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सुरक्षित सत्ता का कॉरपोरेटीकरण अभियान

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अभय कुमार दुबे
पिछले साल दिसंबर के इन्हीं जाते हुए दिनों में मैंने अगले दस सालों की तस्वीर बहुसंख्यकवाद के दशक के रूप में खींची थी। बुनियादी प्रारूप एक साल बाद भी वही है। अंतर केवल इतना है कि अब हमारे पास उसकी संरचना के विभिन्न पहलुओं की कहीं बेहतर जानकारी है। मेरे विचार से इक्कीसवीं सदी में बीस के दशक की राजनीति मुख्य रूप से अपने पांच आयामों के लिए जानी जाएगी। पहला, इलेक्ट्रॉनिक्स की भाषा में कहें तो हिंदू बहुसंख्यकवाद उत्तरोत्तर मजबूत होते हुए आज के समय की सर्वस्वीकृत डिफॉल्ट पोजिशन में बदलता चला जाएगा। न केवल लोकप्रिय विमर्श के स्तर पर उसकी व्यापकता बढ़ेगी, बल्कि पार्टीगत लोकतंत्र के दायरों में उसका विस्तार उन क्षेत्रों में भी होगा जिनमें अभी तक उसके कदम पूरी तरह नहीं पड़े हैं।

गैर-बीजेपीवाद नदारद
दूसरा, लोकतांत्रिक विपक्ष भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ किसी भी तरह की कार्यक्रमगत एकता बनाने में मोटे तौर पर विफल रहेगा। पिछले सात वर्षों का अनुभव अगर कोई संदेश देता है तो वह यही है कि राज्यों की राजनीति में बीजेपी के लिए कहीं-कहीं मुश्किलें खड़ी करने के अलावा विपक्ष के पास किसी सक्षम राष्ट्रीय योजना का अभाव बना रहेगा। गैर-बीजेपीवाद की राजनीति दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही है। तीसरा, गरीबों और कमजोर जातियों (मुसलमानों समेत) की राजनीति करने वाली सामाजिक न्याय और वामपंथ की राजनीति नए दशक में पूरी तरह से वैचारिक और व्यावहारिक दिवालियेपन के साथ प्रवेश करेगी।

चुनावी मैदान में किसी भी तरह की नई जमीन तोड़ पाने में असमर्थ और तेजी से बढ़ते मध्यवर्ग की महत्त्वाकांक्षाओं को स्पर्श करने में अक्षम इन पार्टियों के लिए नब्बे के दशक की विजेता दावेदारियां एक गुजरी हुई याद बनती चली जाएंगी। चौथा, ऐसे एकतरफा माहौल में गैर-पार्टी लेकिन गहरे राजनीतिक मंतव्यों से संपन्न आंदोलनों की संख्या और बारंबारता बढ़ती चली जाएगी। ध्यान रहे कि पिछले साल इन्हीं दिनों नागरिकता के सवाल पर आंदोलन हो रहे थे और इस वर्ष तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसानों ने दिल्ली का ऐतिहासिक घेरा डाला हुआ है। कोई देखना चाहे तो देख सकता है कि बेरोजगारी के खिलाफ एक बड़ा राष्ट्रीय आंदोलन नेपथ्य में अपनी तैयारी कर रहा है।
पांचवां, कॉरपोरेट हितों और सत्तारूढ़ राजनीतिक हितों के बीच सीधा और खुला लेन-देन राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और संसाधनों के सामाजिक बंटवारे की प्रकृति का फैसला करेगा। इसका एक पहलू है कृषि कानूनों को वापस न लेने की सरकारी जिद, और दूसरा पहलू है आर्थिक जीवन के हर क्षेत्र के कॉरपोरेटीकरण का अहर्निश अभियान। अगले दस साल तक इस पंचकोणीय प्रारूप के टिकाऊ रहने के दो आधारभूत कारण हैं। पहला, हिंदू बहुसंख्यवाद के राजनीतिक प्रतिनिधियों द्वारा चुनावी धरातल पर बड़े सामाजिक गठजोड़ बनाने की कुशलता का लगातार प्रदर्शन। दूसरा, बीजेपी ही नहीं, कुछ क्षेत्रीय सत्तारूढ़ शक्तियों द्वारा भी अपनाए जाने वाले एक नए वेलफेयर मॉडल की व्यावहारिक सफलता और राजकीय लोकोपकार के पुराने मॉडल का निष्प्रभावी होना।
संसदीय चुनाव हमेशा और हर जगह प्रमुख रूप से सामाजिक गठजोड़ों के जरिये ही जीते जाते हैं। बाकी कारकों की भूमिका भी होती है, पर गौण। बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में 45 से 50 फीसदी वोटों का जो सामाजिक गठजोड़ बनाया है (जिसे हिंदू एकता की संज्ञा भी दी जा सकती है) वह पिछले सात सालों में हुए तीन बड़े चुनावों के दौरान उसे एकतरफा जीतें दिलाता रहा है। न तो समाजवादी पार्टी, न बहुजन समाज पार्टी और न ही कांग्रेस उसमें जरा भी सेंध लगा पाई है। अभी कुछ दिन पहले ही बीजेपी ने दिखाया है कि बिहार में सरकार विरोधी भावनाओं और भीतरी फूट के बावजूद केवल ज्यादा बड़े और वैविध्यपूर्ण गठजोड़ के ज़रिये एक नजदीकी लड़ाई कैसे जीती जा सकती है।
राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी ने ऊंची जातियों, यादवों को छोड़कर अधिकतर पिछड़ी जातियों, जाटवों को छोड़कर अधिकतर दलित जातियों और स्त्री वोटरों की हमदर्दी जीतने में सफलता पाई है। फिलहाल ऐसा कोई कारण नहीं दिख रहा है कि ये सामाजिक तबके बीजेपी का साथ छोड़ने के बारे में सोचेंगे। माहौल ही कुछ ऐसा बन गया है कि लोगों को बीजेपी ही सारे देश पर शासन करने की क्षमता से लैस दिखाई पड़ती है। यह कुछ वैसा ही है जैसा कभी आम मतदाता कांग्रेस के बारे में सोचते थे। नया लोकोपकारी मॉडल बीजेपी को राजनीतिक झटकों और सदमों को पचा जाने की क्षमता प्रदान करता है।
पुराने लोकोपकारी मॉडल का नमूना मनरेगा जैसा कार्यक्रम है, नए मॉडल का नमूना प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना है। पुराना मॉडल कहता है, काम की कुछ न कुछ गारंटी मिलेगी या खाद सस्ती कर दी जाएगी। नया मॉडल कहता है कि आर्थिक सहायता सीधे आपके खाते में पहुंचेगी। प्रेक्षकों को ध्यान होगा कि नरेंद्र मोदी ने 2014 में सत्ता में आने के तुरंत बाद पहला कदम जनधन योजना के खाते खोलने के रूप में उठाया था। दरअसल, इसके जरिये वे नए लोकोपकारी मॉडल की अधिरचना बना रहे थे। नरेंद्र मोदी ने दिखाया है कि भले ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के किसानों ने दिल्ली घेर ली हो- वे नौ करोड़ किसानों के खाते में दो-दो हजार यानी कुल 18 हजार करोड़ रुपए एक क्षण में भेज कर उन्हें इन आंदोलनकारी किसानों से अलग दिखा सकते हैं।
कृतज्ञ बनाने का क्राफ्ट
यह फंडा एकदम सीधा है। जिन तबकों की आमदनी बहुत कम हो गई है या तकरीबन शून्य है, उन्हें अगर पांच सौ रुपये महीने या चार महीने में दो हजार की रकम अचानक अपने खाते में आती दिखेगी, तो वे सरकार के प्रति कृतज्ञता अनुभव करेंगे ही। इस तरह की युक्तियां अर्थव्यवस्था के संपूर्ण कॉरपोरेटीकरण के लिए सुरक्षित गुंजाइश प्रदान कर रही हैं। इतने बड़े आंदोलन के बावजूद अगर सरकार राजनीति और सार्वजनिक छवि के मोर्चे पर सुरक्षित महसूस कर रही है, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसने मीडिया के एक बड़े हिस्से की मदद से अपने इर्दगिर्द राजनीतिक सहमति का कितना पुख्ता माहौल बना रखा है।
(लेखक सीएसडीएस में प्रोफेसर और वहां के भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक हैं)
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