अग्नि आलोक

कॉरपोरेट का सत्ता बन जाना और सत्ता का कॉरपोरेटीकरण जनविरोध ही

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प्रफुल्ल कोलख्यान

यह सच है कि दलित-पिछड़ा समाज के सदस्यों के प्रति सवर्ण रवैया बहुत ही नकारात्मक रहा है। लेकिन क्या सवर्णों में कहीं कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जिस पर जिस की नीयत पर दलित-पिछड़ा आंख खोलकर भरोसा कर सकें? अगर ऐसे व्यक्ति हैं तो उनकी कभी कोई चर्चा दलित पिछड़ों में विकसित लोग भरोसे के साथ क्यों नहीं करते हैं! हो सकता है करते भी हों लेकिन उस पर ध्यान न जा पाता हो! न बनाया जा सकने वाला असंभव पुल की स्थिति के लिए क्या सिर्फ सवर्ण ही जिम्मेवार हैं! इसके तत्काल जवाब की कोई अपेक्षा नहीं है, हां सोचे जाने का आग्रह और अपील जरूर है। मुराद यह है कि आबादी की संरचना में सक्रिय संबंधों के योजक और वियोजक तत्वों के शक्ति-स्रोत को समझने की कोशिश की जाये। यह सब सोचते हुए मन में एक विचित्र तरह की आशंका भी हो रही है। फिलहाल आशंकाओं की बात न करके मूल विषय के संदर्भ में ही सोचने का आग्रह और अपील करना उपयुक्त होगा।

ऐसा लगता है कि सभी खित्तों के विकसित और वर्चस्वशाली लोग नहीं चाहते हैं कि उन के खित्ते के बारे में अन्य खित्ते का व्यक्ति कुछ सकारात्मक भी बोले। उन्हें लगता है कि अपने समुदाय के लोगों पर उन का असर कम हो जा सकता है, और उन का रुझान अन्य खित्तों के लोगों के प्रति हो जायेगा। इस प्रकार से विकसित और वर्चस्वशाली लोग अपने-अपने समुदाय को लगभग बंद समूह में बनाये रखना या बदलना चाहते हैं। यह प्रवृत्ति एक विभिन्न प्रकार से ध्रुवीकरण की ही प्रवृत्ति है।

किसी एक आधार पर ध्रुवीकरण की दूसरे आधार के ध्रुवीकरण की प्रवृत्ति को मदद ही करती है। यह आग से ही आग बुझाने जैसी स्थिति है। समुदायों के बीच में एक प्रवृत्ति दूसरे समुदाय के बीच पारंपरिक रूप से कभी न बनाया जा सकनेवाले असंभव पुल के खंभों को मजबूती प्रदान करने की भी होती है। ध्रुवीकरण का यह बहुत बड़ा दुश्चक्र है। परंपरा पुष्ट ऐसी प्रवृत्ति की सर्व-विनाशी ‘संवेदनशीलता’ को संविधान सम्मत प्रावधानों के माध्यम से समझना और सुलझाना एक गहरी चुनौती है। संवेदनशीलता और स्पर्शकातरता में अंतर किया जाना भी जरूरी है।

चिंता की खल रेखा के तात्कालिक कारण की चर्चा पहले। किसी का भी विचार में विवेक संगत होना सब को पसंद होता है। हमारी मुश्किल यह है कि इस समय विवेक संगत को ही सब से अधिक विवादास्पद बना दिया जाता है। सत्ता की प्रियता की कद्र करते हुए बेलाग सच बोलना-लिखना इतना कठिन पहले कभी नहीं था। आम लोगों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के साथ सत्ता का व्यवहार इतना डरावना पहले कभी शायद ही रहा हो। यह सच है कि प्रिय बोलनेवाले, कहनेवाले को ही सत्ता की प्रियता हासिल होती है। सच यह बी है कि सत्ता की प्रियता हासिल करने के लिए लोग झूठ बोलने लगते हैं। विवेक का पासंग संतुलन की परवाह करना छोड़ देता है।

कॉरपोरेट का राजनीतिक सत्ता बन जाना और राजनीतिक सत्ता कॉरपोरेटीकरण जनविरोध की सब से विकट स्थिति है। राष्ट्र जीवन के मुश्किल क्षण में निश्छल बलिदानी अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं। इस न्योछावर से राजनीतिक सत्ता बनती है, वह राजनीतिक सत्ता यदि सत्ता के व्यवसाय पर उतारू हो जाये तो कहा क्या जा सकता है! क्या कहा जा सकता है! इसे जनता के प्रति अपराध समझना और कहना होगा। इतना ही नहीं बल्कि यह भी कहना होगा कि यह वतन पर शहीद होने वाले लोगों के खून के व्यवसाय है।

राष्ट्र के संपूर्ण सत्व को निजी संपत्ति बदलने के षड़यंत्र के अलावा क्या कहा जा सकता है? यह सूरज को अपने घर के रोशनी लट्टू, बल्ब में बदलने की निकृष्टतम कोशिश जैसी है। ध्यान देने लायक बात है कि देश की आर्थिकी का आकार बढ़कर कुछ भी हो जाये यह सिर्फ कुछ ही लोगों के फायदे की सूचना होती है। बाकी लोगों की संख्या प्रतिशत में कहा जाये तो 95 तक की हो सकती है कि हालात नमक-रोटी से भी नीचे पहुंच जाती है।

घर के अमीर होने, देश की आर्थिकी के बड़े होने का क्या फायदा यदि घर के लोगों के लिए सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन की उस में कोई संभावना ही नहीं हो! राष्ट्रवाद में अंतर्निहित स्वाभाविक जज्बा का शोषण कुछ ही व्यक्तियों के पक्ष में करने के अलावा कुछ भी समझना भूल ही होगी। मनुष्य के मन में परस्परता और सहकारिता का सीधा, सरल और सुनिश्चित जज्बा होता है। इस जज्बा पर आघात करना समग्र मनुष्यता पर हमला करने से कम बड़ा अपराध नहीं माना जा सकता है।

मनुष्यता के प्रति किये जाननेवाले अपराध का मुकाबला समग्र मानव समाज को मिलकर ही करना होगा। दुनिया के दो-चार देशों में फासीवाद का जब उतना भयानक असर पूरी दुनिया के साधारण लोगों पर पड़ा तब यह तो सोचना ही चाहिए कि अब क्या होगा जब देश ही नहीं दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में राजनीतिक सत्ता का मूल चरित्र फासीवाद की चपेट में पड़ गया है। फिर से कहें तो, देश की आर्थिकी का आकार चाहे जो हो लेकिन कॉरपोरेटीकरण और क्रोनी कैपिटलिज्म के प्रति सरकार का रवैया यही रहा तो इतना तय है कि देश के आम लोगों की स्थिति बद से बदतर ही होती जायेगी।

सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण के संदर्भ में मौलाना अबुल कलाम आजाद ने ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में कुछ सवाल देश के सामने रखा था। आशय यह है कि यदि हिंदुओं और सिखों की हत्या के गुनहगार पश्चिमी पंजाब के मुसलमान हों तो दिल्ली के बेगुनाह मुसलमानों पर बदले की भावना से कार्रवाई क्यों? क्या बदले की भावना से की जानेवाली ऐसी कार्रवाइयों को किसी भी तरह से उचित माना जा सकता है! जाहिर है कि भेद-भाव के राजनीतिक माहौल में भेद-भाव की मानसिकता के शिकार जिम्मेवारी संभाल रहे अधिकारी भी हो जाते हैं।

कहने की जरूरत नहीं है कि भारत में भेद-भाव को न होने देने की स्वाभाविक तौर पर जिम्मेवारी हिंदुओं की ही मानी जा सकती है क्योंकि जिम्मेवारी संभाल रहे अधिकतर अधिकारी हिंदू ही होते हैं। हिंदू जातियों और समुदायों के बीच भी भेद-भावमूलक व्यवहार होता है। अधिकतर अधिकारी सवर्ण हिंदू होते हैं। जाहिर है कि भेद-भाव का व्यवहार जातिगत आधार पर भी होता है। इतना ही नहीं इस में क्षेत्र या इलाका का आधार भी जुड़ जाता है। सामान्य रूप से स्थिति की जटिलता का अनुमान लगाना भी मुश्किल ही होता है। तो ऐसे में स्वाभाविक सवाल यह उठता है कि सुधार प्रक्रिया कहां से और कैसे शुरू हो सकती है!

निश्चित रूप से ऐसे मामलों को भेद-भाव की दूषित मानसिकता से अपने को बचाये रखनेवाले कुछ गिने-चुने भरोसेमंद अधिकारियों पर ही नहीं छोड़ा जा सकता है। यह बहुत मुश्किल होता है, खासकर तब जबकि उन के राजनीतिक आका भेद-भाव फैलनेवालों की जमात से संबंधित हों। अपने सांगठनिक प्रयासों के सौ साल में हिंदुत्व की राजनीति का मूल चरित्र हिंदू-मुसलमान में तनाव फैलाकर ‘हिंदू एकता’ के नाम पर कट्टर समर्थकों और स्थाई बहुमत के जुगाड़ से परिभाषित और सीमित हो गया है। संवैधानिक संस्थाओं और अधिकारियों के न्याय-विमुख और प्रशासकीय दुर्भावना और दुर्व्यवहार का दुर्भाग्यजनक परिदृश्य सब के सामने है।

सत्ताधारी दल तो एक तरफ विपक्ष या प्रतिपक्ष के प्रति दुश्मनी जैसा भाव रखते ही हैं, अधिकारियों का भी रुख और रवैया विपक्ष के प्रति दुश्मन जैसा हो गया दिखता है। इस का मतलब है मूल समस्या की जड़ राजनीति में है। राजनीति में सुधार निश्चित रूप से सक्रिय और जीवंत जनांदोलन से ही संभव है। दुश्चक्र यह है कि जनांदोलन तो खुद राजनीति का हिस्सा है। फिर भी एक रास्ता है। सत्ता के लिए की जानेवाली सत्ता की राजनीति और जन-हित के लिए की जानेवाली राजनीति के आंदोलन में फर्क होता है। राहत का रास्ता इस फर्क से निकल सकता है।

इस समय चुनावी राजनीति और जनांदोलन की राजनीति का सर्वाधिक अनुभव वाम-दलों के पास है। सांप्रदायिकता एवं ध्रुवीकरण के विरोध के मामले में वाम-दलों की भूमिका अधिक स्पष्ट रही है। जाहिर है कि सांगठनिक सीमाओं के बावजूद वाम-दलों की जबरदस्त भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है। स्थिति की जटिलता का अनुमान इस से भी लग सकता है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रभु अपने ‘हिसाब’ से कांग्रेस पर सब से बड़ा आरोप वाम रुझान, ‘अर्बन नक्सल’ का ही लगाते हैं।

सत्ता की राजनीति का परिप्रेक्ष्य सही करने के लिए जनांदोलन की राजनीति का रास्ता लेने के अलावा कोई उपाय नहीं है। चुनावी राजनीति सिर्फ सत्ता की राजनीति बनकर रह गई है। चुनावी राजनीति हमेशा जनता को बांटने के फिराक में लगी रहती है। आंदोलन और जनांदोलन में क्या फर्क है? मोटे तौर पर किसी आंदोलन में उन्हीं लोगों का एक हिस्सा भाग लेता है, आंदोलन के मुद्दों से जिन का सामुदायिक और सामूहिक हित सीधे जुड़ा होता है।

जनांदोलन तब बनता है जब किसी आंदोलन में आबादी का वह तबका भी शामिल हो जाता है जिनका सामुदायिक और सामूहिक हित आंदोलन के मुद्दों से सीधे नहीं जुड़ा होता है। किसान आंदोलन, श्रमिक-कर्मचारी आंदोलन, छात्र आंदोलन, महिला सुरक्षा के लिए चलनेवाले आंदोलन अलग-अलग रहकर उतना प्रभाव नहीं डाल पाते हैं जितना प्रभाव किसी एक आंदोलन में सभी के एकजुट होने से पड़ सकता है।

‘एक-सेफ’ का नारा देने वाले जनता को अपने हित में कभी एकजुट नहीं होने देते हैं, हर तरह की बाधाएं खड़ी करते रहते हैं। कहने में कोई संकोच नहीं है कि सत्ता जनता को कभी एकजुट नहीं होने देती है; जनता की एकजुटता सत्ता के लिए सब से बड़ी चुनौती होती है।

चुनाव के दरम्यान महाराष्ट्र में मतदाता को रिझाने-लुभाने के लिए बड़े स्तर पर पैसा बांटा जा रहा है। अभी झारखंड और महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनाव परिणामों का क्या राजनीतिक संदेश और संकेत निकलकर सामने आयेगा इस पर सब की नजर है। उधर वैश्विक परिस्थिति बहुत तेजी से बिगड़ती जा रही है। दुनिया में देशों के ध्रुवीकरण में तेजी के आसार दिख रहे हैं। भारत के सत्ताधारी दल में राजनीतिक ध्रुवीकरण की प्रवृत्ति पहले से बहुत तेज है।

वैश्विक ध्रुवीकरण की स्थिति में भारत का फैसला महत्वपूर्ण होगा। वैश्विक परिस्थिति में भारत का व्यवसायिक महत्व तो है ही सच पूछा जाये तो सामरिक महत्व भी कोई कम नहीं है। चुनाव के पहले भी और चुनाव के बाद भी मानव हित की रक्षा के लिए पूरी दुनिया के मानव समाज को सतत सावधान रहा होगा।

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