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सामयिक ….बिरसा मुंडा की याद मूर्ति स्थापना से संघर्ष प्राप्त नहीं होने वाला

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 बिरसा मुंडा की पुण्यतिथि पर

सुसंस्कृति परिहार

 आज़ादी के संग्राम के आदिवासी नायक विरसा मुंडा की पुण्य तिथि 9जून की याद करना आज बहुत ज़रुरी है।जब आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ पर स्वतंत्रता सेनानियों की गाथा लिखी जा रही है ऐसे दौर में विस्तार मुंडा के अवदान को बार बार याद कर आदिवासी समुदायों को बताया जाना चाहिए कि आज़ादी के संग्राम में उनका इतिहास किसी से कम नहीं है।बिरसा मुंडा को आज़ादी का सिपाही कम बल्कि भगवान के रुप में आदिवासियों में ज्यादा महत्व रखते हैं।ये दायित्व है आदिवासी समाज से पढ़े लिखे युवक युवतियों का वे अपने समाज को बताएं वे समाज सुधारक और एक बड़े क्रांतिकारी थे।

 वह आदिवासी और खासकर मुंडा समाज की आंतरिक बुराइयों और कमजोरियों को दूर करने वाले सामूहिक अभियान के जनक थे बिरसा ने मुंडा समाज को पुनर्गठित करने का जो प्रयास किया, वह अंग्रेज हुकूमत के लिए विकराल चुनौती बनी। बिरसा के नेतृत्व में आदिवासी समाज ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दी। इस क्रम में बिरसा ने मुंडा जनजाति और पूरे आदिवासी समाज की उन सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान की दिशा में पहल की, जो आदिवासी संस्कृति पर हिंदू, मुसलमान और ईसाई पंथ के बढ़ते ‘दबाव’ की वजह से पैदा हुई और हो रही थीं। बिरसा आंदोलन का मर्म, उसकी विशालता और विशिष्टता को समझने के लिए झारखंड क्षेत्र की उन वास्तविकताओं को जानना जरूरी होगा, जो अंग्रेजों के आगमन के पूर्व समस्या थीं लेकिन बाद में संकट बन गयीं। 1789 से 1885 तक हुए अन्य आंदोलनों के कारणों के विश्लेषण से बिरसा आंदोलन की पृष्ठभूमि स्पष्ट रूप से पहचानी जा सकती है

 झारखंड में परम्परागत भूमि व्यवस्था के तोड़े जाने और धार्मिक आधार पर सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन किये जाने की अंग्रेजों की कोशिशों के खिलाफ 1789 से 1831-32 के बीच झारखंड के छोटा नागपुर क्षेत्र में कई आंदोलन हुए। 1831-32 का कोल विद्रोह उन आंदोलनों का चरमोत्कर्ष था। वह सही मायने में अंग्रेजों के खिलाफ प्रथम आदिवासी संघर्ष था।मुंडा जनजाति के बीच विद्रोहअंग्रेजी शासन के पूर्व ही झारखंड क्षेत्र में सामंती व्यवस्था जड़ जमाने लगी थी। उसके कारण आदिवासियों की परम्परागत भूमि व्यवस्था और उससे सम्बद्ध प्रशासन की स्वायत्त प्रणालियां टूटने-फूटने लगीं। उसकी जगह नयी व्यवस्था कायम होने लगी। उस व्यवस्था ने आदिवासी जीवन में आर्थिक शोषण और सामाजिक अशांति के बीज बो दिये। ब्रिटिश शासकों ने उस व्यवस्था पर कब्जा जमा कर उसे ही ‘कानून का राज’ बना दिया। उसने आदिवासियों के पारम्परिक संगठनों और संस्थाओं को ध्वस्त किया। साथ ही उसने आदिवासी समाज में लोभ-लाभ के ऐसे तंत्र का निर्माण किया जो आम आदिवासियों में आत्महीनता पैदा करे और कुछ वर्गों को पतन के लिए प्रेरित करे।

उसके पूर्व 1789 से 1820 के बीच मुंडा जनजाति के बीच विद्रोह की भावना सुलग रही थी। उसकी मुख्य वजह थी खुंटकट्टी व्यवस्था का विघटन। 1764 में बक्सर के युद्ध में पराजय के बाद मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय ने बंगाल का शासन तंत्रा ईस्ट इंडिया कम्पनी को सौंप दिया। पंचपरगना के मैदानी क्षेत्रों में खुंटकट्टी व्यवस्था पर अंग्रेज शासन के प्रहार के कारण मुंडा जनजाति के लोगों को भाग कर दक्षिणी खूंटी और पूर्वी तमाड़ की पहाड़ियों के बीच बसना पड़ा था। कोल विद्रोह के रूप में मुंडा जनजाति के असंतोष की आग फूटी। उसे उरांव एवं अन्य जनजातियों का सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ। विद्रोह की वह आग सिंहभूम से लेकर पलामू तक फैली। खरवारों ने भी उस विद्रोह का समर्थन किया। कोल विद्रोह के दौरान छोटानागपुर के तमाड़, बुंडू, सिल्ली और पंचपरगना के तमाम कोलों ने हथियार उठा लिये। यूं 1932 में विद्रोहियों को आत्मसमर्पण करना पड़ा लेकिन अंग्रेज हुकूमत को भी जनजातीय क्षेत्र के विद्रोहियों से समझौता करना पड़ा। अंग्रेज हुकूमत ने टुकड़े-टुकड़े में समझौता कर समाज को बांटने और फिर कुचलने की अपनी रणनीति के तहत दक्षिण-पश्चिम सीमा एजेंसी की स्थापना की। विल्किंसन रूल के नाम से जनजातीय क्षेत्र में प्रशासन, दीवानी एवं फौजदारी न्याय व्यवस्था में सुधार की प्रक्रिया को मंजूर किया। उस प्रक्रिया में मुंडाओं की जमीन की सुरक्षा की मांग शामिल नहीं की गयी। सो 1833 आते-आते दालभूम एवं मानभूम क्षेत्र में भूमिज विद्रोह शुरू हुआ। उसे उसी वर्ष सेना के जरिये कुचल दिया गया।

कोल विद्रोह मुख्यत: बिचौलियों के खिलाफ संघर्ष के रूप में प्रगट हुआ। उस विद्रोह को समझौता के जरिये दबा दिये जाने और भूमिज विद्रोह को सेना की मदद से कुचल दिये जाने के बाद बिचौलिये फिर लौटे। इस बार बिचौलियों के वर्ग ने ब्रिटिश हुकूमत के संरक्षण में नये तेवर के साथ पूरे आदिवासी क्षेत्र में कहर बरपाया। तब से ‘सरदार आंदोलन’ की नींव पड़ी।

1850 से पूरे आदिवासी क्षेत्र में ईसाई धर्म का प्रचार भी जोरों से शुरू हुआ। मुंडा आदिवासियों पर ईसाई धर्म प्रचारकों का प्रभाव बढ़ा। मुंडा आदिवासियों में से कई लोगों ने अपने अस्तित्व और अधिकारों की सुरक्षा की उम्मीद से ईसाई धर्म स्वीकार किया। करीब 50 सालों से लड़ते-लड़ते थकी मुंडा जनजाति को ईसाई धर्म में मुक्ति का रास्ता भी दिखा लेकिन वहां से भूमि व्यवस्था नयी उलझनों में फंस गयी। गैरईसाई मुंडा जनजाति के बड़े किसानों में यह धारणा पुख्ता होने लगी कि चर्च के पादरी अपने ईसाई रैयतों के लाभ के लिए जमींदारी के कामकाज में हस्तक्षेप करते हैं।

1857 का सिपाही विद्रोह शुरू होते ही मुंडा जनजाति का विद्रोह अंग्रेज हुकूमत के साथ-साथ चर्च के पादरियों के खिलाफ भी भड़क उठा। 1857 का गदर शांत हुआ तो सरदार आंदोलन संगठित जनांदोलन के रूप में शुरू हो गया। 1858 से भूमि आंदोलन के रूप में विकसित वह आंदोलन 1890 में आकर राजनीतिक आंदोलन में तब तब्दील हुआ, जब बिरसा मुंडा ने कमान संभाली। बिरसा का जन्म 1875 में हुआ और उनके व्यक्तित्व का निर्माण और शिक्षा-दीक्षा ईसाई मिशनरियों के संरक्षण में हुई। लेकिन 1886-87 में ही मुंडा समाज के संचालन में प्रधन माने जाने वाले सरदारों का ईसाई मिशनरियों से मोहभंग हो चुका था। स्कूली शिक्षा के दौरान ही बिरसा के व्यक्तित्व में जिज्ञासा और समझदारी के साथ विद्रोह के लक्षण प्रकट होने लगे। आदिवासियों में भूतकेत्ता, पहनाई आदि की परम्परा है। इसमें वे धार्मिक कृत्यों के लिए जमीन छोड़ते हैं। उस समय ईसाई पादरी उस जमीन पर मिशन का कब्जा की कोशिश करते थे। बिरसा ने उसे ईसाई मिशनरियों और गोरों की साजिशों के हिस्से के रूप में पहचाना। उन्होंने खुलेआम उनकी आलोचना शुरू की। इसके कारण मिशनरियों ने बिरसा को स्कूल से निकाल दिया। युवा बिरसा सरदार आंदोलन में शामिल हो गये। उनका नारा था – ‘साहब-साहब एक टोपी है।’ यानी सभी गोरे लोग चाहे वे शासक-प्रशासक हों या मिशनरी के पादरी हों सब के सर पर एक जैसी टोपी है। सत्ता की टोपी ।बिरसा मुंडा का आंदोलन बिरसा ने ईसाई मिशन की सदस्यता छोड़ कर 1890-91 से करीब पांच साल तक धर्म, नीति, दर्शन आदि का ज्ञान प्राप्त किया। उस दौरान उन्होंने आनंद पांडेय नामक व्यक्ति से हिंदुओं के वैष्णव पंथ के आचार-व्यवहार के बारे में खास तौर से शिक्षा प्राप्त की। वैयक्तिक और सामाजिक जिदंगी पर धर्म के प्रभाव का मनन किया। यहां तक कि उन्होंने धर्मोपदेश देना और धर्माचरण का पाठ पढ़ाना भी शुरू किया। वह सरदार आंदोलन में सक्रिय थे ही। उनके धर्मपरायण व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लोग उनके अनुयायी बनने लगे। भूमि आंदोलन के साथ धार्मिक अभियान चलने लगा। उसी बीच बिरसा जहां परम्परागत धर्म की ओर लौटे, ईसाई धर्म छोड़ने वाले सरदार बिरसा के अनुयायी बनने लगे। बिरसा का पंथ मुंडा जनजातीय समाज के पुनर्जागरण का जरिया बना। उसके धार्मिक विधान मुंडा समाज की आंतरिक बुराइयों से निजात पाने और आत्महीनता से मुक्ति दिलाने के कारगर उपाय साबित हुए। बिरसा का वह धार्मिक अभियान प्रकारांतर से आदिवासियों को अंग्रेज हुकूमत और ईसाई मिशनरियों दोनों के विरोध में संगठित होकर आवाज बुलंद करने को प्रेरित करने लगा। उस दौर में बिरसा की लोकप्रियता यूं परवान चढ़ी कि उनके अनुयायी ‘बिरसाइत’ कहलाने लगे। बिरसा ईश्वर के दूत माने जाने लगे। उनका आंदोलन धीरे-धीरे जनांदोलन का रूप धारण करने लगा। उस आंदोलन और बिरसा के लोकप्रिय व्यक्तित्व के कारण सरदार आंदोलन में नयी जान आ गयी।

अगस्त 1895 में वन सम्बंधी बकाये की माफी का आंदोलन चला। उसका नेतृत्व बिरसा के हाथ में आया और धार्मिक आधारों पर एकजुट बिरसाइतों का संगठन जुझारू सेना की तरह मैदान में उतर गया। तब से पूरे सरदार आंदोलन के नेतृत्व की बागडोर बिरसा के हाथ में आ गयी। बकाये की माफी के लिए बिरसा ने चाईबासा तक की यात्रा की। गांव-गांव से रैयतों को एकजुट कर चाईबासा ले जाया गया। अंग्रेज हुकूमत ने बिरसा की मांग को ठुकरा दिया। बिरसा ने भी ऐलान कर दिया – ‘सरकार खत्म हो गयी। अब जंगल-जमीन पर आदिवासियों का राज होगा।’

उपलब्ध इतिहास के अनुसार बिरसा के नेतृत्व में बिरसाइतों के संगठन के तेवर देख शासन पहले से ही सावधन हो चुका था। बिरसा ने वन सम्बंधी बकाये की माफी के लिए ब्रिटिश हुकूमत को आवेदन देने और प्रशासनिक पदाधिकारियों को समझाने-बुझाने के लोकतांत्रिक तरीकों को अपनाया। लेकिन शासन ने गरीब आदिवासियों की फरियाद सुनने की बजाय बिरसा और उनके अनुयायियों की गिरफ्तारी का जाल फैलाया। बिरसा ने अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ बगावत का ऐलान कर दिया। 9 अगस्त, 1895 को चलकद में पहली बार बिरसा को गिरफ्तार करने की कोशिश की गयी। उन्हें गिरफ्तार कर भी लिया गया लेकिन उनके अनुयायियों ने उन्हें छुड़ा लिया। उसके बाद से आंदोलन की दिशा ही बदल गयी। 16 अगस्त, 1895 को गिरफ्तार करने की योजना के साथ आये पुलिस बल को बिरसा के नेतृत्व में उनके संगठन ने सुनियोजित तरीके से घेर लिया। किसी को मारा नहीं गया लेकिन बिरसा के करीब 900 अनुयायियों ने पुलिस बल को खदेड़ दिया।

24 अगस्त, 1895 को पुलिस अधीक्षक मेयर्स के नेतृत्व में पुलिस दल चलकद रवाना हुआ। रात में ही चुपके से पुलिस ने बिरसा के घर को घेरा और अंधेरे में उन्हें गिरफ्तार किया। उन्हें रांची जेल ले जाया गया। सुबह होते ही बिरसा की गिरफ्तारी की खबर चारों तरफ फैल गयी। मुंडा और कोल समाज ने बिरसाइतों के नेतृत्व में सरकार के साथ असहयोग करने का ऐलान कर दिया। उधर हुकूमत ने बिरसा पर मुकदमा चलाने का स्थान रांची से बदल कर खूंटी किया ताकि उनको आदिवासी जनता के सामने ‘बौना’ साबित किया जा सके। उसका उल्टा असर हुआ। बिरसा के दर्शनार्थ लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। भीड़ की उत्तेजना के कारण मुकदमे की कार्यवाही रोक कर बिरसा को तुरंत जेल भेज दिया गया।

बिरसा पर यह आरोप लगाया गया कि वह चलकद में लोगों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने के लिए उकसा रहे थे। वह राजद्रोही हैं। वह अपने कर्त्तव्य पालन में लगे सरकारी पुलिस कर्मियों पर आक्रमण का नेतृत्व कर रहे थे। डिप्टी कमिश्नर ने बिरसा के आंदोलन और सरदार आंदोलन के बीच सम्बंध होने की पुष्टि करते हुए तमाम आंदोलनकारियों के साथ सख्ती से निपटने और मुंडा समाज को ‘नकली पैगम्बरों और दुष्ट आंदोलनकारियों’ के अभियानों में शिरकत करने से रोकने की कार्रवाई पर अमल करने की आवश्यकता पर बल दिया। उसने अपने फैसले में बिरसा पर आरोप लगाया कि वह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लोगों में नफरत की आग भड़का रहे हैं। आदिवासी समाज में भयमुक्ति का ऐसा संदेश फैला रहे हैं, जिससे सरकारी हथियार और गोला-बारूद व्यर्थ सिद्ध हो जायें। बिरसा की गिरफ्तारी के बाद उनके कई अनुयायियों और सरदारों को भी हिरासत में ले लिया गया था। उन सब पर शासन के खिलाफ विद्रोह करने और लोगों को भड़काने के आरोप में भारतीय दंड संहिता की धरा 505 के तहत मुकदमा चला। बिरसा को दो साल के सश्रम कारावास और 50 रु. जुर्माना की सजा दी गयी। बिरसा के 15 साथियों को भी यही सजा दी गयी। 19 नवम्बर, 1895 को सजा सुनाये जाने के बाद बिरसा को रांची जेल से हजारीबाग जेल भेज दिया गया।

1897 में झारखंड में भीषण अकाल पड़ा। उस वक्त चेचक की महामारी भी फैली। आदिवासी समाज बिरसा के नेतृत्व के अभाव में भी हुकूमत के दमन-शोषण, अकाल और महामारी के खिलाफ एक साथ जूझता रहा। ठीक उसी वक्त सरकार ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती मनाने के लिए देश में उत्सव एवं समारोहों का आयोजन कर रही थी। उस अवसर पर देश में कई आंदोलनकारियों को रिहा करने का फैसला किया गया। तब तक बिरसा की सजा की अवधि भी लगभग समाप्त हो गयी थी। सजा खत्म होने के कुछ दिन पूर्व बिरसा को रांची जेल ले आया गया। अनुमानत: 30 नवम्बर, 1897 को बिरसा जेल से छूटे। वह रिहा होने के बाद पुन: चलकद लौटे और सीधे अकाल तथा महामारी से पीड़ित लोगों की सेवा में लग गये। इस सिलसिले में वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमने लगे। दुखियों की सेवा में उन्होंने दिन-रात एक कर दिया। वह काम ही झारखंड क्षेत्र में बिरसा के अनुयायियों के पुन: संगठित होने का आधार बना। बिरसा ने पीड़ितों की सेवा करते हुए धार्मिक सु्धार का अपना अभियान जारी रखा। वह लोगों को उपदेश देते थे और उनके अनुयायी उनके धार्मिक विचारों का प्रचार करते थे। उसी क्रम में गुप्त राजनीतिक सभाएं होती थीं। धार्मिक अभियान और प्रचार का तंत्र राजनीतिक आंदोलन को संगठित करने के साथ ही उस गतिविधि को गुप्त रखने का सबसे कारगर माध्यम साबित हुआ। उस दौरान बिरसा ने अपने अनुयायियों के साथ पैतृक स्थानों का दौरा किया। उन्होंने आदिवासियों के परम्परागत धार्मिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने का आह्वान किया। पारम्परिक मूल्यों के आधर पर ही उन्होंने बलि देने की सामाजिक प्रथा, भूत-प्रेतों की पूजा, हंड़िया के अंधाधुंध सेवन आदि के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया। उस अभियान का असर यह हुआ कि राजनीतिक आंदोलन की रणनीति पर विचार के लिए आयोजित गुप्त बैठकों में आंदोलन के अहिंसात्मक और शांतिपूर्ण तरीकों पर बहस चलने लगी। फरवरी, 1898 में डोम्बारी पहाड़ी पर मुंडारी क्षेत्र से आये मुंडाओं की एक सभा में बिरसा ने आंदोलन की नयी नीति की घोषणा की। उसमें उन्होंने अपने खोये राज्य के लिए धर्म और शांति का रास्ता अपनाने का आह्नान किया। सरदारों ने उसका विरोध किया लेकिन मुंडा समाज को संगठित करने के लिए बिरसा का नेतृत्व सबकी पहली जरूरत थी। इसलिए उनकी घोषणा को विद्रोह की पहली रणनीति के रूप में स्वीकार किया गया। दो साल तक बिरसा के नेतृत्व में समाज को परम्परागत मूल्यों से लैस करने और संगठन को मजबूत करने के लिए शांतिपूर्ण गतिविधियां चलीं। उस बीच अपनायी गयी नीति और कार्यक्रमों में ईसाई मिशनरियों, अंग्रेज सरकार और जमींदार किसी के भी खिलाफ सीधे संघर्ष की कार्रवाइयों का निषेध किया गया। धार्मिक अभियान के तहत सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष को केंद्र में रखकर आदिवासी समाज को अंदर से मजबूत एवं संगठित करने का सिलसिला चलता रहा। हुकूमत को लगा कि सब कुछ शांत हो गया। 1899 का अंत आते-आते अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति जागृत आदिवासी समाज में अधिकार हासिल करने की बेचैनी प्रगट होने लगी। समाज संचालन की परम्परागत प्रणालियों, सांस्कृतिक मूल्यों और धार्मिक कृत्यों के प्रति बढ़ती जिज्ञासा और समझ से उन तमाम गतिविधियों का राजनीतिक निहितार्थ प्रगट होने लगा। धार्मिक गतिविधियों के जरिये अधिकार हासिल करने और अपने खोये राज्य की प्राप्ति का लक्ष्य जमींदारों को लगान न देने, जमीन को मालगुजारी से मुक्त करने और जंगल के अधिकार वापस लेने के संकल्प के रूप में व्यक्त होने लगा। बिरसा के नेतृत्व में कोलेबिरा, बानो, लोहरदगा , तोरपा, कर्रा, बसिया, खूंटी, मुरहू, बुंडू, तमाड़, पोड़ाहाट, सोनाहातू आदि स्थानों पर बैठकें हुईं। अंतत: 24 दिसम्बर, 1899 को रांची जिला के तोरपा, खूंटी, तमाड़, बसिया आदि से लेकर सिंहभूम जिला के चक्रधरपुर थाने तक में विद्रोह की आग भड़क उठी। 1897 के अकाल और महामारी से लोग अभी उबर भी नहीं पाये थे कि 1899 में रबी की फसल मारी गयी। सरकार ने किसानों की मांग ठुकरा दी और वह आम आदिवासियों की समस्याओं के प्रति उदासीन रही। उल्टे विद्रोह की आग भड़की तो सिंहभूम से रांची तक करीब 500 वर्गमील के क्षेत्र में पुलिस की टुकड़ियां तैनात कर दी गयीं। सेना की एक कम्पनी बुला ली गयी। बिरसा को गिरफ्तार करने का जबर्दस्त अभियान शुरू कर दिया गया। सरदारों पर हमला करने और आंदोलन का साथ देने वाले मुंडा-मानकियों को गिरफ्तार करने व आत्मसमर्पण न करने वाले विद्रोहियों की घर-सम्पत्ति कुर्क करने की पूरी योजना पर अमल शुरू हुआ। जनवरी 1900 में बिरसा की तलाश में पुलिस और सेना ने पोड़ाहाट के जंगलों तक को छान मारा। 500 वर्गमील क्षेत्र के गांवों में पुलिस तैनात कर उसके खर्च का बोझ स्थानीय जनता पर डालने की घोषणा कर दी गयी ताकि वह बिरसा के आंदोलन का समर्थन न करे। सरकार ने बिरसा की सूचना देनेवाले और गिरफ्तारी में मदद देने वाले मुंडा या मानकी को 500 रफ. का पुरस्कार देने के साथ यह ऐलान भी कर दिया था कि ऐसे व्यक्ति को पूरे जीवन के लिए उसके गांव का लगानमुक्त पट्टा दिया जायेगा। इन सब प्रलोभनों के बावजूद हुकूमत बिरसा को गिरफ्तार नहीं कर पायी।

उसी दौर में बिरसा ने आंदोलन की पुरानी रणनीति बदलने की घोषणा की और विद्रोह की आग जंगल की आग की तरह फैल गयी। बिरसा ने उरांव और कोल से सम्पर्क किया। संघर्ष में सक्रिय सहयोग की अपील की। करीब साठ स्थानों पर संगठन के केंद्र बने। डोम्बारी पहाड़ी पर मुंडाओं की बैठक हुई। उसमें अंग्रेज शासक, ईसाई मिशनरी और जमींदारों के खिलाफ एक साथ संघर्ष करने की रणनीति बनी। बिरसा ने संघर्ष के शांतिपूर्ण तरीकों के समर्थन में अपने विचार रखे। मुंडाओं ने कहा कि स्थितियां बदल चुकी हैं। अब हुकूमत का शोषण-दमन सहनशक्ति की सीमा पार कर चुका है। जनता साथ है। हथियारबंद संघर्ष को मान्य करना होगा। बिरसा ने हथियारबंद संघर्ष की अनुमति दे दी। इसी के साथ शुरू हुआ – उलगुलान । बिरसा का महान विद्रोह। झारखंड की जनता का सांस्कृतिक पुनर्जागरण और बाहरी लोगों के खिलाफ हथियारबंद संघर्ष की इस दोहरी प्रक्रिया ने बीसवीं सदी के शुरू में ही नया इतिहास रच दिया। ऐसा इतिहास जो पहले के इतिहास से अलग था और बाद के तमाम क्षेत्रीय और राष्ट्रीय संघर्षों की गति-दिशा का पैमाना बना। वह ऐसा संघर्ष था जिसमें जनता अपनी मुक्ति के लिए जान देने को सहर्ष तैयार होती है। और, मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले और उस राह पर खुद सबसे आगे चलने वाले इंसान को जनता भगवान मानती है।

ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार भारी दबाव के बाद बिरसा ने हथियार उठाने की अनुमति दी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार तो बिरसा आंदोलन के उस दौर की तुलना आजादी के आंदोलन में बहुत बाद 1942 में प्रगट अगस्त क्रांति के काल से की जा सकती है। हां, विस्तार के लिहाज से बिरसा आंदोलन का वह दौर सिर्फ झारखंड क्षेत्र तक में सीमित था। 1942 में महात्मा गांधी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। ऐसा दौर इतिहास में कभी-कभी ही आता है, जब जनता अपने नेता के आह्वान पर अपने हाथ में संघर्ष की कमान ले लेती है। उस वक्त हिंसा-अहिंसा की सैद्धांतिक बहस बेमानी हो जाती है। जनता का हुंकार और बलिदान का जुनून इस बुलंदी पर होता है कि यह सवाल भी बेमानी हो जाता है कि हथियारों के बिना निरंकुश राज्यसत्ता के सशस्त्र और हिंसक बल से टकराना कितना व्यावहारिक है? जनवरी, 1900 में बिरसा आंदोलन के दौर में भी ऐसी ही स्थितियां पैदा हुईं और बिरसा ने हथियार उठाने की अनुमति दे दी।

हुकूमत ने बिरसा आंदोलन के तमाम केंद्रों पर छापेमारी की। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं। गांव-गांव में पुलिसिया दमन हुआ। आंदोलन को कुचलने के लिए लोगों की जमकर पिटाई होने लगी। सरदारों और मुंडा-मानकियों की तलाशी और कुर्की-जब्ती की कार्रवाई चलने लगी। आम आदिवासियों की घर-सम्पत्ति लूटी जाने लगी। आदिवासी औरतों की इज्जत लूटी जाने लगी। दूसरी तरपफ बिरसा के नेतृत्व में आंदोलन के करीब 60 जत्थों ने एक साथ हुकूमत के ठिकानों और गिरजाघरों पर हमला किया। अफसरों, पुलिस, अंग्रेज सरकार के संरक्षण में पलनेवाले जमींदारों और महाजनों को निशाना बनाया। खूंटी, तोरपा, कर्रा, बसिया, तमाड़, सर्बादा, बुर्जू, मुरहू आदि कई इलाकों के मिशनरी केंद्रों और गिरजाघरों पर हमला किया गया। चक्रधरपुर, पोड़ाहाट आदि इलाकों में भी सरकारी कार्यालयों और आवासों में आग लगा दी गयी। जनाक्रोश का विराट रूप देख भयभीत सरकारी कर्मचारी, मिशन के लोग, पादरी, जमींदार और महाजनों में भगदड़ मच गयी। वे कार्य क्षेत्र और घर-बार छोड़कर भाग खड़े हुए। जनवरी के प्रथम सप्ताह में ही खूंटी थाना सहित रांची जिला के कई थानों पर आंदोलनकारियों ने धवा बोल दिया। शुरू में ही आंदोलनकारियों के गोरिल्ला युद्ध ने रांची और सिंहभूम जिलों में हुकूमत की चूलें हिला दीं। उस दौरान आंदोलनकारियों के हाथों कुल आठ लोग मारे गये। उनमें चार कांस्टेबुल, एक चौकीदार और तीन अन्य लोग शामिल थे। पुलिस रिकार्ड के अनुसार उस दौरान आंदोलनकारियों के खिलाफ हत्या के प्रयास के 32 और आगजनी के 81 मुकदमे दर्ज किये गये। अंतत: हुकूमत ने बिरसा आंदोलन को कुचलने के लिए पुराना रांची जिला और पुराना सिंहभूम जिला सेना के हवाले कर दिया। तब बिरसाइतों और सेना के बीच सीध संघर्ष शुरू हुआ। एक तरफ तीर-धनुष, कुल्हाड़ी और भाले-बर्छों से लैस बिरसाइत और दूसरी तरफ सेना की बंदूकें । 8 जनवरी, 1900 को डोम्बारी पहाड़ियों पर जमी बिरसाइत के जत्थे को सेना ने घेर लिया। सेना ने विद्रोहियों को हथियार डालने को कहा। जवाब में विद्राहियों का नारा गूंजा- ‘गोरो, अपने देश वापस जाओ।’ 9 जनवरी को सेना ने उन पर हमला बोल दिया। विद्रोहियों और फौज के बीच भयंकर युद्ध हुआ। करीब 200 मुंडा मारे गये। मारे गये लोगों में स्त्रियां और बच्चे भी थे। सैलरकब पहाड़ी पर हुए संघर्ष में तो ब्रिटिश हुकूमत के सिपाहियों ने अंधाधुंध गोलियां चला कर कई-कई आदिवासियों को भून दिया। उनमें एक ऐसी महिला भी थी, जिसकी गोद में दूधपीता बच्चा था। दोनों मारे गये। सेना की ऐसी घेराबंदी और संघर्ष के बावजूद बिरसा पकड़ में नहीं आये।

बिरसा के अंतिम दिनों की उपलब्ध जानकारी के अनुसार रांची जिला में सेना के साथ हुए संघर्ष के बाद उन्होंने अपने संघर्ष संचालन के केंद्र बदल लिये। वह सिंहभूम जिला के जमकोपाई के जंगलों की ओर कूच कर गये। पूरे जनवरी माह में अंग्रेज हुकूमत रांची जिला के गांव-गांव में कहर बरपाती रही और बिरसा की तलाश में खाक छानती रही। बिरसा ने सिंहभूम के घने जंगलों में संघर्ष संचालन के केंद्र बनाये। रोगोटो नामक स्थान उनकी गतिविधियों का नया केंद्र बना। पोड़ाहाट के विस्तृत जंगल में संगठन और प्रशिक्षण के केंद्र बने। बिरसा रातों में गांव-गांव जाकर आदिवासी जनता से सम्पर्क करते थे। दिन भर घने जंगलों में गुप्त स्थानों पर प्रशिक्षण का काम होता था और संघर्ष की रणनीति तैयार की जाती थी। 28-30 जनवरी, 1900 के आसपास सूचना मिली कि दो प्रमुख मुंडा सरदारों के साथ करीब 32 विद्रोहियों ने हुकूमत के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। बिरसा चौकस और सतर्क हो गये। उनके संगठन के प्रमुख लोगों को यह आभास होने लगा कि कुछ मुंडा हुकूमत के भय अथवा पुरस्कार के लोभ में आकर विश्वासघात कर सकते हैं। उसके तत्काल बाद ही सेना सिंहभूम जिला के गांवें और जंगलों को रौंदने लगी तो यह साफ हो गया कि कुछ लोगों ने गद्दारी की और बिरसा के पता-ठिकाना की सूचना दी है। बिरसा ने पोड़ाहाट के जंगलों में जल्दी-जल्दी स्थान बदलने की रणनीति अख्तियार की। इस वजह से बिरसाइतों से सम्पर्क में विलम्ब होने लगा। संगठन के प्रमुखों से सम्पर्क और संवाद में मुश्किलें पैदा हो गयीं। कहा जाता है कि 3 फरवरी, 1900 को सेंतरा के पश्चिम स्थित जंगल के काफी भीतर बने एक शिविर में बिरसा को उस समय धर-दबोचा गया, जब वह गहरी नींद में थे। उपद्रव की आशंका को देख पुलिस के भारी बंदोबस्त के साथ उन्हें तत्काल खूंटी के रास्ते रांची ले जाया गया। उन्हें रांची कारागार में बंद किया गया। उसके बाद तो हुकूमत ने विद्रोह को कुचलने के लिए नंगा नाच किया। हिंसाबल, धानबल, झूठ-फरेब, बेईमानी हर तरह से भोली-भाली आदिवासी जनता को गुमराह करने और विद्रोहियों को शांत करने का प्रयास किया गया।

बिरसा और अन्य 482 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया । सब पर मुकदमे की कार्रवाई हुई। सारी कार्रवाई गोपनीय ढंग से की गयी। उनके खिलाफ करीब 15 तरह के आरोप दर्ज किये गये थे, जिनमें ऐटकाडीह में कांस्टेबुलों की हत्या, सरवदा में दो मिशनरियों पर हमला, अगजनी, हिंसा-हत्या करने, सरकार उलटने और बिरसा राज की स्थापना के लिए भीड़ इकट्ठा करना, चक्रधरपुर में एक चौकीदार की हत्या, कुंक्तूगुट्टू में गिरजाघर जलाया जाना आदि शामिल थे। सिपर्फ 98 पर ही दोष सिद्ध किया जा सका। कुल मिला कर 3 विद्रोहियों को मुत्युदंड, 44 को आजीवन देश-निर्वासन की सजा मिली। 10 आंदोलनकारियों को 10-10 साल, 8 को 7-7 साल और 23 लोगों को 5-5 साल के सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी। बिरसा के विश्वासी गया मुंडा और उसके पुत्र सानरे मुंडा को फांसी की सजा दी गयी। गया मुंडा की पत्नी माकी को भी हिंसा-हत्या में सक्रिय होने के आरोप में दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा दी गयी। जेलबंद 296 विद्रोहियों के खिलापफ कोई आरोप सिद्ध नहीं किया जा सका।

लेकिन मुकदमे की सुनवाई के शुरुआती दौर में ही 20 मई, 1900 को जेल में बिरसा ने भोजन करने में अनिच्छा जाहिर की। भोजन नहीं किया। उसी दिन उन्हें अदालत ले जाया गया तो तबियत खराब होने के कारण जेल वापस भेज दिया गया। जेल अस्पताल से कुछ दवा दी गयी। दस दिन तक जेल के अंदर से उनकी तबियत खराब होने की सूचना दी जाती रही। 1 जून, 1900 को जेल अस्पताल के चिकित्सक की ओर से डिप्टी कमिश्नर को सूचना दी गयी कि बिरसा को हैजा हो गया है और उनके जीवित रहने की संभावना नहीं है। बाद के एक सप्ताह तक इलाज से उनकी हालत में सुधार की सूचना दी जाती रही। 9 जून, 1900 की सुबह अचानक सूचना दी गयी कि बिरसा नहीं रहे। अचानक तबियत बेहद बिगड़ी और उनकी मृत्यु हो गयी ।

इस तरह एक क्रांतिकारी जीवन का अंत हो गया। सिर्फ 25 साल की जिंदगी में ही बिरसा ने वह काम किया जो किसी व्यक्ति को युगपुरुष बनाता है। आदिवासी समाज ने उनके जीते जी उन्हें भगवान का अवतार माना। मृत्यु के बाद आज तक आदिवासी जनमानस में बिरसा की छवि ऐसे क्रांतिदूत की है, जो अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से ‘इंसान से भगवान’ बन गया।

बिरसा होनहार थे। मिशन के लोग उनसे खुश थे। उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए चाईबासा के लूथरेन मिशन में भेजा गया। वह वहां मिडिल स्कूल में छात्रावास में रह कर पढ़ते थे।

1890 में उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। बिरसा ने चाईबासा छोड़ दिया। 15 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़ कर वह गांव आ गये। उसके तुरंत बाद उन्होंने जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता भी छोड़ दी। कहा जाता है कि बिरसा ने जर्मन ईसाई मिशन छोड़कर रोमन कैथलिक धर्म स्वीकार किया लेकिन कुछ ही दिन में उन्होंने ईसाई धर्म त्याग दिया।

रोजी-रोटी के सिलसिले में वह कंदेर और गौरबेरा गये। उस दौरान बंदगांव में वह आनंद पांडेय नामक एक वैष्णव सन्यासी के सम्पर्क में आये। संन्यासी के प्रभाव में आकर उन्होंने मांस खाना छोड़ दिया और यज्ञोपवीत धारण किया। वह वहां तीन साल रहे और आनंद पांडेय से वैष्णव धर्म, नीति, दर्शन आदि की शिक्षा हासिल की। युवा बिरसा योगी बन गये।

लौटकर बिरसा ने चलकद को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया। योगी के रूप में उन्होंने सेवा और बीमारों के इलाज के जरिये समाज में चेतना जागृति का अभियान शुरू किया। वह मुंडा सरदारों के आंदोलन का दौर था। उस दौरान इलाके में अकाल और महामारी भी फैली हुई थी। उन्होंने अकाल पीड़ितों और बीमारों की सेवा के साथ-साथ मुंडा समाज की अज्ञानता और अंधविश्वास के खिलाफ जेहाद छेड़ा। 1895 में ही बिरसा का सर्वथा नया रूप प्रगट होने लगा। वह क्रांतिकारी योगी के रूप में चर्चित होने लगे। लोग उनके उपदेश और ज्ञान की बातें सुनकर उनके अनुयायी बनने लगे। उनके अनुयायी ‘बिरसाइत’ कहलाने लगे।

इतिहास और लोककथाओं के अनुसार बिरसा नीम के पेड़ के नीचे अपना आसन लगाते थे। वह जनेउ, खड़ाउ और हल्दी के रंग में रंगी धेती पहनते थे। वह प्रवचन करते थे। अपने प्रवचनों में सादा जीवन और उच्च विचार अपनाने का उपदेश देते और मुंडा समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार करते थे। उन्होंने सादा जीवन के लिए पैमाने निश्चित किये कि ईश्वर एक है और वह है सिंगबोंगा। भूत-प्रेत की पूजा और बलि देना निरर्थक है। सार्थक जीवन के लिए मांस-मछली अथवा सामिष भोजन का त्याग करना जरूरी है। हंड़िया पीना बंद करना होगा। उनके उपदेशों को सुनने के लिए दूर-दूर से लोग पहुंचने लगे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ कई किंवदंतियां जुड़ने लगीं। उनके सेवा कार्य और इलाज का असर यह था कि लोगों में उनके छूने भर से चंगा होने का विश्वास होने लगा। उनके कार्य ‘चमत्कार’ के रूप में प्रचारित होने लगे। उन्हें ईश्वर का दूत माना जाने लगा। आम गरीब आदिवासियों के लिए तो वह साक्षात ईश्वर हो गये। बिरसा के अनुयायियों का एक नया पंथ बनने लगा।

उसी दौरान बिरसा ने वन सम्बंधी बकाये की माफी के आंदोलन का नेतृत्व किया। सरदारों के भूमि आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। बिरसा की लोकप्रियता से सरदार आंदोलन को नयी गति मिली। उन्होंने अपने आंदोलन का नेतृत्व बिरसा को सौंप दिया। धार्मिक संगठन की जमीन पर राजनीतिक आंदोलन के बीज पड़े। 1897 में वन संबंधी बकाये के आंदोलन के दौरान ब्रिटिश हुकूमत ने आदिवासी समाज की मांगों को ठुकरा दिया तो बिरसा ने ऐलान कर दिया कि अब जंगल पर अंग्रेजों का अधिकार नहीं रहेगा। बिरसाइत अंग्रेज सरकार के अफसरों का हुक्म नहीं मानेंगे। रैयत लगान नहीं देंगे। हुकूमत ने बिरसा को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। चलकद में 9 अगस्त, 1895 की सुबह उनको गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन उनके अनुयायियों ने उनको छुड़ा लिया। पुलिस बल को खदेड़ दिया। 24 अगस्त की रात को पुलिस दल ने चुपके से बिरसा के घर को घेर लिया। रात में उनको सोये में गिरफ्तार कर लिया।

बिरसा पर शासन के खिलाफ विद्रोह करने और लोगों को भड़काने का आरोप लगाया गया। कोर्ट में मुकदमा चला। बिरसा और उनके 15 सहयोगियों को दो-दो साल की सजा सुनायी गयी। 50-50 रु.काजुर्मानाभीकियागया।उन्हेंहजारीबागजेलमेंरखागया।1897 में सजा पूरी होने के चंद दिन पहले उन्हें रिहा किया गया। ब्रिटिश हुकूमत महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती मना रही थी। उस अवसर पर कैदियों को रिहा करने का फैसला किया गया था। उसी के तहत बिरसा रिहा हुए।

जेल से छूटने के दो साल बाद ही 1898 में डोम्बारी पहाड़ी से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष का ऐलान हुआ। बिरसा ने धर्मानुसार राज्य करने का और उसके लिए विदेशी हुक्मरानों के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन का विचार रखा। मुंडा सरदारों को बिरसा का नेतृत्व स्वीकार था लेकिन वे संघर्ष में हिंसा का समर्थन करते थे। हिंसा और अहिंसा के द्वंद्व के बीच भी संगठन का काम जारी रहा। मुंडा सहित पूरे आदिवासी समाज को संघर्ष चेतना के एक सूत्र में बांधने का अभियान चलता रहा। 1899 के अंत में डोम्बारी पहाड़ी की बैठक में ही अंग्रेज हुक्मरानों, ईसाई मिशनरियों और जमींदारों के खिलाफ संघर्ष की नयी रणनीति बनी। बिरसा ने हथियार उठाने की अनुमति दे दी। इसके साथ शुरू हुआ- ‘उलगुलान’ यानी महासंग्राम। आदिवासी समाज ने संघर्ष, त्याग और बलिदान की अपूर्व कहानी लिखी।

3 फरवरी, 1900 को सेंतरा के पश्चिम जंगल के काफी भीतर बिरसा को सोये में पकड़ लिया गया। सरकार ने इसके लिए गद्दारों का सहारा लिया। गिरफ्तारी की सूचना फैलने के पहले ही उन्हें खूंटी के रास्ते रांची ले आया गया। उनके खिलाफ गोपनीय ढंग से मुकदमे की कार्रवाई की गयी। उन पर सरकार से बगावत करने और आतंक व हिंसा फैलाने के आरोप लगाये गये। मुकदमे में उनकी ओर से किसी प्रतिनिधि को हाजिर नहीं होने दिया गया। जेल में उनको अनेक प्रकार की यातनाएं दी गयीं। 20 मई को उनकी तबियत खराब होने की सूचना बाहर आयी। एक जून को उनको हैजा होने की सूचना फैली। 9 जून की सुबह जेल में ही उनकी मृत्यु हुई।

20वीं सदी के प्रथम वर्ष में बिरसा की मृत्यु के बाद आंदोलन लगभग समाप्त हो गया लेकिन ब्रिटिश हुकूमत को यह एहसास हो गया कि झारखंड क्षेत्र में सांस्कृतिक स्तर पर आदिवासी चेतना का जो पुनर्जागरण हुआ है, वह आर्थिक अथवा सामाजिक कारक की छोटी सी चिनगारी को राजनीतिक विद्रोह या आंदोलन की भीषण आग में बदल सकता है। इसलिए उसने भूमि सम्बंधी समस्याओं के समाधन के प्रयास शुरू कर दिये। बिरसा आंदोलन के गढ़ माने जाने वाले तमाम क्षेत्रों में भूमि बंदोबस्ती का कार्य शुरू हुआ। काश्तकारी संशोधान अधिनियम के जरिये पहली बार मुंडा खुंटकट्टी व्यवस्था को कानूनी मान्यता दी गयी। भूमि अधिकार के अभिलेख तैयार कर बंदोबस्त की वैधनिक प्रक्रिया चलाने और भू-स्वामित्व के अंतरण की व्यवस्था को कानूनी रूप देने के लिए अंतत: छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम बनाया गया। यह ‘छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908’ के नाम से जाना जाता है। यह बिरसा आंदोलन का तात्कालिक और महत्वपूर्ण परिणाम था। हालांकि उस अधिनियम के बनने में आठ साल लगे। अधिनियम के बनने से भूमि सम्बंधी समस्याओं के समाधन की वैधानिक प्रक्रिया शुरू हुई और मुंडा क्षेत्र में व्याप्त असंतोष कुछ नियंत्रित हुआ। हालांकि यह प्रयास जनजातीय क्षेत्र में जारी स्वशासन की प्रणाली को खत्म कर ब्रिटिश हुकूमत की प्रणाली को स्थापित करने की रणनीति का ही हिस्सा था। हुकूमत ने उस कानून को अमलीजामा पहनाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर भी कई तब्दीलियां कीं। 1905 में खूंटी अनुमंडल बना और 1908 में गुमला अनुमंडल बना ताकि न्याय के लिए आदिवासियों को रांची तक की लम्बी यात्रा न करनी पड़े। इस बहाने क्षेत्र में स्वशासन की जनजातीय प्रणाली को ध्वस्त कर ब्रिटिश हुकूमत ने प्रशासन का अपना तंत्र कायम किया।

छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908 में उन तमाम पुराने कानूनों का समावेश किया गया, जो पिछले 25-30 सालों में भूमि असंतोष पर काबू पाने के लिए समय-समय पर लागू किये गये थे। उनमें 1879 का छोटानागपुर जमींदार और रैयत कार्यवाही अधिनियम, और 1891 का लगान रूपांतरण अधिनियम शामिल हैं। नये और समग्र अधिनियम में खुंटकट्टीदार और मुंडा खुंटकट्टीदार काश्तों को सर्वमान्य कानूनी रूप देने का प्रयास किया गया। कानून में यह आम व्यवस्था की गयी कि खुंटकट्टी गांव-परिवार में परम्परागत भूमि अधिकार न छिने। किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा जमीन हड़पे जाने की आशंका को खत्म करने के लिए डिप्टी कमिश्नर को विशेष अधिकार से लैस किया गया। कानून के तहत ऐसे बाहरी व्यक्ति को पहले उस क्षेत्र से बाहर निकालने का प्रावधान किया गया। मुंडा-मुंडा के बीच भूमि अंतरण की छूट और मुंडा व बाहरी व्यक्ति के बीच भूमि अंतरण पर प्रतिबंध के लिए कई नियम बने। उन नियमों के जरिये डिप्टी कमिश्नर के हाथ न्याय की कुंजी थमा दी गयी। डिप्टी कमिश्नर और उससे जुड़े प्रशासनिक अधिकारी झारखंड क्षेत्र को अंग्रेजी शासन के दायरे में लाने के सबसे कारगर एजेंट साबित हुए। तमाम जानकारी रांची ग्रंथालय के सौजन्य से साभार।

इतिहास गवाह है कि बिरसा की मृत्यु के बाद झारखंड क्षेत्र में जितने भी विद्रोह और आंदोलन हुए उन्हीं की प्रेरणा से हुए हैं। आज़ादी के 75वें वर्ष बाद आज आदिवासी समाज अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं है।उन पर कारपोरेट और सरकारों की जुर्म ज़्यादती जारी है।आज ज़रूरी वे बिरसा मुंडा के क्रांतिकारी और जुझारू जीवन से प्रेरणा लें।मूर्ति स्थापना और उन्हें भगवान मानकर आपका संघर्ष प्राप्त नहीं होने वाला।

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