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प्रसंगवश: महादजी सिंधिया ने शाह आलम को दो बार दिल्ली का तख़्तो-ताज वापस दिलवाया

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▪️ ‘दूसरा शिवाजी’ कहा जाने लगा था महादजी को।

० डॉ. राकेश पाठक

मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब को लेकर बवाल छिड़ा हुआ है। अब तक आप जान चुके हैं कि औरंगज़ेब के दरबार में सवाई जयसिंह जैसे बहुतेरे हिन्दू राजे रजवाड़े थे।

इसी शहंशाह औरंगज़ेब के सिलसिले में बाद में एक मुग़ल बादशाह हुआ शाह आलम द्वितीय। 

क्या आप जानते हैं कि उस मुग़ल बादशाह का सरपरस्त कौन था…?

कौन था जिसने शाह आलम को दिल्ली के तख़्त पर दो बार बैठाने का काम  किया था..? 

अगर नहीं तो जान लीजिए शाह आलम को ‘द ग्रेट मराठा’ महादजी सिंधिया ने अपनी ताक़त के दम पर सिंहासन वापस दिलवाया था।

महादजी सिंधिया के पराक्रम के बारे में हमारी किताब ‘सिंधिया और 1857’ में विस्तार से विवरण है। 

शाह आलम वाला किस्सा संक्षेप में यहां प्रस्तुत है।

पहले थोड़ी सी पृष्ठभूमि जान लीजिए।

🔹अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठों के बीच संघर्ष चलता रहा था। उसी दौरान बंगाल कौंसिल ने वारेन हैस्टिंग्स की कमान में कुल ब्रिटिश इंडिया की आम इंतिज़ामी हुकूमत अपने अधिकार में ले ली।

बरसों से लड़ रहे अंग्रेजों और मराठों के बीच 17 मई 1782 को सालबाई की संधि हुई। इस संधि में महादजी सिंधिया ने पेशवा के प्रतिनिधि के तौर पर दस्तख़त किए।

इस संधि और वारेन हैस्टिंग्स से मित्रता के चलते महादजी सिंधिया अपनी शक्ति की पराकाष्ठा तक पहुंचा।

 “अगले बारह बरस वो हिंदुस्तान की तवारीख़ के स्टेज़ (तमाशागाह) पर सबसे नामी गिरामी एक्टर नज़र आते हैं।”

आने वाले दिनों में महादजी सिंधिया का जलवा दिल्ली तक दिखाई दिया।

🔹शाह आलम पर मेहरबानी…

सन 1784 आते आते मुग़ल बादशाहत डांवाडोल हो चली थी। दिल्ली दरबार में निरंतर षडयंत्र चलते रहते थे। उस समय बादशाह शाह आलम अपने वजीर अफ़रासियाब खां से बुरी तरह त्रस्त था। शाह आलम ने महादजी से गुहार लगाई तब महादजी,  बेनेट द बॉन (सिंधिया की सेना का फ्रांसीसी सेनापति) को साथ लेकर आगरा में शाह आलम से मिला।

इस मुलाकात के तीसरे दिन अफ़रासियाब खां मार डाला गया और शाह आलम को भारी राहत मिली। यह सब सिंधिया और उसकी सेना की मदद से हुआ।

शहंशाह ने निहायत अहसानमंद होकर महादजी को ‘अमीर-उल-उमरा’ बनाना चाहा लेकिन महादजी ने चतुराई से इनकार कर दिया। 

इसके बजाय महादजी ने पेशवा के लिए ‘वकील-उल-मुतलक़’ और अपने लिए ‘नायब वकील’ के मनसब की दरख़्वास्त की। यह इज़्ज़तें फ़ौरन अता की गईं।

इसके अलावा शहंशाह ने शाही फ़ौजों की कमान और दिल्ली- आगरा सूबों का इंतेज़ाम भी महाराजा सिंधिया के सुपुर्द कर दिया।

दूसरी बार फिर गद्दी दिलवाई… 

अफ़रासियाब खां को रास्ते से हटाने के बाद भी शाह आलम की मुसीबतें कम नहीं हुईं। सिर्फ़ चार साल बाद दिल्ली दरबार में ऐसी साजिशें हुईं कि रोहिल्ला योद्धा गुलाम कादिर ने दिल्ली पर हमला बोल दिया और गद्दी हथिया ली। गुलाम कादिर ने शाह आलम की आँखें निकलवा दीं और दिल्ली पर बेइंतहा ज़ुल्म ढाए।

ख़बर मिलने पर महादजी एक बार फिर तख़्त से बेदख़ल शाह आलम की मदद को दिल्ली पहुंचा। गुलाम कादिर और उसके लोगों को सिंधिया की सेना ने मार भगाया। एक बार फिर महादजी ने शाह आलम को गद्दी पर बैठा दिया।

गुलाम कादिर बाद में मेरठ में पकड़ा गया उसे महादजी ने शाह आलम के हवाले कर दिया। शाह आलम ने पहले उसकी आँखें निकलवा दीं और बाद में सजाए मौत दे दी।

इस बार शाह आलम ने ख़ुश होकर महादजी को ‘आलीजाह बहादुर’ और ‘मदार-उल-महम’ की उपाधियां दीं। बादशाह की तरफ़ से महादजी को सत्ता के चिन्ह भी भेंट किए गए। महादजी ने अपने अलावा पेशवा माधवराव को भी ‘वकील-उल-मुतलक़’ का दर्ज़ा दिलवाया।

यह वो दौर था जब दिल्ली से लेकर उत्तर भारत और मध्य भारत तक महादजी ने एक तरह से एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया था। 

‘सन 1790 तक संपूर्ण उत्तर भारत महादजी के चरणों में नतमस्तक हो गया, राजपूताना के शासक परास्त हो चुके थे, पठानों की शक्ति भी टूट गई थी, स्वयं मुग़ल सम्राट महादजी के संरक्षण में था।’ 

वह ‘दूसरा शिवाजी’ तक कहलाने लगा था।

पुस्तक अंश: 

सिंधिया और 1857 : डॉ राकेश पाठक

सेतु प्रकाशन।

किताब अमेज़न पर उपलब्ध है।

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