हाल के दिनों में मशहूर फ़िल्म अभिनेता नाना पाटेकर ‘इंडिया टुडे’ समूह से जुड़े मीडिया वेब पोर्टल ‘दी लल्लनटॉप’ के दफ़्तर में तशरीफ़ लाए, जहां उनका लंबा इंटरव्यू संपादक सौरभ द्विवेदी ने किया। द्विवेदी ने ‘क्रांतिवीर’ फ़िल्म के मुख्य अभिनेता का स्वागत पैर छूकर किया। उनका यह करतब बेजा नहीं था, बल्कि ऐसा कर द्विवेदी जी अपने दर्शकों के सामने ख़ुद को “संस्कारी” पत्रकार के तौर पर पेश कर रहे थे। भला धर्म और परंपरा के नाम पर बहुसंख्यक समाज के लोगों की भावनाओं के साथ खेलने का हक़ सिर्फ़ राजनेताओं के क्यों होना चाहिए? हिंदी के पत्रकार क्या किसी से कम हैं?गैर-सरकारी संगठन ऑक्सफैम व न्यूजलॉन्ड्री नामक मीडिया संस्थान ने एक सर्वे जारी किया है। इसके मुताबिक मीडिया के सभी स्वरूपों फिर चाहे वे अखबार हों या न्यूज चैनल या फिर ऑनलाइन न्यूज पोर्टल सभी में वंचितों की हिस्सेदारी नगण्य है
हालांकि आलोचकों को इस बात से दुख है कि ‘जर्नलिज्म’ की दुनिया में शायद ही कोई दूसरा मुल्क हो, जहां का पत्रकार इंटरव्यू करने वाले व्यक्ति का पहले पैर छूता हो और फिर प्रश्न पूछता हो। मगर ऐसे आलोचकों को कौन सुनता है? हिंदी के पत्रकार तो ऐसे आलोचकों को कौड़ी-भर भी भाव नहीं देते हैं। उनकी नज़रों में ऐसे आलोचक “हिंदू विरोधी” हैं।
क्या नाना पाटेकर के चरण-स्पर्श के पीछे कुछ और भी मक़सद हो सकता है? शायद सौरभ द्विवेदी ने यह भी सोचा हो कि फ़िल्म स्टार के पैरों में झुक जाने से न सिर्फ़ इंटरव्यू ‘स्मूथ’ रहेगा, बल्कि आगे के दिनों में भी नाना के साथ नेटवर्किंग ठीक बनी रहेगी।
इंटरव्यू के दौरान नाना पाटेकर ने बहुत सारी बातें कीं, मगर उनके जिस सवाल ने ‘दी लल्लनटॉप’ के संपादकों और मालिकान के चेहरे पर पसीना ला दिया, उसे पूछने की हिम्मत तथाकथित प्रगतिशील तबका भी नहीं करता। एक घंटे की गुफ़्तगू के आस-पास, नाना पाटेकर ने अचानक से यह पूछ डाला, “यहां कोई मुसलमान है… कोई… कोई नहीं है?”
यह सवाल सामने बैठे द्विवेदी को परेशान कर गया, मगर उन्होंने अपनी ‘फीलिंग’ दबाने की पूरी कोशिश की। वह किसी भी हाल में ख़ुद को और अपनी संस्था को ‘एक्सपोज़’ होने नहीं देना चाहते थे। मगर उन्हें क्या मालूम था कि नाना ऐसा गोला भी दाग देंगे। नाना के प्रश्न के कुछ सेकंड के बाद, द्विवेदी जी मामले को समेटने की कोशिश की और अचानक से पीछे खड़े किसी शख़्स की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि “नहीं नहीं, पीछे हमारी टीम में हैं, कैमरे के पीछे वो हैं, आलिश हैं।”
उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने वाले सौरभ द्विवेदी ने पूरा ज़ोर लगा दिया कि मुसलमान वाली बात दब के रह जाए। मगर उन्होंने जो एक जुमला बोला, वह हिंदी पत्रकारिता की असलियत उजागर करने के लिए काफ़ी था। द्विवेदी के मुख से निकला हुआ एक वाक्य साफ़ तौर पर बयान कर रहा था कि हिंदी पत्रकारिता में माइनॉरिटी और वंचित तबके के लिए जगह नहीं है। हिंदी पत्रकारिता दरअसल हिंदी पट्टी के सवर्ण जातियों के मर्द पत्रकारों का जमघट है। तमाम पोस्ट कुछ सवर्ण जातियों के लिए आरक्षित हैं।
ख़ासकर, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों के लिए हिंदी पत्रकारिता की ज़मीन तंग कर दी गई है। अगर कभी गलती से हिंदी पत्रकारिता में उनको जगह मिल जाती है, तो वह पीछे की जगह होगी। ब्राह्मण और अन्य सवर्णों की मुट्ठी भर जातियां हिंदी पत्रकारिता की अग्रिम पंक्ति में बैठी हैं। वे हिंदी पत्रकारिता जगत में ‘एजेंडा’ तय करते हैं। वहीं, दलित, आदिवासी, पिछड़ा, महिला और अल्पसंख्यक मुसलमान अमूमन बहिष्कृत हैं। अगर बहुजनों को मौक़ा मिलता भी है, तो उनको निचले पायदान पर रखा जाता है।
हिंदी पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद भी नौकरी उन्हीं को मिलती है, जिनकी ‘कास्ट नेटवर्किंग’ होती है। अगर आप सवर्ण हैं तो आपको बड़े अख़बार से ऑफ़र मिलेंगे। मगर अगर उतनी ही योग्यता के साथ कोई दलित और मुसलमान अपना आवेदन देता है, तो उसको छांट दिया जाता है। कई मामलों में उनके बायोडेटा का जवाब तक नहीं आता। अगर किसी बहुजन को नौकरी मिल भी गई तो उससे ज़्यादा-से-ज़्यादा काम लिया जाता है, वहीं उसकी सैलरी अपने सवर्ण सहकर्मियों के मुक़ाबले काफ़ी कम मिलती है। दूसरी बात यह कि कैमरा के सामने सवर्ण होता है और पर्दे के पीछे का काम बहुजनों से लिया जाता है। मिसाल के तौर पर, बहुजनों के लिए ‘प्रूफ रीडिंग’ और ‘एडिटिंग’ जैसे काम दिए जाते हैं, जबकि सवर्ण संपादक यह तय करता है कि कौन-सी खबर जाएगी और किस खबर को दबा दिया जाएगा।
मतलब साफ़ है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश का मीडिया बहुत ही अलोकतांत्रिक है। शीर्ष पर बैठा सवर्ण संपादक सब कुछ तय करता है। वह न्यूज़रूम में तानाशाह की तरह काम करता है। मीटिंग के दौरान वह सिर्फ़ आदेश देता है। वह खबर लिखे जाने से पहले रिपोर्टर को बता देता है कि उनको कैसे खबर लिखनी है। उसी तरह पेज बनाने वाले संपादक भी उसके इशारे पर खबरों के लिए जगह तय करते हैं।
अख़बार और न्यूज़ चैनल का सवर्ण संपादक मालिकान और मैनेजमेंट का एजेंट के तौर पर काम करता है। मालिकान और मैनेजमेंट सत्ता वर्ग के इशारों पर चलते हैं। कड़वी सच्चाई तो यह है कि निचले पायदान पर खड़े पत्रकार पत्रकारिता नहीं बल्कि नौकरी करते हैं। उनकी हैसियत मज़दूर की होती है। सवर्ण संपादक उनसे जैसा काम लेना चाहता है, वैसा वह हर बार लेता है। जो पत्रकार अपने सवर्ण संपादक से असहमति जताते हैं, या उनके बताए हुए निर्देश के मुताबिक़ क़लम नहीं चलाते, उनका मीडिया में टिकना बहुत ही मुश्किल होता है।
यह सब कुछ एक सोची-समझी साज़िश के तहत हो रहा है। देश भर में मुख्यधारा के मीडिया पर पूंजीपतियों का क़ब्ज़ा है। मगर वह ख़ुद को इस गंदे खेल से ओझल रखना चाहते हैं, इसलिए अख़बार और न्यूज़ चैनल को चलाने की ज़िम्मेदारी किसी और के हवाले कर देते हैं।
जहां एक तरफ़ वैश्य और अन्य सवर्ण जातियां बड़े अख़बारों और न्यूज़ चैनलों के मालिक हैं, वहीं अख़बार की संपादकीय ज़िम्मेदारी ब्राह्मण और दूसरी ऊंची जातियों के हवाले कर दी गई है। दलित, आदिवासी, ओबीसी, महिला और माइनॉरिटी मुस्लिम समुदाय के पत्रकारिता के क्षेत्र से लगभग बहिष्कृत हैं। देश के बहुजन समुदाय शोषित हैं, इसलिए शोषक वर्ग इन पर यक़ीन नहीं करता और अपनी संस्था से उन्हें दूर रखता है।
निष्कर्ष यही है कि भारत की पत्रकारिता, ख़ासकर हिंदी मीडिया, की ‘ड्राइविंग’ सीट पर मुट्ठी भर हिंदू-सवर्ण जातियां बैठी हैं। दलित, आदिवासी और मुसलमान टॉर्च लेकर भी खोजने से नहीं मिलेंगे। अगर मिलेंगे भी तो वह खबरों के चयन करने की हैसियत में नहीं हैं।
समझा जाता है कि अख़बार के प्रसार के बाद लोगों में सियासी जागृति आएगी और लोकतंत्र मज़बूत होगा। मगर भारत में हिंदी अख़बारों के घर-घर पहुंचने और कई सारे न्यूज़ चैनल के स्थापित होने के बाद भी सामाजिक परिवर्तन देखने को नहीं मिल रहा है। इसकी वजह है कि सिर्फ़ अख़बार के ज़्यादा फैलाव से ही चीज़ें नहीं बदल सकतीं। बड़ा सवाल यह है कि इन अख़बारों का नियंत्रण किनके हाथों में हैं। चूंकि इनमें लिखने वाले लगभग सभी पत्रकार सवर्ण लॉबी के प्रतिनिधि रहे हैं, इसलिए इसका चरित्र हमेशा से ही रूढ़िवादी और सांप्रदायिक रहा है। मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता ने हमेशा ही वंचितों को मीडिया के शीर्ष नेतृत्व से दूर रखा है, ताकि वे बड़ी आसानी से सत्ता वर्ग की दलाली कर सकें।
पिछले तीन दशकों की घटनाओं की मिसाल ले लीजिए। आप पाएंगे कि हिंदी पत्रकारिता ने हमेशा अवाम के साथ धोखा किया है। बाबरी मस्जिद और राम मंदिर आंदोलन के दौरान हिंदी पत्रकारिता ने आग में घी डालने का काम किया और हिंदुत्व की नफ़रती विचारधारा को “राष्ट्रवाद” के तौर पर पेश किया। ओबीसी आरक्षण की लड़ाई के दौरान, उसने बहुजनों का पक्ष रखना तो दूर की बात, उल्टा उनके आंदोलन को समाज को तोड़ने वाला कहा। इसके साथ-साथ, हिंदी पत्रकारिता ने ऐसी आर्थिक नीति का समर्थन किया है, जो अमीर को और अमीर बनाती है और ग़रीब को और ग़रीब।
जल, जंगल और ज़मीन से जुड़े हुए आंदोलनों को बदनाम करने में हिंदी पत्रकारिता सबसे आगे है। हाल के दिनों में उसने कृषि आंदोलन को भी जमकर कोसा। कोरोना के दौरान तबलीगी जमात से जुड़े मुसलमानों को खूब गालियां दीं। अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज के प्रति उसका रवैया भी हमेशा सौतेला रहा है। उनके रोज़ी और रोज़गार के प्रश्नों को हिंदी पत्रकारिता ने हमेशा नज़रअंदाज़ किया है और उन सवालों को प्रमुखता दी है जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ द्वेष फैलाने में सहायक हैं।
मगर दूसरी तरफ़, यही मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता सांप्रदायिक ताक़तों को हिंदू समाज का “सबसे बड़ा हितैषी” के तौर पर पेश करती है। सबसे अफ़सोसनाक है कि अंधविश्वास फैलाने में हिंदी पत्रकारिता सबसे आगे है। महिलाओं के प्रश्नों को हिंदी पत्रकारिता ने दबाया है और उनकी बराबरी की लड़ाई को नज़रअंदाज़ किया है।
कुल मिलाकर मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता, कुछ अपवादों को छोड़कर, ऊंची जाति के स्वार्थों को पूरा करती है। यही वजह है कि हिंदी पत्रकारिता में जहां आपको सवर्ण पत्रकारों की भरमार मिल जाएगी, वहां दलित, पिछड़े, आदिवासी और मुसलमान आपको गलती से कहीं एक-आध पीछे खड़े मिलेंगे।
अगर भारत में समता पर आधारित समाज की स्थापना करनी है और लोकतंत्र को मज़बूत करना है, तो हमें न सिर्फ़ सत्ता परिवर्तन करना होगा, बल्कि दलित-बहुजनों को पत्रकारिता जगत में उचित भागीदारी भी दिलानी होगी। जब तक न्यूज़रूम का लोकतांत्रिकरण नहीं होगा, तब तक कोई मुसलमान और कोई दलित-बहुजन द्विवेदी की तरह सामने बैठकर नाना पाटेकर का इंटरव्यू लेने की पोज़ीशन में नहीं होगा।
मीडिया में आदिवासियों, दलितों और ओबीसी का प्रतिनिधित्व नगण्य
मीडिया में पिछड़े और वंचित समूहों की आवाज़ क्यों नहीं सुनाई देती? क्यों वंचितों के सवाल मेनस्ट्रीम मीडिया में सिरे से ग़ायब हैं? कमज़ोर तबक़ों के सवालों की अनदेखी क्यों की जाती है? ये ऐसे सवाल हैं जो अक्सर हमारे मन में कौंधते हैं लेकिन इनका जवाब नहीं मिलता। लेकिन हाल ही में एक ग़ैर-सरकारी संगठन ऑक्सफैम इंडिया और मीडिया संस्थान न्यूज़लॉन्ड्री ने एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट का विश्लेषण करने पर ऊपर लिखे सवालों का जवाब कुछ हद तक मिल जाता है।
“हू टेल्स अवर स्टोरीज़ मैटर्स : रिप्रेजेंटेशन ऑफ मार्जिनलाइज़्ड कास्ट ग्रुप्स इन इंडियन न्यूज़रूम्स” नाम की यह रिपोर्ट बताती है कि भारतीय मीडिया के तमाम न्यूज़रुम वंचितों की आवाज़ से वंचित हैं। यानि यहां काम करने वाले अधिकतर लोग सवर्ण हैं जिनके अपने सरोकार हैं। अपने अध्ययन में ऑक्सफैम-न्यूजलॉन्ड्री ने पाया है कि भारतीय मीडिया में अनुसूचित जनजाति के लोग नज़र ही नहीं आते, जबकि अनुसूचित जातियों के लोगों का प्रतिनिधित्व भी बतौर पत्रकार न के बराबर है।
हिंदी अखबारों में पत्रकारों व स्तंभकारों की जाति
अखबार | पत्रकार | स्तंभकार |
---|---|---|
अमर उजाला | ||
सवर्ण | 62.6 | 53.4 |
आदिवासी | 0.5 | 0.8 |
दलित | 5.7 | 6.7 |
ओबीसी | 10.5 | 8.7 |
जाति उपलब्ध नही | 6.1 | 5.9 |
जाति बताने से इंकार | 14.6 | 24.5 |
दैनिक भास्कर | ||
सवर्ण | 68.2 | 56.2 |
आदिवासी | 0.3 | 0.4 |
दलित | 7.4 | 9.9 |
ओबीसी | 10.6 | 11.6 |
जाति उपलब्ध नही | 3.1 | 4.5 |
जाति बताने से इंकार | 10.4 | 17.8 |
हिन्दुस्तान | ||
सवर्ण | 61.1 | 57.6 |
आदिवासी | 1.4 | 1.1 |
दलित | 6.7 | 6.5 |
ओबीसी | 7.4 | 8.5 |
जाति उपलब्ध नही | 3.9 | 8.1 |
जाति बताने से इंकार | 19.6 | 18.2 |
नवभारत टाइम्स | ||
सवर्ण | 68 | 64.4 |
आदिवासी | 0.2 | 0.2 |
दलित | 5.4 | 6.8 |
ओबीसी | 9.8 | 10.1 |
जाति उपलब्ध नही | 6.3 | 6.7 |
जाति बताने से इंकार | 10.2 | 11.7 |
प्रभात खबर | ||
सवर्ण | 58.5 | 57.2 |
आदिवासी | 2.8 | 3.8 |
दलित | 7.8 | 9.2 |
ओबीसी | 9.3 | 11.2 |
जाति उपलब्ध नही | 7.9 | 6.8 |
जाति बताने से इंकार | 12.3 | 11.8 |
पंजाब केसरी | ||
सवर्ण | 49.8 | 50.8 |
आदिवासी | 0.3 | 0.4 |
दलित | 11.8 | 11.9 |
ओबीसी | 12.1 | 12.1 |
जाति उपलब्ध नही | 9.6 | 5.6 |
जाति बताने से इंकार | 16.4 | 19.2 |
राजस्थान पत्रिका | ||
सवर्ण | 66.5 | 65.9 |
आदिवासी | 1.9 | 1.9 |
दलित | 11.9 | 4.7 |
ओबीसी | 9.2 | 9.3 |
जाति उपलब्ध नही | 2.4 | 4.7 |
जाति बताने से इंकार | 8.2 | 13.5 |
कुल (उपर वर्णित अखबारों में) | ||
सवर्ण | 60.3 | 56.2 |
आदिवासी | 0.9 | 1.1 |
दलित | 8.3 | 8.1 |
ओबीसी | 10.1 | 9.7 |
जाति उपलब्ध नही | 6.3 | 6.5 |
जाति बताने से इंकार | 14.1 | 18.4 |
स्रोत : ऑक्सफैम-न्यूजलॉन्ड्री सर्वे
अपनी इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए ऑक्सफैम इंडिया और न्यूज़लॉन्ड्री ने अंग्रेज़ी के 6 और हिंदी के 7 अख़बारों का अध्ययन किया। इसके अलावा डिजिटल मीडिया से जुड़े 11 संस्थानों, 12 समाचार पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से ब्यौरा जुटाया। साथ ही अंग्रेज़ी के 7 और हिंदी के 7 प्रमुख टीवी चैनलों पर प्रसारित कार्यक्रमों में शामिल होने वाले रिपोर्टर, लेखक और पैनलिस्टों का ब्यौरा जुटाया। इसके बाद जो नतीजे सामने आए वे चौंकाने वाले थे।
रिपोर्ट के मुताबिक़ सर्वेक्षण में शामिल सभी समाचार पत्र, पत्रिका, टीवी चैनल और वेबसाइट के न्यूज़रूम में निर्णायक पदों पर यानि मुख्य संपादक, प्रबंध संपादक और ब्यूरो प्रमुख जैसी कुर्सियों पर सवर्ण क़ाबिज़ हैं। अध्ययन में पाया गया कि कुल 121 निर्णायक पदों में से 106 पर उच्च जाति के पत्रकारों का क़ब्ज़ा है जबकि इनमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का एक भी सदस्य नहीं है। राज्यसभा टीवी, आज तक, न्यूज़ 18, इंडिया टीवी, एनडीटीवी इंडिया, रिपब्लिक भारत, और ज़ी न्यूज में सभी निर्णायक पदों पर उच्च जाति के लोग क़ाबिज़ हैं।
यह रिपोर्ट कहती है कि प्रतिनिधित्व देने के मामले में पत्रिकाओं में बाक़ी संस्थानों यानि टीवी, अख़बार और वेबसाइटों से हालात थोड़े बेहतर हैं। हिंदी की इंडिया टुडे और आउटलुक के अलावा अंग्रेज़ी की बिज़नेस टुडे, फेमिना, फ्रंटलाइन, इंडिया टुडे, द कैरवैन (कारवां), आर्गनाइज़र, आउटलुक, स्पोर्ट्सस्टार और तहलका जैसी पत्रिकाओं में 73 फीसदी निर्णायक पदों पर सवर्णों का क़ब्ज़ा है जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की हिस्सेदारी 13.6 फीसदी है। इन पत्रिकाओं में भी निर्णायक पदों पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व पूरी तरह नदारद है।
अंग्रेजी अखबारों में पत्रकारों व स्तंभकारों की जाति
अखबार | पत्रकार | स्तंभकार |
---|---|---|
हिन्दुस्तान टाइम्स | ||
सवर्ण | 66.6 | 57.5 |
आदिवासी | 0.8 | 0.8 |
दलित | 4.2 | 6.5 |
ओबीसी | 10.6 | 7.9 |
जाति उपलब्ध नही | 10.6 | 7.9 |
जाति बताने से इंकार | 12.9 | 17.3 |
द इकोनॉमिक टाइम्स | ||
सवर्ण | 70.1 | 57.8 |
आदिवासी | 1.1 | 1.2 |
दलित | 4.5 | 5.1 |
ओबीसी | 5.6 | 7.7 |
जाति उपलब्ध नही | 4.5 | 5.6 |
जाति बताने से इंकार | 14.3 | 22.6 |
द हिन्दू | ||
सवर्ण | 52.1 | 46.3 |
आदिवासी | 0.5 | 0.4 |
दलित | 5.3 | 7 |
ओबीसी | 7.4 | 10 |
जाति उपलब्ध नही | 8.8 | 10 |
जाति बताने से इंकार | 26.1 | 26.2 |
दी इंडियन एक्सप्रेस | ||
सवर्ण | 58.1 | 51.4 |
आदिवासी | 0.5 | 0.7 |
दलित | 5.5 | 6.7 |
ओबीसी | 5.4 | 6.4 |
जाति उपलब्ध नही | 13.4 | 11.5 |
जाति बताने से इंकार | 17.1 | 19.4 |
दी टेलिग्राफ | ||
सवर्ण | 71.6 | 68.5 |
आदिवासी | 0.1 | 0.2 |
दलित | 3.8 | 6.3 |
ओबीसी | 7.4 | 7.3 |
जाति उपलब्ध नही | 11.7 | 4.9 |
जाति बताने से इंकार | 5.5 | 12.9 |
दी टाइम्स ऑफ इंडिया | ||
सवर्ण | 65.6 | 53.8 |
आदिवासी | 0.3 | 0.9 |
दलित | 2.9 | 5.1 |
ओबीसी | 3.8 | 7.4 |
जाति उपलब्ध नही | 9.9 | 9.4 |
जाति बताने से इंकार | 17.6 | 23.6 |
कुल (उपर वर्णित अखबारों में) | ||
सवर्ण | 62.1 | 53.9 |
आदिवासी | 0.5 | 0.7 |
दलित | 4.4 | 6.2 |
ओबीसी | 5.5 | 8.3 |
जाति उपलब्ध नही | 10.2 | 9.2 |
जाति बताने से इंकार | 17.2 | 20.7 |
स्रोत : ऑक्सफैम-न्यूजलॉन्ड्री सर्वे
न्यूज़लॉन्ड्री, फर्स्टपोस्ट, स्क्रॉल, स्वराज्य, द केन, द न्यूज़ मिनट, द प्रिंट, द क्विंट, द वायर अंग्रेज़ी, न्यूज़लॉन्ड्री हिंदी और सत्याग्रह हिंदी जैसी तमाम वेबसाइटों में 80 फीसदी से ज़्यादा निर्णायक पदों पर सवर्ण बैठे है। यहां भी अन्य पिछड़ा वर्ग की हिस्सेदारी 5 फीसदी से कम है जबकि अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग नदारद हैं।
रिपोर्ट कहती है कि न सिर्फ निजी बल्कि सरकारी चैनलों में भी हालात बेहतर नहीं हैं। जांच में पता चला कि राज्यसभा टीवी जैसा सरकारी चैनल दलित और पिछड़ों की अनदेखी कर रहा है। राज्य सभा टीवी में स्क्रीन पर दिखने वाले तमाम चेहरे उच्च जाति के हैं। न सिर्फ एंकर बल्कि पैनिलिस्टों में भी सवर्णों की हिस्सेदारी 80 फीसदी से ज़्यादा है। अक्तूबर 2018 से मार्च 2019 के बीच 7 टीवी चैनलों पर प्रसारित हुए बहस के कार्यक्रमों को जिन 47 एंकरों ने संचालित किया उनमें 33 सवर्ण थे। इनमें एक भी एंकर आदिवासी या दलित नहीं था। इन चैनलों में राज्यसभा टीवी, आज तक, न्यूज़ 18, इंडिया टीवी, एनडीटीवी इंडिया, रिपब्लिक भारत, और ज़ी न्यूज शामिल हैं।
इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए तमाम टीवी चैनलों पर अक्तूबर 2018 से मार्च 2019 के बीच टीवी पर दिखने वाले 1883 पैनिलिस्टों की पृष्ठभूमि की जांच की गई। राज्यसभा टीवी के अलावा एनडीटीवी जैसे चैनल में भी सामाजिक विविधता कम ही मिली। एनडीटीवी 24×7 की बहस में 71.4 फीसदी, सीएनएन न्यूज़- 18 में 68.6 फीसदी और इंडिया टुडे पर 53.5 फीसदी पैनलिस्ट सवर्ण थे। अध्ययन में पाया गया 1883 में से क़रीब 30 फीसदी पैनलिस्ट या तो अल्पसंख्यक समुदाय से थे या फिर उनकी जाति का पता नहीं लग पाया।
ऑक्सफैम इंडिया और न्यूज़लॉन्ड्री के अध्ययनकर्ताओं ने 2018 से मार्च 2019 के बीच 6 अख़बारों में छपे 16 हज़ार से ज़्यादा लेखों का अध्ययन किया। इसमें उन्होंने पाया कि इनको लिखने वालों में दलित और आदिवासियों की हिस्सेदारी 5 फीसदी से भी कम है जबकि 62 फीसदी से ज़्यादा लेख उन्होंने लिखे हैं, जिनका संबंध सवर्ण जातियों से है।
ध्यातव्य है कि मीडिया में वंचितों की हिस्सेदारी को लेकर पहले भी सर्वेक्षण रिपोर्ट सामने आए हैं। मसलन 2006 में मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, दिल्ली के अनिल चमड़िया और सीएसडीएस के योगेंद्र यादव ने 37 मीडिया संस्थानों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि मीडिया में 315 प्रमुख पदों में से फैसला लेने के स्तर पर महज़ एक फीसदी लोग ही ऐसे हैं जिनका ताल्लुक़ अन्य पिछड़ा वर्ग से था। हालांकि प्रमुख पदों पर ओबीसी की हिस्सेदारी 4 फीसदी थी। इसके उलट फैसला लेने वाले पदों पर 71 फीसदी सवर्ण क़ाबिज़ थे।
इस कड़ी में प्रज्ञा शोध संस्थान, पटना की तरफ से एक सर्वे 2009 में जारी किया गया था। प्रमोद रंजन (संप्रति प्रबंध संपादक, फारवर्ड प्रेस) ने बिहार की राजधानी पटना में कार्यरत 42 प्रमुख मीडिया संस्थानों का अध्ययन किया था। तब उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि पटना में काम करने वाले कुल 78 पत्रकारों में से 73 फीसदी सवर्ण थे। इस अध्ययन के मुताबिक़ हिंदी अख़बारों में 87 फीसदी, अंग्रेज़ी अख़बारों में 75 फीसदी और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 90 फीसदी पत्रकार सवर्ण थे।
इसी तरह शिक्षाविद् रॉबिन जेफ्री ने दस साल तक, अलग-अलग शहरों में, कई समाचार समूहों पर शोध किया। इसके बाद उन्होंने ‘इंडियाज़ न्यूज़पेपर रेवोल्यूशन’ नाम से किताब लिखी। इसमें उन्होंने दावा रिया कि दलित या आदिवासी मालिक और संपादक तो दूर उन्हें कोई दलित पत्रकार भी नहीं मिला।
बहरहाल, जब वंचितों को मीडिया में जगह ही नहीं मिलेगी और वे ख़बर ही नहीं लिखेंगे तो मीडिया में उनके सरोकार दिखेंगे कैसे? जनसरोकार और वंचितों की आवाज़ उठाने के लिए उन लोगों का होना ज़रुरी है जो स्वयं भुक्तभोगी हैं। मीडिया में जब तक वंचित तबक़ों का प्रतिनिधित्व नहीं बढ़ेगा और निर्णायक पदों तक उनकी पहुंच नहीं होगी तब तक उनसे जुड़ी ख़बरों में ईमानदारी खोजना अपने आप में बेमानी है।