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सत्तापक्ष और विपक्ष को प्रेतबाधा में फांस रखा है क्रोनी कैपिटल ने

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चार राज्यों में विधानसभा चुनाव, उपचुनाव के साथ-साथ एक तरफ अडानी समूह के भ्रष्टाचार के साथ देश की 5 राज्य सरकारों के लिप्त होने की खबरें और उसी के समकक्ष सांप्रदायिक उन्माद को नए स्तर पर ले जाने के लिए अदालती आदेशों का सहारा लेने का अभियान समूचे देश के मानस को पीएम-2.5 स्माग से भी ज्यादा दूषित करता जा रहा है।   

2024 आम चुनाव से पहले तक राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पार्ट 1 और पार्ट 2 से देश को उम्मीद बंधी थी कि शायद यह कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के कायाकल्प का समय है। देश ने अपना जनादेश भी दिया, लेकिन चुनाव आयोग, ईवीएम और वोटों की गणना में बेध्यानी ने पूरे देश और विशेषकर ओडिशा और आंध्रप्रदेश के नतीजों ने एक बार फिर से मोदी 3.0 के लिए मौका बना दिया।   

देश ने संतोष कर लिया कि चलो, इस बार पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार नहीं है, राहत मिलेगी। कुछ दिनों तक नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने भी बड़े ही दमखम वाले तेवर दिखाए। लेकिन हालिया विधानसभा चुनावों में हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों, जिनके बारे में आम राय थी कि यहाँ इंडिया गठबंधन को भारी बहुमत मिलेगा, को आसानी से भाजपा कब्जियाने में सफल रही।आश्चर्य है कि जिस जम्मू-कश्मीर और झारखंड को विपक्ष का कमजोर गढ़ माना जा रहा था, वहां इंडिया गठबंधन जीतने में सफल रहा। 

इस पूरे दो वर्षों के सफर में यह बात तो किसी आम भारतीय के लिए भी अंदाजा लगा पाना आसान है कि राहुल गांधी की यात्रा और पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदाय को एकजुट करने के नारे ने उन्हें देश के बड़े तबके के बीच में प्रतिष्ठित कर दिया था। कांग्रेस चाहती तो लाखों युवाओं को अपने सांगठनिक दायरे में ला सकती थी, और पुराने सड़े-गले, जिसमें कई तो संघी सोच और कुर्सी की दौड़ में लगे रहते हैं, से पीछा छुड़ाया जा सकता था। इस नए संगठन का उपयोग चुनाव में राष्ट्रीय स्तर से लेकर बूथ स्तर तक कर विपक्ष के वोटों की गोलबंदी और फॉर्म 17सी पर मतदान अधिकारियों को मजबूर किया जा सकता था।  

लेकिन जमीन पर देखने पर यही लगता है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। कांग्रेस आज भी उन्हीं चुके हुए कारतूसों के भरोसे अपने संगठन और देश के भविष्य को आगे ले जाने के बारे में सोच रही है, जिन्हें देश से ज्यादा अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता है।  मजे की बात यह है कि कांग्रेस को इस बीच वामपंथी कतारों से भी बड़ी संख्या में कार्यकर्ता मिले और वाम जनवादी शक्तियों ने भी अब वैकल्पिक राह अपनाने के बजाय कांग्रेस के पीछे ही खुद को खपाने पर मुहर लगा दी है। राहुल गांधी ने भी अपने बयानों के माध्यम से यही जताने की कोशिश की है कि वे परंपरागत मध्य मार्ग से दक्षिण के बजाय वाम की ओर ही रुझान रखते हैं।  

लेकिन कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश में सरकार बनाने के बावजूद यदि तेलंगाना को छोड़ दें तो दोनों राज्यों में बीजेपी लगातार दोनों सरकारों को घेरे हुए है। कांग्रेस के भीतर की गुटबाजी और मुख्यमंत्री बनने की हवस का फायदा विपक्ष में बैठी भाजपा उठा रही है, और यह कहना गलत न होगा कि अगले चुनाव में ये दोनों राज्य फिर से भगवामय हो जायें।   

कांग्रेस आगे दौड़ पीछे छोड़ वाली मुद्रा में  

महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों को देखकर किसी को भी यकीन नहीं हो रहा है कि ऐसा जनादेश कैसे संभव है।  पवार और ठाकरे गुट के नेताओं का कहना है कि प्रदेश में कहीं भी महायुती की जीत पर सड़कों पर जश्न का माहौल नहीं दिखा।  पहले तीन दिनों तक तो ऐसी खामोशी रही कि कोई कुछ बोलने की हालत में नहीं था। अब गाँवों, कस्बों और मुंबई से भी बूथों से खबरें आ रही हैं, जिससे जानकारी मिल रही है कि परिवार के परिवार और यहां तक कि उम्मीदवारों के परिवार के वोटों के बराबर भी बूथ पर उनके पक्ष में वोट नहीं निकले हैं। आखिर यह सब किस नॉन बायोलॉजिकल चमत्कार का परिणाम है, जिसके बारे में यदि रत्ती भर भी भरोसा होता तो आज भाजपा जो 150 सीट लड़कर 132 सीट जीतने में सफल रही, वो चाहती तो 288 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा कर 250 सीट तो जीत ही सकती थी।    

इस रिजल्ट ने विपक्ष को दो अलग-अलग दिशा में सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। कांग्रेस ने फैसला लिया है कि वह देश में अब ईवीएम के खात्मे और बैलट पर चुनाव के लिए सरकार को मजबूर करने के लिए देशव्यापी आंदोलन करेगी। दूसरी तरफ महाराष्ट्र में उसके घटक दल शिवसेना (ठाकरे) और एनसीपी अपने उम्मीदवारों और विधायकों के साथ बैठक कर कथित धांधली के खिलाफ आंदोलन की तैयारी में जुट रहे  हैं।  

इन दो दिशाओं में कूदने के पीछे की वजहें अलग-अलग हैं। एनसीपी (शरद पवार) और उद्धव ठाकरे तो  क्षेत्रीय दल हैं, उनके लिए तो यह अस्तित्व का संकट है। लेकिन कांग्रेस तो एक महासमुद्र है, जिसमें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा और अब महाराष्ट्र चुनावों में ईवीएम के चलते नुकसान के बावजूद झेलने की अपार क्षमता है।  नागरिक संगठनों और अधिकार संगठनों की ओर से इस मुद्दे पर लंबे समय से लड़ाई लड़ी जा रही है, लेकिन कांग्रेस को उम्मीद है कि शायद मोदी सरकार या उनके द्वारा मनोनीत चुनाव आयोग एक दिन सही रास्ते पर आ जायेगा।  

लेकिन क्या महाराष्ट्र में चुनाव धांधली की जांच और आगे से बैलट से चुनाव के मुद्दे को एक साथ नहीं लड़ा जा सकता? क्या कांग्रेस मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा और महाराष्ट्र के अपने वोटरों के प्रति उत्तरदायी नहीं होना चाहती, जिनके कथित वोटों की चोरी हो गई। आखिर हरियाणा में उसके ही बूथ और काउंटिंग पर खड़े कार्यकर्ताओं ने पार्टी और मीडिया को सूचित किया था कि कई ईवीएम 99% तक चार्ज पाए गये हैं। आखिर हर बार अधूरी लड़ाई को बीच में ही छोड़कर अगले चुनाव या मुद्दे पर कूदने का क्या मतलब है? 

ऐसे में समय आ गया है कि अब देश की तकदीर को सिर्फ विपक्ष (कांग्रेस) के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि इन विपक्षी दलों के पास अभी भी मौजूदा व्यवस्था से लड़ने के लिए न ही जरुरी समझ बन पा रही है, और न ही इनके अंदर वह आत्मविश्वास है जो सर्वग्रासी क्रोनी-नौकरशाही-आरएसएस की संयुक्त ताकत के मुकाबले खड़े हो सकें। इसमें इनका खुद का स्याह इतिहास भी आड़े आ रहा है। 

उदाहरण के लिए, अडानी को लेकर हालिया नए विवाद की आंच आज सिर्फ अडानी समूह तक सीमित नहीं है। इसके दायरे में वे पांच राज्य भी शामिल हैं, जिनमें से चार विपक्ष शासित राज्य हैं। इनमें सबसे प्रमुखता से यदि किसी राज्य का नाम सामने आ रहा है तो वह है आंध्र प्रदेश। लेकिन इसके अलावा, तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ के बारे में क्या कहेंगे जहां पर इंडिया गठबंधन की डीएमके और रमण सिंह की सरकार थी। इसके अलावा ओडिसा में नवीन पटनायक और जम्मू कश्मीर में केंद्र की एलजी सरकार शासन में थी।  

शायद अडानी को लेकर उठे इस नए विवाद के चलते ही तेलंगाना के कांग्रेस मुख्यमंत्री को होश आया कि अडानी से लिए गए 100 करोड़ रूपये की सहायता को वापस कर देना बेहतर रहेगा। वर्ना, महाराष्ट्र चुनाव में उनकी पार्टी और नेता राहुल गांधी का पूरा फोकस ही अडानी के धारावी प्रोजेक्ट पर बना हुआ था और ये साहब को कहीं कोई खोट नजर नहीं आ रहा था।  

इसका तो यही अर्थ है कि कांग्रेस वैचारिक रूप से अभी भी बेहद उलझी हुई पार्टी है, जिसके नेता राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे पिछले एक वर्ष से जातिगत जनगणना का मुद्दा भले ही बुलंद किये हुए हों, लेकिन संगठन के भीतर या चुनावों में अभी भी वे इसे लागू करा पाने में बुरी तरह से नाकाम रहे हैं। 

हरियाणा में कांग्रेस नेतृत्व जाट नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा के आगे नाक रगड़ते रह गये, लेकिन उन्होंने 80% सीटों पर अपने आदमियों को उम्मीदवार बना डाला। इतना ही नहीं, खबर तो यह भी है कि कुमारी शैलजा के गुट के जो दो-चार प्रत्याशी मैदान में भी थे, उनके खिलाफ भी अपने उम्मीदवारों को उतारकर सिर्फ अपने गुट की जीत को सुनिश्चित करने की तैयारी थी।  

आखिर जमीन पर ऐसी स्थिति को देखकर किसी भी वंचित समुदाय को कितने समय तक सिर्फ खोखली तकरीरों या व्यक्तिगत ईमानदारी के आधार पर अपने पक्ष में बनाये रखा जा सकता है? इससे पहले मध्य प्रदेश में कमलनाथ की लीला सपा नेता अखिलेश यादव ही नहीं समूचा इंडिया गठबंधन (प्रस्तावित रैली) देख चुका था।    

देश में मुकम्मल विपक्ष के अभाव के चलते हालात तेजी से बिगड़ रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र में जो रही सही कसर थी, उसे पिछले दस वर्षों में पहले ही विधायिका को ईडी सीबीआई और आयकर विभाग से डरा धमका और अपने पाले में कर कमजोर किया जा चुका था। सबसे बड़ा संबल अभी तक न्यायपालिका बनी हुई थी, जिसके फैसले आज सांप्रदायिक और नस्लीय हिंसा की सबसे बड़ी वजह बन रही हैं। इसे बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि से शुरू होकर अब काशी, मथुरा, संभल और कल अजमेर शरीफ तक देखा जा सकता है। मणिपुर हिंसा की शुरुआत की वजह भी एक न्यायिक निर्णय के चलते पिछले वर्ष हुई थी, जो थमने का नाम नहीं ले रही है। 

चुनाव आयोग की भूमिका को पहले ही कोम्प्रोमाईज़ तब कर दिया गया था जब सरकार ने मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, प्रधान मंत्री और विपक्षी दल के नेता के स्थान पर सीजेआई को हटाकर पीएम द्वारा मनोनीत तीसरे व्यक्ति की नियुक्ति को तय कर दिया था।  

इसकी मिसाल हरियाणा और अब महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर देखने को मिली है। कथित तौर पर महाराष्ट्र में 70 लाख वोटों को मतगणना के बाद दो बार जोड़ देने से चुनाव परिणाम इतने बड़े पैमाने पर बीजेपी के पक्ष में झुक गये हैं कि न सिर्फ विपक्ष पूरी तरह से बेदम हो चुका है बल्कि महायुती के भीतर भी मुख्यमंत्री पद के लिए अब कोई दावेदारी नहीं बची है। इस प्रयोग की सफलता को अब बिहार विधानसभा में अमल में लाने पर एनडीए साझीदार नीतीश कुमार का हाल देखना बाकी रह गया है। 

ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग तो सरकार के लिए सबसे बड़े हथियार बने ही हैं, लेकिन सीवीसी या लोकायुक्त पिछले दस वर्षों से कहाँ हैं, या ये विभाग खत्म हो चुके हैं, के बारे में कोई खबर नहीं है। अमेरिकी अदालत भारत के बड़े कॉर्पोरेट घराने अडानी समूह के मुखिया गौतम अडानी और भतीजे सागर अडानी को भारत के पांच राज्यों की सरकारों को 2000 करोड़ रूपये की रिश्वत देकर सोलर एनर्जी की खरीद का दोषी पाते हुए समन किया गया है।  

भारत में हुए कदाचार के बारे में अमेरिकी अदालत और एफबीआई की जांच अभी जारी है, लेकिन भारत सरकार की जांच एजेंसियों, अदालत और सेबी के कानों में जूं नहीं रेंग रही है।  बिजली खरीद के इस महाघोटाले में अमेरिकी निवेशकों के हितों की चिंता में वहां पर अडानी परिवार के दो लोगों को अभियुक्त बनाया गया है, लेकिन इस पूरे भ्रष्टाचार में लिप्त 5 राज्य सरकारों, सोलर एनर्जी पॉवर कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया (एसईपीसीआई) के नौकरशाह और केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय आखिर दो निजी कॉर्पोरेट समूह को फायदा पहुंचाने के एवज में 2000 करोड़ रुपये की बदंरबांट कैसे कर रहे थे, जिसका खामियाजा भारत के आम उपभोक्ताओं के माथे पर फोड़ना था। 

यह सवाल किसी भी देशभक्त सरकार, आम नागरिकों के दिलोदिमाग को झकझोरना चाहिए।  लेकिन इन्हीं काली ताकतों के पास मीडिया की भी ताकत है जो आम आदमी को एक पल के लिए भी सोचने का वक्त नहीं देता।  यह बात जमीन पर बताने और वास्तविक विकल्प को खड़ा करने के लिए नागरिक अधिकार समूहों, किसान और मजदूर संगठनों को अब संसदीय विपक्ष के बजाय अपने कंधों पर लेना ही होगा, इसके अलावा अब कोई विकल्प नहीं है। 

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