का उत्पादन करता रहे। हेट स्पीच के उत्तेजक सम्मेलन हों। सुप्रीम कोर्ट समझाइश की नस्ल की नसीहत दे। लेकिन हो कुछ नहीं। तब नागरिक आज़ादी कहां है? याद रहे निर्वीर्य कुंठा दैहिक प्रतिरोध के मुकाबले नपुंसक होती है। मैं फिर कहता हूं। कतई हिंसा का समर्थन नहीं करता। ऐसा भी हुआ है हज़ारों बार कि किसी बड़े सरकारी अधिकारी पर सरकारी कर्मी द्वारा हमला किया गया हो। जूता फेंककर या थूकने की कोशिश की गई हो। लेकिन उन्होंने कोई शिकायत नहीं की हो। सुरक्षा कक्ष में कंगना के साथ बदसलूकी भी हुई और वे इसका बखेड़ा नहीं खड़ा करतीं तो बात तो आई गई हो जाती। लेकिन वे चतुर खिलाड़ी हैं। उन्हें अच्छी तरह याद है कि वे भाजपा की सांसद हैं और मंत्रिपरिषद में उनकी संभावना है। उन्होंने मामले को तूल दिया कि मुझे पंजाब में पनप रहे उग्रवाद और आतंकवाद की इस कारण चिंता हो रही है। एक थप्पड़ से आतंकवाद का अद्भुत रिश्ता कायम किया गया? उसका शिकार देश की सबसे बड़ी नेता और बाद में उसका बेटा भी तो हुए थे। इस घटना से राजनीतिक उत्कर्ष और करीअर हासिल करने की कोशिश हो? तो उससे तो एक थप्पड़ की हिंसा ही बेहतर है।

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