अग्नि आलोक

*पटाखे, आस्था और संघ परिवार*

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*(आलेख : राजेंद्र शर्मा)*

वैसे तो प्रकृति से जुड़ी आपदाओं में से अधिकांश के पीछे किसी न किसी प्रकार से इंसान की करनियों का हाथ रहता ही है। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आपदाएं इसका जाना-माना उदाहरण हैं। फिर भी, आम तौर पर देश भर में और खासतौर पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को दीवाली की रात से वायु प्रदूषण के जिस संकट को झेलना पड़ रहा है, उसके पीछे जितने प्रत्यक्ष रूप से इंसानों की करनी है, उसका स्तर अलग ही है। वास्तव में इसे आत्मघाती करनी कहा जाए, तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। और जैसे खासतौर पर इसी सचाई को रेखांकित करने के लिए, इस बार की दीवाली से दो दिन पहले से, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और उससे भी व्यापक दायरे में, अप्रत्याशित बारिश ने वातावरण को असामान्य रूप से साफ कर दिया था। याद रहे कि इससे पहले, करीब हफ्तेभर से इस क्षेत्र में वायु प्रदूषण ‘‘खतरनाक’’ स्तर पर बना रहा था, जिस पर अंकुश लगाने की कोशिश में राजधानी दिल्ली समेत इस क्षेत्र की विभिन्न सरकारों ने अनेक आपात कदम उठाए थे, जिनमें निर्माण गतिविधियों पर अंकुश लगाने, वाहनों के धुंए के प्रदूषण को कम करने से लेकर, स्कूलों को बंद करने तक के कदम शामिल थे।

यही नहीं, पिछले कुछ वर्षों की तरह, एक बार फिर पंजाब, हरियाणा आदि में किसानों के पराली जलाने से होने वाले वायु प्रदूषण का मुद्दा प्रमुखता से चर्चा आ चुका था और सुप्रीम कोर्ट तक ने इस मुद्दे पर हस्तक्षेप करना जरूरी समझा था। इसी संकट के पराली से जरा भिन्न संदर्भ में, दीवाली के गिर्द आतिशबाजी के सिलसिले में भी सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया था और उसने न सिर्फ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पटाखों पर लगी पाबंदी को सही और जरूरी ठहराते हुए, इस पाबंदी को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया था, बल्कि इसे लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा के तकाजों से जोड़ते हुए, हरित-इतर पटाखों पर पाबंदी का देशभर में विस्तार करना भी जरूरी समझा था। इस सब के बीच प्रकृति ने इस क्षेत्र में वायु प्रदूषण को खतरनाक दर्जे में पहुंचाने के बाद, अचानक बेमौसमी बारिश के रूप में जो उदारता दिखाई थी, उसके बल पर इस बार दीवाली के दिन शाम तक वातावरण असाधारण रूप से साफ हो गया था और एक्यूआइ सूचकांक, पिछली अनेक दीवालियों की शामों के मुकाबले, वायु प्रदूषण बहुत कम होने को दिखा रहा था। लेकिन यह सब तभी तक था, जब तक कि पटाखे चलना शुरू नहीं हुआ था।

दीवाली पर देर शाम से पटाखे चलने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसने सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां तो खैर उड़ाईं ही, बारिश के जरिए प्रकृति द्वारा दमघोंटू वातावरण से दिलायी गयी राहत की भी धज्जियां उड़ा दीं। नतीजा यह हुआ कि दीवाली की अगली सुबह से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण, फिर से बारिश से पहले के ‘‘खतरनाक’’ स्तर पर ही नहीं पहुंच गया, उस खतरनाक स्तर में भी एकाध सीढ़ी और ऊपर चढ़ गया। एक्यूआइ औसतन 500 अंक से ऊपर पहुंच गया।

बहरहाल, बात सिर्फ इतनी ही होती, तब भी गनीमत थी। इसे अपने हाथों, अपने लिए मुसीबत खड़ी करने की मूर्खता का मामला कहकर, ऐसा करने वालों की नादानी पर रोया जा सकता था। वैसे, इस नादानी पर रोना भी, कुछ कारणों से साधारण रोना भर नहीं होता। एक तो इसलिए कि यह नादानी कोई अनजाने में नहीं की जा रही थी। कम से कम आम तौर पर सभी को इसका कुछ न कुछ अंदाजा जरूर हो चुका है कि गंगा-जमुना के मैदान की, सर्दियों में वातावरण के खराब होने की जो प्राकृतिक समस्या है, उसे दीवाली के गिर्द खतरनाक रूप से बढ़ाने में, जिस तरह मोटर वाहनों के धुंए का और पराली जलाने के धुंए का महत्वपूर्ण योगदान है, उसी तरह समय विशेष पर पटाखों के धुंए का भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान है। जब वायु प्रदूषण को खतरनाक स्तर से नीचे लाने के लिए दूसरे सभी उपाय आजमाए जा रहे हों या कम से कम उनके बारे में सोचा जा रहा हो, ‘‘हर्ष फायरिंग’’ की तरह, ‘‘खुशी जताने’’ के लिए पटाखे चलाने से बचे जाने के लिए, सामान्य ज्ञान से ज्यादा की जरूरत नहीं होनी चाहिए।

इस सिलसिले में यह याद दिलाने की भी जरूरत नहीं होगी कि पटाखे चलाने से बचे जाने की यह मांग कोई अचानक नहीं आ गयी थी। इस क्षेत्र में वायु प्रदूषण के संकट पर बहस ने जब से जोर पकड़ा है, तभी से इस समस्या पर काबू पाने के प्रयासों के एक हिस्से के तौर पर पटाखे चलाए जाने को हतोत्साहित करने के विवेक का भी प्रचार-प्रसार हुआ है। यहां तक कि सरकारों द्वारा और उच्चतर अदालतों द्वारा भी पटाखों पर बढ़ते पैमाने पर रोकें भी लगायी जाती रही हैं। इसी सिलसिले की ताजातरीन कड़ी के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने गैर-हरित पटाखों पर पाबंदी को विस्तार कर, पूरे देश पर लागू कर दिया था। और यह विस्तार भी पूरी तरह से विवेकपूर्ण था क्योंकि दीवाली पर ‘‘खुशी से पटाखे’’ चलाने का रिवाज, तेजी से देश के बहुत बड़े हिस्से में फैला है और उसका गंगा-यमुना के मैदानी इलाके के बाहर के अनेक प्रमुख शहरी केंद्रों में भी वायु प्रदूषण का संकट बढ़ाने में काफी योगदान होने लगा है। यह संयोग ही नहीं है कि इस बार दीवाली की अगली सुबह तक, दुनिया के दस सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण के मारे महानगरों में, दिल्ली के अलावा मुंबई और कोलकाता भी शामिल हो चुके थे!

तो क्या सब के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हुए भी ‘‘खुशी के पटाखे’’ चलाने की इस जिद को सिर्फ एक धार्मिक आस्था का और इस धार्मिक आस्था के विवेक के खिलाफ जाने से, इसे सिर्फ धार्मिक अंधविश्वास का मामला माना जा सकता है? हर्गिज नहीं। बेशक, बड़े पैमाने तथा व्यापक स्तर पर पटाखे चलाए जाना, दीवाली से जुड़ा हुआ है, हालांकि खुशी में पटाखे चलाना न तो दीवाली तक सीमित है और न ही ऐसे धर्म से जुड़े त्यौहारों तक ही सीमित है। शादी-विवाह से लेकर, चुनावी जीत और राष्ट्रीय त्यौहारों तक के मौके पर, आतिशबाजी ‘‘खुशी जताने’’ का एक स्वीकृत साधन रही है। दूसरी ओर, पटाखों के औद्योगिक पैमाने पर उत्पादन के साथ आधुनिक दौर में दीवाली के मौके पर पटाखे चलाना आम जरूर हो गया है, लेकिन गंधक-बारूद के उपयोग से विस्फोटक बनाए जाने का इतिहास, इतना पुराना भी नहीं है कि पटाखों को, दीवाली से जुड़ी धार्मिक आस्था का जरूरी अंग या तत्व माना जा सके। दीवाली से जुड़े अनेक विश्वास, कम से कम सातवीं सदी में चीन से पटाखों के आने से पुराने जरूर होंगे। बेशक, धार्मिक आस्थावान, अपने विश्वासों को आसानी से छोडऩे के लिए तैयार नहीं होता है, इसके लिए उन्हें विवेक की कसौटी पर कसने से बचता भी है; लेकिन उन्हें अविवेकपूर्ण मानते-समझते हुए उनका बचाव शायद ही करता है। उल्टे अविवेकपूर्ण नजर आने की सूरत में धीरे-धीरे, किंतु निश्चित रूप से उनका त्याग ही करता जाता है।

लेकिन धार्मिक आस्था के विपरीत, धर्म का लबादा ओढ़कर सामने आने वाली राजनीतिक आस्था या सांप्रदायिकता का आचरण, इससे बहुत भिन्न होता है। वह चूंकि धार्मिक आस्थाओं का सांप्रदायिक राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए ही उपयोग करती है, वहां धार्मिक आस्थाओं में काट-छांट तो खूब होती है, इतनी ज्यादा कि धार्मिक आस्थाएं ही पहचान में नहीं आएं; लेकिन धर्म की दुहाई की यह राजनीति कथित ‘‘आस्थाओं’’ में किसी भी तरह से विवेक प्रवेश नहीं होने देती है। उल्टे, विवेक के विरुद्घ इन कथित आस्थाओं को अपना हथियार ही बनाती है। दीवाली से जोडक़र पटाखों के सवाल पर, संघ परिवार के औपचारिक नेतृत्व को छोड़कर, उसकी तमाम सेनाओं की पिछले कुछ वर्षों में जो हमलावर नकारात्मक भूमिका रही है, जिसका इस बार पिछले वर्षों से भी उग्र विस्फोट देखने को मिला है, उसे धार्मिक आस्था से बहुत भिन्न, इस सांप्रदायिक राजनीति के रूप में ही समझा जा सकता है।

किसी को भी यह देखकर हैरानी होगी कि सारत: ‘हिंदुओं के अपने त्योहार पर पटाखे चलाने के अधिकार’ की पैरवी की यह दलील, दीवाली पर ‘सुप्रीम कोर्ट की रोक’ की धज्जियां उड़नेo को, ‘नागरिक अवज्ञा आंदोलन’ बताकर गौरवान्वित करने पर ही नहीं रुक जाती है, उसे ‘हिंदुओं की जीत’ बताने की हद तक जाती है। जैसे वायु प्रदूषण के खिलाफ हिंदू आस्थाएं किसी प्रकार के कवच या मास्क का काम करने वाली हों और वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों से हिंदू बचे रह जाने वाले हों! वर्ना सामान्य ज्ञान तो यही कहता है कि हिंदू अगर आबादी का 80 फीसद से ज्यादा हिस्सा हैं, तो कुल मिलाकर वायु प्रदूषण के नुकसान में भी उतना ही ज्यादा उनके हिस्से में आएगा! यह हिंदू आस्था का सवाल हो न हो, हिंदू आस्थाओं को आत्मघाती बनाने का मामला जरूर है। धर्म का लबादा ओढ़कर सामने आने वाली राजनीतिक आस्था सिर्फ इसी मामले में नहीं, हरेक मामले में ही, जिस धार्मिक आस्था को छूती है, उसे आत्मघाती बनाने का काम जरूर करती है। सियाराम का जय श्रीराम में रूपांतरण इसी का एक और, किंतु किंचित बारीक उदाहरण है। सांप्रदायिकता की राजनीति, जिस धर्म की दुहाई देती है, उसमें आस्था रखने वालों को ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाती है।     

*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के  संपादक हैं।)*

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