अशोक मधुप
हाल में पैदा हुए हिजाब के विवाद पर आई याचिकाओं को भले ही कर्नाटक उच्च् न्यायालय ने निरस्त कर दिया हो, किंतु लगता यह है कि ये विवाद अभी जारी रहेगा।इसको हवा देने वाले मानने वाले नही हैं। इस मामले को हवा देने वाले तत्व मुसलिम को एकजुट रखने के लिए और सरकार के सामने कानून व्यवस्था की चुनौती पैदा करने के लिए वे अभी इसे जिंदा रखना चाहेंगे। वे चाहेंगे कि केंद्र सरकार बदनाम हो । दुनिया में उसकी सैक्युलर छवि न बन पाए।वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय में इस मसले के जाने और निर्णय आने तक तो इसे जिंदा रखा ही जा सकता है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने आज इस मामले की सुनवाई पूरी की। उसने शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पर प्रतिबंध को चुनौती देने वाली विभिन्न याचिकाओं को खारिज कर दिया। न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते वक्त टिप्पणी की कि हिजाब कोई धार्मिक प्रतीक नहीं हैं। हिजाब पहनना जरूरी नहीं हैं। उडुपी के एक प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज की छात्राओं के एक समूह की कक्षाओं में उन्हें हिजाब पहनने देने की मांग से तब एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया था ,जब इसके विरोध में कुछ हिंदू विद्यार्थी भगवा शॉल पहनकर पहुंच गए। जबकि सरकार वर्दी संबंधी नियम पर अड़ी रही। उसका कहना था कि काँलेज का एक ड्रेस कोड है, उसका काँलेज में पालन करना होगा। यह मुद्दा राज्य के साथ− साथ देश के अन्य हिस्सों में फैल गया। कई जगह प्रदर्शन हुए।कर्नाटक में तो मामले को तूल पकड़ते देख स्कूल काँलेज तक बंद करने पड़े।
हिजाब मामले की सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ऋतुराज अवस्थी, न्यायमूर्ति कृष्ण एस दीक्षित एवं न्यायमूर्ति जे एम काजी की पीठ गठित की गयी । याचिका दायर करने वाली लड़कियों ने अनुरोध किया था कि उन्हें कक्षाओं में स्कूली वर्दी के साथ-साथ हिजाब पहनने की अनुमति दी जाए क्योंकि यह उनकी धार्मिक आस्था का हिस्सा है।
माना जाता है कि कुछ तत्व हैं जो हिजाब , नागरिकता संशोधन विधेयक या अन्य मुद्दों को लेकर सरकार के सामने समस्याएं बनाए रखना चाहते हैं। हिजाब का मुद्दा तब आया तब पांच राज्यों में चुनाव चल रहा था। हिजाब का मामला आया ।कुछ ही दिन में देश भर में प्रदर्शन होने लगे। इससे लगा कि ये विवाद जानकर पैदा किया जा रहा है ताकि चुनाव वाले राज्यों में इसका लाभ लिया जा सके। सरकार के विरूद्ध मुसलिम को एकजुट किया जा सके।
आज दुनिया भर में मुसलिम महिलांए पर्दे का विरोध करती रही है। ये इससे निकल कर खुले आकाश में सांस लेना चाहती हैं। चाहती हैं कि उन्हे पर्दे से आजादी मिले।सानिया मिर्जा के शुरू के खेल के समय उसके द्वारा पहनी जाने वाली ड्रेस पर भी कुछ कट्टरपंथियों ने आवाज उठाई थी। उस समय सानिया ने कहा था कि मेरा खेल देखिए ड्रेस नहीं।दूसरे पूरे शरीर को ढककर खेल हो भी नही सकते।अभी हाल में अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार आई।वहां की युवती और महिलाओं से पूछो कि क्या वह इसे स्वीकार करती हैं। अफगानिस्तान में अमेरिकी दखल के बाद वहां की युवतियों के लिए खुले स्कूल , काँलेज के द्वार उनके लिए बंद हो गए।अब तक वह कहीं भी आ जा सकती थीं। वे अब तक नौकरी कर रहीं थीं। अपने व्यवसाय में लगीं थीं। तालिबान के आने के बाद उनका वह सब छिन गया। आज वे घरों में कैद होकर रह गईं।
कोर्ट में याचिका डालने वाली कुछ युवती आज स्कूल ड्रेस के साथ हिजाब पहनने की बात कर रही हैं उधर बड़ी तादाद में यूरोप की तर्ज पर युवतियों द्वारा कपडों का साइड घटने की मांग होती रही है। भारत में युवतियां चाहती हैं कि वह जो चाहे, वह पहने। इसमें किसी को कोई आपत्ति नही होनी चाहिए। कुछ लोगों को छोड़ सभी चाहतें हैं, मानते हें कि युवतियां अपनी मर्जी के वस्त्र पहने,आगे बढें। अब तो देश की फौज के द्वार भी उनके लिए खोल दिए गए, किंतु शिक्षण संस्थाओं का एक ड्रेस कोड है। उसका वहां पालन होना चाहिए।यह ड्रेस कोड इसलिए है कि सारे छात्र− छात्राएं एक जैसे दिखाई दें। गरीब− अमीर का उनमें फर्क न आए। ऊंच −नीच की भावना उनमें घर न कर सके।
इस निर्णय के बाद अच्छा है कि स्कूल , काँलेज में हिजाब पहनने की मांग करने वाली युवतियों को सदबुद्धि आ जाए, किंतु लगता है कि ऐसा होने वाला नही है।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)