दिव्या गुप्ता
कट्टरता, असहिषुणता या फिर अज्ञान किसी खास जगह या जमात की चीज नहीं है. यह कहीं भी हो सकता है. हमारी पौराणिकता में रावण बहुत विद्वान माना गया है. लेकिन वह नायक नहीं,खलनायक है. वह विद्वान जरूर था, लेकिन दम्भी और असहिष्णु था, ऐसी लोकमान्यता है, और इसीलिए उसकी विद्वता के बावजूद उसे जनमत ने नायक स्वीकारने से इंकार कर दिया. और अपने हालिया इतिहास के गांधी को लें,तो कोई उन्हें विद्वान नहीं मानता. तिलक, गोखले, फ़िरोज़शाह मेहता, राज गोपालाचारी, नेहरू , जिन्ना , आम्बेडकर, सुभाष सब उनकी अपेक्षा कहीं अधिक काबिल थे.
लेकिन भारतीय जनमन ने मोहनदास गांधी को नायक के रूप में स्वीकार किया और महात्मा कहा. यह शायद इसलिए कि गांधी ने जनमन के साथ अपना एक तादात्म्य बना लिया था. जनमन को छोड़ कर आगे बढ़ने में विश्वास उन्होंने नहीं किया.
इसलिए बाज़ दफा वह जनता की तरह ही रूढ़िवादी और पिछड़े दिमाग के दीखते हैं. आम्बेडकर ने सही आकलन किया है कि गांधी आधे संत और आधे राजनीतिक हैं.
(आम्बेडकर स्वयं आधे विद्वान और आधे राजनीतिक थे.)
मेरा मानना है आम्बेडकर का आकलन गलत नहीं था. गांधी अपनी सुविधा से आकलन करते और निर्णय लेते थे. प्रथम विश्वयुद्ध के दौर में उन्होंने अपने संतत्व को आगे कर दिया और कहा ब्रिटेन अभी युद्ध में उलझा हुआ है, और ऐसे में जब शत्रु मुश्किल में हो उस पर हमला नहीं किया जाना चाहिए.
उन्होंने न केवल होमरूल का समर्थन नहीं किया, बल्कि अपनी अहिंसा नीति को ताखे पर रख ब्रिटिश फ़ौज में हिन्दुस्तानियों को शामिल करने की मुहिम चलाई. इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कैसरेहिंद की उपाधि से नवाजा.
लेकिन वही गांधी दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार के पुरजोर अनुरोध ( क्रिप्स मिशन प्रस्ताव ) के बावजूद युद्ध की मुसीबत में फंसे शत्रु के खिलाफ अपना राजनीतिक जिहाद ( भारत छोडो आंदोलन ) शुरू कर देते हैं . गांधी दोनों में से एक जगह तो गलत जरूर ही थे. लेकिन क्या इस पर कोई विचार करना चाहता है?
गाँधी ने खिलाफत आंदोलन का निर्णय बिना सोचे-समझे लिया और इस से स्वतंत्रता आंदोलन दिग्भ्रमित हुआ. 1908 -9 में ही लिखी अपनी किताब ‘ हिन्द-स्वराज ‘ में वह मेजिनी और गैरीबाल्डी के अंतर को बखूब समझते हैं. क्या वह अपने समय की अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों और तुर्की में चल रहे कमाल पाशा के आंदोलन से अनभिज्ञ थे.
भारत में ही जिन्ना और कुछ दूसरों ने इस पर पुनर्विचार करने की सलाह दी थी. लेकिन गांधी को दकियानूस मुसलमानों का समर्थन मिल गया था. इसे वह खोना नहीं चाहते थे. इसके परिणाम की व्याख्या करने केलिए पूरा इत्मीनान चाहिए. तमाम प्रबुद्ध कांग्रेस जनों ने इस निर्णय पर बाद में अफ़सोस जाहिर किया.
ऐसा ही मसला वर्ण और जाति को लेकर था. 1925 – 27 के बीच रवीन्द्रनाथ टैगोर और गांधी के बीच जाति और वर्ण को लेकर सार्वजानिक बहस लेखों के माध्यम से हुई थी. गांधी जातिप्रथा और वर्णव्यवस्था की हिमायत करते हैं,जबकि टैगोर इसका विरोध करते हैं. लेकिन वही गांधी 1936 में आम्बेडकर द्वारा प्रतिपादित जाति उन्मूलन की उद्घोषणा को समझने की कोशिश करते हैं और स्वयं को कुछ सुधारते भी हैं.
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवन में हमें सभी पक्षों को देखने की परिदृष्टि अपनानी चाहिए. द्वंद्वात्मक भौतिक और बौद्धिक जगत में कुछ भी है तो उसके कारण तत्व हैं.
इसे हमें समझना चाहिए. दुर्भाग्यपूर्ण यह हुआ है कि हमने एकांगी दृष्टिकोण अपनाया हुआ है. विशेष कर अपने इतिहास अध्ययन में हमारा दृष्टिकोण हद से अधिक एकांगी है. मैं अपने सही होने का दावा तो नहीं करूँगी,लेकिन अपनी इस मान्यता को छुपाना भी नहीं चाहूंगी कि हमारा इतिहास लेखन और समझ आज भी औपनिवेशिक दबाव में लिखा-समझा जा रहा है.
मसलन जब हम भारत में ब्रिटिश राज के आने पर विचार करते हैं,तो केवल यह देखते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी के लोग कितने धोखेबाज़ और क्रूर थे. अपनी सामाजिक -राजनीतिक कमजोरियों पर विचार भी करना नहीं चाहते. बंगाल , मैसूर और महाराष्ट्र में अंग्रेजों की जीत के पुख्ता कारण वहां सामाजिक-राजनीतिक अनाचार भी थे.
बहुत बाद में बंकिम, जोतिबा फुले और आम्बेडकर ने इसकी तरफ हमारा ध्यान दिलाया. लेकिन हम तो उन संकेतों को भी नहीं समझ सके.
इन दिनों सावरकर को लेकर हमारे समाज में चर्चा तेज है. हमेशा इस विषय को लेकर टिप्पणियां -प्रतिटिप्पणियां और बहसें होती रहती हैं. एक तबका सावरकर को देश और समाज का शत्रु सिद्ध करने की कोशिश करता है ,तो दूसरा उन्हें गांधी से दो हाथ ऊपर रख कर देखने की वकालत करता है.
मैं समझती हूँ ,दोनों अति है और इस पर कोई विवेक टिक नहीं सकता. गांधी अपनी जगह हैं और सावरकर अपनी जगह. भगत सिंह और नेहरू -आम्बेडकर -सुभाष की भी अपनी जगह है. हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की कई धाराओं में इन सबका योगदान और महत्व है.
मैं जब इन सब के समन्वित दृष्टिकोण से आज़ादी के संघर्ष को देखती हूँ तब एक अलग चीज दिखती है. हमारे भारतीय समाज में सांप्रदायिकता भी थी, जातिवाद और पुरोहित-मुल्लावाद भी था, अशिक्षा थी, ज़मींदारों का शोषण था. कितना कुछ था. इन सब से अनेक स्तरों पर लोग लड़ रहे थे. राजा राममोहन राय, विवियन डेरोजियो , ईश्वरचंद्र विद्यासागर, जोतिबा फुले, दयानन्द , विवेकानंद, रमाबाई सबका अपना अपनी तरह का संघर्ष था.
इनमें से कोई अंग्रेजों के शासन काल में गिरफ्तार नहीं हुआ,या उन पर विरोध दर्ज नहीं किया; तो क्या इनके संघर्ष का कोई अर्थ नहीं था. और इनके मुकाबले कुंअर सिंह, पीर अली हज़रत बेगम, बहादुर शाह ,तात्या टोपे जैसे लोगों के सशस्त्र विरोध का ही अर्थ था. इस तरह देखने से काम नहीं चलेगा.
इसी परिप्रेक्ष्य में सावरकर पर विचार करना होगा. उनके संघर्ष और दृष्टिकोण का एक अलग पक्ष है. जिनलोगों ने दक्कन में मुस्लिम प्रभुत्व के दौर को नहीं समझा है, या फिर जाट,सतनामी ,सिक्ख और मराठा केंद्रित मुग़ल राज विरोधी संघर्षों-आंदोलनों का अध्ययन नहीं किया है, वह सावरकर को समझने में असमर्थ होंगे. जोतिबा फुले और आम्बेडकर को भी नहीं समझ पाएंगे.
तिलक अपने ब्राह्मण और सावरकर अपने हिन्दू आवेग को आगे रख कर आज़ादी के संघर्ष को समझना चाहते हैं, तो फुले और आम्बेडकर अपने शूद्र -दलित आवेग को आगे रख कर मुक्ति आंदोलन को देखते हैं. समाजवादियों और कम्युनिस्टों ने जब हमारे सामाजिक जीवन में वर्गीय भावना को प्रतिपादित किया तो इन लोगों ने किसानों और मजदूरों को आगे रख कर राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन को समझा.
इसे मार्क्सवादी दृष्टिकोण कहा गया. रजनी पाम दत्त की किताब इंडिया टुडे इस दृष्टिकोण से लिखे गए भारतीय इतिहास लेखन का एक उदाहरण हो सकता है.
मेरा विवेक कहता है इन सब तरह के नजरिये को देखो और इसके उपरांत एक अपना नजरिया विकसित करो. सावरकर थे तो इसलिए कि 1905 के बंगभंग प्रतिकार आंदोलन के दौर में ढाका में जमींदार मुसलमानों द्वारा मुस्लिम लीग का गठन हुआ.
1916 के लखनऊ सम्मेलन में सांप्रदायिक आधार पर केंद्रीय धारासभा में सीटें देने का प्रस्ताव स्वीकार हुआ. खिलाफत आंदोलन हुआ. इन सब के बाद हिंदुत्व की राजनीति का विकास स्वाभाविक था. यह घटनाक्रम यदि बीस साल पहले घटित होता तो सावरकर 1857 विषयक अपनी किताब भिन्न नजरिए से लिखते या फिर नहीं लिखते.
अंग्रेजों का मानना था कि 1857 का विद्रोह मुख्यतया पदच्युत मुसलमान शासकों का विद्रोह था. जैसे-जैसे देश में लोकतान्त्रिक भावनाएं मजबूत होने लगीं ,मुसलमानों के कुलीन तबके में यह भावना उभरने लगी कि अंग्रेजो के जाने के बाद उनका नहीं हिन्दुओं का राज आएगा. इसी भावना ने अंततः पाकिस्तान का बीजारोपण किया.
एक छोटे हिस्से में ही सही मुस्लिम राज होना चाहिए. हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है. इस दौर में हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र का विचार उभारना अस्वाभाविक नहीं था. सावरकर इसी भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं. उन्हें इतिहास के अनुक्रम से हटाना और नकारना मुश्किल होगा.
अब उन्होंने अंग्रेजों से मुआफी मांगी कि आर्थिक मदद ली,जैसी जानकारियां उनके महत्व को कम नहीं करेंगी. कुछ लोगों ने बहुत समय तक आम्बेडकर के बारे में यही प्रचारित किया कि वह एक दिन केलिए भी जेल नहीं गए और ब्रिटिश सरकार के हिमायती रहे. यह गलत भी नहीं है.
आम्बेडकर के लिए आज़ादी का मतलब वह नहीं था, जो सवर्ण हिन्दू या असरफ मुस्लिम केलिए था. उन्होंने दलित नजरिए से आज़ादी को देखा और उसकी व्याख्या की.
देर से ही सही उन्हें भारत को स्वीकारना पड़ा. भगत सिंह को आज़ादी के बहुत समय बाद तक हमने स्वतंत्रता सेनानी नहीं माना था. 2007 में उनके परिवार के लिखित निवेदन पर मनमोहन सिंह सरकार ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानी के रूप में मान्यता दी और संसद परिसर में उनकी प्रतिमा स्थापित की गई.
(क्या यह कहा जाएगा कि इसके लिए उन्हें एक पंजाबी प्रधानमंत्री का इन्तजार करना पड़ा.)
मैं चाहूंगी कि हमारे विद्वान और आमजन भारतीय इतिहास की एक विवेकशील समझ विकसित करें. हमें अपनी खासियतों के साथ अपनी कमजोरियों को भी देखना चाहिए.
हम सचमुच इतने गांधीवादी हो जाते हैं कि सुभाष, आम्बेडकर ,जिन्ना , सावरकर सबको भूल जाते हैं. उसी तरह एक आम्बेडकरवादी आम्बेडकर छोड़ शेष सब को ख़ारिज करना चाहता है और एक सावरकरवादी गांधी के वध बगैर भारत की बात करना नहीं चाहता.
ये सब ऐसी अतियाँ हैं जो हमें विवेकवान की जगह कट्टर बनाती हैं. यह कट्टरता एक अँधेरा विकसित करता है. यह अँधेरा कोई एक खेमे में नहीं, सभी खेमों में गहरा रहा है. यह ठीक नहीं है. हमें अपनी समझ को इतना विवेकवान बनाना है जिसमें अनेक किस्मों और रंगों के फूल विकसित हो सकें।