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*आचार्य रामचंद्र शुक्ल की कसौटी पर वर्तमान राजनीति*

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     ~ पुष्पा गुप्ता 

शुक्ल जी की प्रसिद्ध उक्ति है कि मूल वृत्तियाँ दो ही हैँ–राग और द्वेष; राग मिलाने वाली वृत्ति है, द्वेष अलग करने वाली। आजकल मणिपुर मेँ कुकी और मैतेई समुदाय के रक्तरंजित टकराव से लेकर हरियाणा मेँ हिन्दू और मुस्लिम झगड़ों तक जो दृश्य दिखायी देता है वह समाज का पैदा किया हुआ नहीँ बल्कि राजनीति का भड़काया हुआ है, यह बात सभी जानते हैँ। 

      लेकिन कहने की बात यह है कि एक साहित्यकार मिलाने और अलगाने वाली वृत्तियोँ को जब रेखांकित करता है तो बिना कहे वह मिलाने वाली वृत्ति का पक्ष लेता है। लेकिन फिर भी समाज अगर झगड़ों-दंगों-टकरावों से त्रस्त है तो इसका श्रेय साहित्य को नहीँ, राजनीति को जाता है। दोनों की कार्यविधि मेँ और प्रभाव मैं बुनियादी फ़र्क़ है। 

दिलचस्प बात है कि शुक्ल जी को इसका आभास था।

       यहाँ उस विस्तृत चर्चा का अवसर नहीँ है लेकिन कुछ प्रमुख बातोँ का विवेचन किया जा सकता है। वर्तमान विद्वत्ता के क्षेत्र मेँ हम देखते हैँ “समाजशास्त्रीय” अध्ययन और उत्तर-आधुनिक सैद्धांतिकियाँ हर प्रचलित रीति को अध्ययन के नामपर औचित्य स्थापित करती हैं। मेरे मित्र बद्री नारायण ने दो-तीन दिन पहले ‘इंडियन एक्सप्रेस’ मेँ एक लेख लिखा कि आज की राजनीति मेँ प्रधानमंत्री मोदी ही सबसे प्रमुख एजेंडा सेटर हैँ; वे भविष्य का लक्ष्य सामने रखकर विकास का एजेंडा निर्धारित करते हैं जिसपर जनता विश्वास करती है। जैसे, 5 खरब की अर्थव्यवस्था, दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था!

       यह बात काफ़ी दूर तक सही है। लेकिन प्रगतिशील समूह मेँ इस बात पर इतनी व्याकुलता छा गयी कि मेरे के आदरणीयों ने फ़ोन करके आवेश जताया। मेँ कहाँ तक सफाई देता? मैँने बद्री को लिखा कि समाजशास्त्री का काम केवल प्रकट वास्तविकता को रेखांकित कर देना नहीँ है, पूर्व निर्धारित लक्ष्यों का विवेकसम्मत आलोचनात्मक आकलन भी है। बद्री इसे मान गये। इसलिए वह चर्चा वहीँ रुक गयी। लेकिन अगर बात करनी पड़ती तो सवाल आता कि 2 करोड़ रोज़गार से लेकर सार्वजनिक शिक्षा-स्वास्थ्य तक जितने “विकासात्मक” लक्ष्य बताये गये थे, उनकी वर्तमान स्थिति क्या है?

      बहरहाल, हम अपनी बात से भटकना नहीँ चाहते। शुक्ल जी को “समाजशास्त्र” की सीमाएँ” पता थीं, यद्यपि हिंदी के कुछ प्रगतिशील आलोचक उन्हें ‘कुत्सित समाजशास्त्री’ कहते थे। अब उन आलोचकों को लोगबाग नहीँ जानते लेकिन शुक्ल जी की प्रतिमा पूरी गरिमा के साथ खड़ी है। 

शुक्ल जी ने ‘करुणा’ का महत्व निरूपित करते हुए लिखा था: “समाजशास्त्र के पश्चिमी ग्रन्थकार कहा करेँ कि समाज मेँ एक-दूसरे की सहायता अपनी-अपनी रक्षा के विचार से की जाती है; यदि ध्यान से देखा जाय तो कर्मक्षेत्र मेँ परस्पर सहायता की सच्ची उत्तेजना देनेवाली किसी न किसी रूप मेँ करुणा ही दिखायी देगी।” (चिन्तामणि-1, पृ.51) 

       एक ओर ‘अपनी रक्षा’ वाली स्वार्थ-भावना है, दूसरी ओर परदुःखकातरता वाली करुणा है; एक पश्चमी सिद्धांत है, दूसरा मानव स्वभाव। शुक्ल जी।मनुष्य को मूलतः स्वार्थी या पतित मानने वाले धार्मिक आदर्शों से असहमत हैँ। वे अपने समय मैं यह भी देख रहे थे कि भारतीय रूढ़िवाद पुरखों का नाम जपता हुआ पश्चिमी स्वार्थ सिद्धांत के निकट जा बैठता है।

    उन्होंने स्पष्ट कहा कि “यदि परस्पर सहायता की प्रवृत्ति पुरखों की उस पुरानी पञ्चायत ही के कारण होती और यदि उसका उद्देश्य वहीं तक होता जहाँ तक समाजशास्त्र के वक्ता बतलाते हैँ, तो हमारी दया मोटे, मुसण्डे और समर्थ लोगोँ पर जितनी होती उतनी दीन, अशक्त और अपाहिज लोगोँ पर नहीँ, जिनसे समाज को उतना लाभ नहीँ।” (वही) 

इन पश्चिमी विद्वानों और अपने पुरखों की बात को समाज में मान्य बनाने के लिए जो संस्थाएँ और लोगबाग सक्रिय हैँ, उन्हें भी शुक्ल जी ने लक्ष्य किया है: “नीतिज्ञों और धार्मिकों का मनोविकारोँ को दूर करने का उपदेश घोर पाखण्ड है।” (53) 

   कल्पना कीजिए कि पश्चिमी विद्वान, पूर्वी पुरखे, नीतिज्ञ और धार्मिक मिलकर “स्वार्थ मूल” की प्रतिष्ठा करके मनुष्य को एक स्वरूप देने मेँ लगे हैँ।

      यह बात आज भी पुरानी नहीँ हुई है। शुक्ल जी एक संघर्षरत समाज के विचारक के रूप में इस पतनगामी मनोविज्ञान या समाजशास्त्र की चूलें हिला रहे थे। अगर हमें अपने समाज की पुनर्रचना करनी है तो शुक्ल जी के सिद्धांत हमारे बहुत काम के हैँ, अगर हमेँ समाज को इसी तरह पतन और विघटन के रास्ते पर जाने देना है तो जो कुछ उन बड़े-बड़े संगठित संस्थानों द्वारा बताया जा रहा है, उसे ही चलने देना होगा। 

ऐसा नहीं कि शुक्ल जी केवल स्वार्थ-सिद्धांत की अलो5करते हैँ, वे नए सिद्धांत का आधार भी रखते हैँ। स्वार्थ के विलोम है परमार्थ। धार्मिक और नीतिज्ञ उसका नाम लेते हैं लेकिन उसपर आचरण करते हैं समाजसेवक। उनके हृदय मेँ करुणा का वास होता है। शुक्ल जी ने कहा है, “दूसरोँ की ओर द्रवित करने वाली हृदय की दो कोमल वृत्तियाँ हैँ–करुणा और प्रेम।” (पृ.92) 

     कहने की ज़रूरत नहीँ कि इन दोनोँ वृत्तियोँ या भावों का मूल्य मानव जीवन के लिए बहुत अधिक है। चूँकि भावों की प्रकृति भी दद्वंद्वात्मक है, राग के साथ द्वेष भी है, इसलिए करुणा के साथ क्रोध और प्रेम के साथ घृणा भी है।

     वन्य जीवन में मनुष्य अपने सहज भावों को छिपाता नहीँ। सभ्यता के साथ समाज की मर्यादा का विकास होता है और भावों का गोपन या संयमन सीखना पड़ता है। तब कर प्राणी के प्रति सभी के भाव एक जैसे नहीँ होते, “एक ही आदमी को कोई परम् धार्मिक नेता समझता है, कोई पूरा मक्कार।” (पृ.101) 

      जैसे, आसाराम, रामरहीम, रामदेव, इत्यादि। इसमेँ उस आदमी के गुणों का योगदान भी होता है और ग्रहीता की अतम्बद्ध भावना का भी। यही नहीँ, घृणा हो प्रेम, दोनोँ भावों को छिपाना पड़ता है वरना खाप पंचायतें और जातिवादी या धर्मवादी लोग न जाने कितने युवक-युवतियों को मौत के घाट उतार दें! 

      पहले के लोग कह गये हैं कि ‘खैर खून खाँसी खुसी वैर प्रीति मधुपान/ लाख छिपाये ना छिपे, जानत सकल जहान।’ जो भाव छिपते नहीँ, वे दूसरोँ को प्रभावित जल्दी करते हैं। इसीलिए उन्हें ‘प्रेष्य’ भाव कहा जाता है। शुक्ल जी ने चेतावनी दी है कि “प्रेष्य मनोवेगों से बहुत सावधान रहना चाहिए।” (103) 

सावधान रहने का अर्थ उन भावों से बचना नहीँ है।  प्रेमचंद ने जीवन और साहित्य में घृणा के महत्व पर एक ऐतिहासिक लेख लिखा था। शुक्ल जी उनके समकालीन और प्रशंसक थे। शुक्ल जी ने’क्रोध’ नामक निबंध मेँ स्पष्ट लिखा है कि “सामाजिक जीवन में क्रोध की ज़रूरत बराबर पड़ती है।” (131)

   क्रोध प्रेष्य भाव है। यदि वह अन्याय के प्रति है तो समाज के लिए मूल्यवान है। किंतु यदि वह निरीह और अत्यचारी का फ़र्क़ भूलकर चलता है तो समाज के लिए विनाशकारी है। मणिपुर मेँ क्रोध अन्याय के प्रति नहीँ, अन्यायपूर्ण है।

    इसीलिए उसे ऐसी शासनसत्ता का संरक्षण मिला जो कुकी आदिवासियों एवं ईसाइयों के खिलाफ आतंक बन गया जबकि ऐसा कार्यकलाप राष्ट्रीय प्राणधारा के लिए अत्यंत विध्वंसक है। सुप्रीम कोर्ट तक को कहना पड़ा कि मणिपुर मेँ राज्य मशीनरी फेल हो गयी है, वहाँ कोई सरकार ही नहीँ रह गयी है! यही बात हरियाणा मेँ लागू हुई। 

इससे ज़ाहिर है कि क्रोध जैसे भाव को मर्यादित करने वाली कोई और शक्ति चाहिए। शुक्ल जी ने बताया है कि क्रोध तभी मानवीय ह4और हितकारी है जब “यह क्रोध करुणा के आज्ञाकारी सेवक के रूप मेँ हमारे सामने आता है।” (137) 

      यह सुझाव जितना शुक्ल जी के समय उपयोगी था, उससे ज्यादा आज है। उस समय विदेशी शासन से संघर्ष में क्रोध का कुछ अतिरेक भी क्षम्य हो सकता था।

     आज हमेँ अपने देश को सभ्य संसार मेँ एक नयी ऊँचाई पर ले जाना है। ऐसे मेँ विवेक से अनुशासित मनोभावों की ज़रूरत है। लेकिन हम देखते हैं कि जिन राजनीतिज्ञों को जनजीवन पर सकारात्मक प्रभाव डालना चाहिए वे उसे उत्तेजित करते हैं। विवेक की जगह उत्तेजना का उपयोग समाज को खरतनाक दिशा मेँ ले जाने वाला सिद्ध होगा। इसीलिए शुक्ल जी को पढ़ना बहुत आवश्यक जान पड़ा।

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